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कुछ लोग संकल्प करते हैं, किन्तु कल्पना से विघ्नों की संभावनाओं का विचार करके कार्य से दूर रहते हैं :
सुसंकल्पान् करोमि विचारयामि परित्यजामि पुनः । भवन्नैतादृशं किञ्चित्क्वचिन्न च तादृशं किञ्चित् ॥
एक स्थान पर किसी महात्मा का प्रवचन चल रहा था । उसमें इस बात की प्रेरणा दी जा रही थी कि सबको श्रम की रोटी खानी चाहिये ।
प्रवचन समाप्त होने के बाद वहाँ के राजा ने महात्मा से पूछा कि श्रम की रोटी कैसी होती है - मैं उसे देखना चाहता हूँ ।
महात्माजी ने कहा कि आपके इसी नगर के अमुक मुहल्ले में चरखा कातने वाली एक बुढिया रहती है । उससे आप श्रम की रोटी माँगिये । वह आपको दिखा देगी ।
राजा बुढिया के पास पहुँचा । उससे कहा : "माताजी ! मैं श्रम की रोटी देखना चाहता हूँ । आपके पास हो तो एक रोटी मुझे दिखाइये ।"
बुढिया : "बेटा ! मेरे पास आज कुल है; किन्तु उसमें भी आधी ही श्रम की है,
राजा : "सो कैसे ? ज़रा विस्तार से समझाने का कष्ट करें ।"
एक ही रोटी आघी नहीं ।"
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यह संस्कृत पद्यानुवाद जिस उर्दू शेर का है, वह इस प्रकार है : इरादे बाँधता हूँ, सोचता हूँ, तोड़ देता हूँ । कहीं ऐसा न हो जाये, कहीं वैसा न हो जाये ॥
प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादकने ही यह पद्यानुवाद किया है ।