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फिर प्रात: काल भ्रमण के लिए घर से निकला एक सज्जन वहाँ आया । उसने उन्हें देख कर कहा : " अरे ! ये तो कोई पहुँचे हुए त्यागी महात्माजी हैं । ध्यान लगाकर ये प्रभु के दर्शन का आनन्द ले रहे हैं । जब तक इनकी समाधि नहीं टूटती, मैं यहीं प्रतीक्षा करता हूँ । जब ये आँखें खोलेंगे तब इनसे मनको एकाग्र करने की विधि मैं भी सीखूंगा।"
इस प्रकार दोषदर्शन करने वाले सभी राहगीर चले गये और गुणदर्शन करने वालेने महात्मा से लाभ उठाया ।
एक दिन की बात है । श्री कृष्ण कहीं जा रहे थे । रास्ते में उन्हें एक सड़ियल कुत्ता बैठा दिखाई दिया। उसके शरीर से तेज़ बदबू निकल रही थी । साथ वाले युद्धिष्ठिर भीम, अर्जुन आदि सभी लोग रूमाल मुँह पर रख कर नाक - मौंह सिकोड़ते हुए जल्दी-जल्दी वहाँ से आगे बढ़ गये; परन्तु श्रीकृष्ण कुछ देर जानबूझकर वहीं खड़े रहे और फिर शान्ति से आगे बढ़ गये । उन्होंने कुत्ते के प्रति ज़रा भी घृणा का भाव प्रदर्शित नहीं किया ।
उनकी इस चेष्टासे चकित पांडवों ने जब इसका कारण पूछा तो श्रीकृष्ण ने गम्भीरता से उत्तर दिया : "मैं तो यह देख रहा था कि उस कुत्ते के दाँत कितने स्वच्छ, सफेद और चमकीले हैं । कितना अच्छा होता यदि मेरे दाँत भी वैसे ही चमकीले होते !"
इसे कहते हैं - गुणग्राहकता । जिसकी दृष्टि गुणों पर रहती है, उसे केवल गुण ही दिखाई देते हैं, दोषोंकी ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता ।
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