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__२२६ अवजानन्ति मां मूढा मानुषों तनुमाश्रितम् ।।
- गीता (वे भोले हैं, जो 'मनुष्य' के शरीर में रहने वाले 'मैं' (आत्मा या परमात्मा) का अपमान करते हैं महाभारत के शान्तिपर्व में लिखा हुआ है : गुह्य ब्रह्म तदिदं वो ब्रवीमि
न मानुषाच्श्रेष्ठतरं हि किञ्चित् ॥ [तुम लोगों को मैं एक बहुत गुप्त बात बता रहा हूँ कि मनुष्य से अधिक श्रेष्ठ इस दुनिया में कुछ भी नहीं है]
एक रूपक से यह बात सिद्ध की जाती है। सुनिये
चाँदी की सिल्ली ने कहा : "मैं तो चाँद के समान चमकती हूँ।"
सोना : "मैं सूरज की तरह चमकता हूँ।"
हीरा : "मेरा मूल्य तुम दोनों से अधिक है और भार कम ।"
पेटी : "रक्षक इस दुनिया में बड़ा होता है। तुम सब मेरे पेट में रहते हो । मैं तुम्हारी संरक्षिका हूँ।"
ताला : लेकिन पेटी की रक्षा मेरे हाथ में है, इसलिये बड़ा मैं हूँ।"
चाबी : 'तू तो मेरे इशारे पर ही खुलता और बन्द होता है; फिर घमण्ड कैसा ?"
हाथ : “पगली ! मेरे बिना तो तू हिल भी नहीं सकती !"
सुनार : "तुम सब बेकार झगड़ रहे हो । पेटी, ताले और चाबी का आविष्कार मनुष्य के मस्तिष्कने किया है ।
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