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७६ अवएसा दिज्जन्ति हत्थे नच्चाविऊण अन्नेसिस ।
जं अप्परगा न कीरइ किमेस विक्काणुप्रो धम्मो ? [हाथ नचा-नचाकर दूसरों को उपदेश किये जाते हैं; किन्तु स्वयं उन उपदेशों का पालन नहीं किया जाता ! क्या यह धर्मोपदेश केवल बेचने की वस्तु है ? |
क्रय-विक्रय का आधार केवल धन ही नहीं होता, प्रतिष्ठा भी होती है अर्थात् आपने लोगों को उपदेश दिया और लोगों ने आपको प्रतिष्ठा दी-आपकी प्रशंसा कर दी-आप प्रसन्न हो गये। यह उपदेश का व्यापार है । किसी इंग्लिश कविता की ये दो पंक्तियाँ देखिये :
A man of words and not of deeds
Is like a garden full of weeds ! [जो अपने कथन के अनुसार कार्य नहीं करता, वह मनुष्य घासफूस से भरे हुए बगीचे के समान है]
कार्य के आधार पर मनुष्य को तीन थेणियों में विभाजित किया गया है : प्रारभ्यतेते न खलु विघ्नभयेन नीचैः
प्रारभ्य विनविहिता विरमन्ति मध्याः । विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ।।
- मुद्राराक्षसम् [विघ्नों के डरसे जो कार्य प्रारंभ नहीं करते, वे नीच हैं। प्रारंभ करने के बाद विघ्नों से घबराकर जो कार्य अधूरा छोड़ देते हैं, वे मध्यम श्रेणिके पुरुष है; किन्तु उत्तम जन वे हैं, जो बार-बार विघ्नों से आहत होकर भी प्रारंभ किये गये कार्य को पूरा करके ही छोड़ते हैं, बीच में नहीं
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