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यदि कोई ईमानदारी से अपने भीतर झांक कर देखे तो दोष हूँढने के लिए उसको किसी और जगह जाने की ज़रूरत ही न रहे । जैसा कि कबीर ने कहा है :
बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलिया कोय । जो दिल खोजा प्रापना, मुझसा बुरा न कोय ॥
सच पूछा जाय तो दूसरों में दोष देखने वाला स्वयं ही दोषी होता है। एक सुन्दर दृष्टान्त द्वारा मैं आपके सामने इस बातको प्रमाणित करना चाहूँगा -
रास्ते के एक ओर एक महात्मा ध्यान लगा कर बैठे थे । वहाँ से एक चोर गुजरा । महात्मा को देख कर बोला : “यह भी शायद कोई चोर है। रात-भर चोरी के लिए दौड़ धूप करने के बाद थक कर चूर हो जाने से अब सो रहा है । यदि पुलिस वाले आ गये तो पकड़ ले जायँगे।"
थोड़ी देर बाद एक शराबी उधर से निकला। उसने कहा : “अधिक शराब पीने से ही बेचारे की ऐसी दशा हो गई है कि सुबह तक नशा ही नहीं उतरा। यह तो अच्छा हआ कि रात को मैंने कम पी, नहीं तो मैं भी इसी की तरह कहीं सड़क पर पड़ा सो रहा होता।"
फिर एक ठग निकला। वह बोला : “ऐसा लगता है कि लोगों की आँखों में धूल झोंक कर अपना उल्लू सीधा करने के लिए महात्मा का वेष पहन कर ध्यान का दिखावा करने में यह आदमी बड़ा कुशल है। वास्तव में यह कोई पहुँचा हुआ धूर्त होना चाहिये; परंन्तु लोग इसे मुश्किल से ही पहिसान पायेंगे। यह तो मैं ही हूँ कि जिसने इसकी असलियत को पहिचान लिया।"
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