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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२८ उसकी नम्रता के सामने मेरी शक्ति कुछ भी काम नहीं आ सकी । मैं हार गई । क्षमा करें ।" I Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समुद्र : “तेरे अहंकारको मिटाने के ही लिए मैंने तुझे वेत्रलता लाने का कार्य सौंपा था । जब ग्रामीण कन्याएँ मटके लेकर तेरे तट पर पानी भरने आती हैं, तब वे भी तुझे नम्रताका पाठ पढ़ाती हैं । मटके हाथोंमें लेकर यदि वे सीधी खड़ी रहे तो मटकों में जल नहीं भर जाता । जल भरने के लिए पहले उन्हें अपने शरीर झुकाने पड़ते हैं और फिर मटके भी ! नदी : " जी ! मैं समझ गई अच्छी तरह जान गई कि जीवन में नम्रताका स्थान कितना महत्त्वपूर्ण है ! विनय, सेवा, सहायता आदि गुणों के समूह को ही धर्म कहते हैं । धर्म ही है, जो पशु से मनुष्य के अन्तर को स्पष्ट करता है : -- श्राहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥ [ आहार, निद्रा, भय और मैथुन - ये प्रवृत्तियां पशु और मनुष्य दोनों में होती हैं; परन्तु अकेला धर्म ही मनुष्यों में अधिक होता है । जो धर्म से रहित हैं, वे मनुष्य पशुतुल्य हैं ] बृहदारण्यकोपनिषद् में लिखा है : इदं मानुषं सर्वेषां भूतानां मधु ॥ [ मनुष्य समस्त प्राणियों का मधु है- उत्तम प्राणी है यह मनुष्य । ] जिस प्रकार फूलों में रस उत्तम होता है मधु उसी से बनता है; उसी प्रकार प्राणियों में सर्वोत्तम मनुष्य होता है कर्त्तव्य उसी में प्रतिष्ठित होते हैं । For Private And Personal Use Only -
SR No.008725
Book TitleMitti Me Savva bhue su
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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