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१६ मिली । अन्त में थककर राजा भोज की शय्या के नीचे बैठ गया। प्रात:काल राजा भोज उठे और अपनी समृद्धि का विचार करते हुए एक श्लोक के तीन चरणों की रचना कर दी; परन्तु चौथा चरण जम नहीं पा रहा था। चौर कवि से रहा नहीं गया। उसने चौथे चरण की रचना कर दी। राजाने प्रसन्न होकर उसे बहुत-सा धन पुरस्कार में दिया। पूर्ति सहित वह श्लोक इस प्रकार है : चेतोहरा युवतयः स्वजनोऽनुकूल :
सद्बान्धवाः प्रणयगर्भगिरश्च भृत्याः । वल्गन्ति दन्ति निवहास्तरलास्तुरङ्गाः
__ "सम्मीलने नयनयोन हि किञ्चिदस्ति ॥" [मनोहर स्त्रियाँ, अनुकूल कुटुम्बी, अच्छे बन्धु (मित्रादि), प्रेमपूर्ण वाणी बोलने वाले नौकर-चाकर, हथियारों के झुण्ड
और चंचल घोड़े सुशोभित हो रहे हैं; परन्तु आँखें बन्द होने (मर जाने) पर कुछ भी नहीं है]
सन्त तुलसीदास ने एक पद में लिखा है : "सहसबाहु दसवदन आदिनप बचे न कालबली ते । 'हम-हम' करि धनधाम सँवारे अन्त चले उठि रीते ॥
सारांश यह है कि वस्तुओं की क्षणिकता, जीवन की अनित्यता और मृत्यु की अनिवार्यता का विचार करके हमें सबसे मित्रतापूर्ण व्यवहार करना चाहिये ।
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