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[तभी तक निर्दोष विद्या है, गुणों के समूह को महीमा है, सौन्दर्य रूपी लक्ष्मी और पराक्रम है, अपने स्थान पर सब प्रकार की शोभा है तथा दूसरों के गुणों का वर्णन करने में वाणी की चतुराई है, जब तक कि रसोई घर में लगी हुई स्त्रियों के द्वारा भेजे गये पुत्र के मुह से- "हे बाबा! घर में न तेल है और न नमक है...” आदि बोली सुनने का का अवसर नहीं पाता!
गृहस्थ को कदम - कदमपर धन की आवश्यकता होती है; इसलिए कहा जाता है : "जिस साधु के पास कौड़ी, वह कौड़ी का और जिस गृहस्थ के पास कौड़ी नहीं, वह कौड़ी का।
इस कहावत में गृहस्थ के लिए धन की अनिवार्य आवश्यता को रेखांकित किया गया है ।
सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी वीर सावरकर के जीवन की एक घटना सुनने योग्य है।
उन्हें इंग्लैंड में गिरफ्तार करके जहाज द्वारा भारत की ओर भेजा जा रहा था। जहाज जब फ्रांस के तट पर पहँचा, तभी वे पहरेदारों की नज़र से अपने को बचा कर समुद्र में कूद पड़े। फिर धीरे-धीरे जल के भीतरही - भीतर तैरते हुए तट पर जा पहुंचे।
* इस श्लोक का सम्पादक के द्वारा विरचित पद्यात्मक भावानुवाद :
ज्ञान-कला-चर्चा में रस है प्राता तब तक ध्यान-भक्ति-अर्चा में रस है प्राता तब तक । "नमक अन्न साबुन बाबूजी ! आज नहीं है।" यह स्वर घर से नहीं कान में प्राता जब तक!
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