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सरदारके चरणों में रख दिया; किन्तु जो सबसे अधिक धनवान था, उसने कुछ नहीं दिया ।
इससे क्रुद्ध होकर डाकुदल के सरदारने उस नये रंगरूट को उसकी गर्दन काटनेका आदेश दिया। नये डाकूने धनवान के बदले सरदारका ही सिर काट डाला । उसने सोचा कि निरपराध सेठकी गर्दन उड़ाने की अपेक्षा महान् हत्यारे की हत्या करना अधिक अच्छा । जब आज्ञाका पालन ही करना है तो इस सरदारकी अपेक्षा ईश्वरकी या अपनी आत्माकी आज्ञाका पालन ही क्यों न किया जाय ?
उधर सरदारके धराशायी होते ही अन्य डाकू वहाँ से तत्काल नौ-दो-ग्यारह हो गये । धनवान् सेठने अपने प्राणोंके
और धनके रक्षक इस नये डाकूको बहुत-सा धन भेंट किया। धन लेकर वह महात्मा बल्खी के पास गया । बीती घटना का विवरण सुनाया । फिर अपने घर लौट कर भेंट में प्राप्त धन से व्यापार करने लगा। प्राज्ञापालनसे वह धनवान् बन गया।
जैन साध्वियोंका एक समुदाय ग्रामानुग्राम विहार करते हुए किसी गाँवके एक धर्मस्थान में ठहरा या । रातको जब ठंडी हवाके झोंके आने लगे तब गुरुजीने अपनी नई शिष्या साध्वी को फाटक खला न रखनेका आदेश दिया । शिष्या ने फाटक बन्द किया; किन्तु तेज हवाके झोंके से दुबारा खल गया। कारण यह था कि फाटक के भीतर साँकल तो थी, किन्तु उसे अटकाने का नकुचा नहीं था; फिर भी गुरुजी की आज्ञाका पालन तो उसे करना ही था। इसके लिए वह विनीता साध्वी फाटक बन्द करके साँकल के पास स्वयं ही रात-भर खड़ी रही । गुरुजी को तथा अन्य सब
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