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१८७ यह सुनते ही बेचार मेहमानों के मनमें भारी घबराहट फैल गई। एक क्षण भी उन्होंने घर में ठहरना उचित नहीं समझा । चारों मेहमान सिर पैर रख कर नौ-दो-ग्यारह हो गये।
उधर से फल की टोकरी लेकर सेठजी घर पर लौटे। फल एक ओर रखकर उन्होंने मेहमानों का हालचाल पूछा तो सेठानी ने कहा • " वे मुझसे चार खुरपे गर्म करने को कह रहे थे। मैंने इन्कार कर दिया कि पहले भोजन जरूरी है; फिर खुरपे भी गर्म कर दूंगी; किन्तु वे पहले खुरपे गर्म करने का आग्रह करते रहे । मैंने नहीं माना तो वे नाराज होकर चले गये।"
सेठजी ने चारों गर्म खुरपे हाथों में पकड़े और मेहमानों को ढूढने निकले । वे दूर जाते हुए दिखाई दिये। सेठजीने जोर से पूकार कर कहा : "ठहरिये ! ये चारों खरपे गर्म हो गये हैं। लीजिये !"
मेहमानों ने सोचा कि सेठानी ने ठीक ही कहा था और हम सावधान होकर चले आये, अन्यथा सेठजी तो गर्म खुरपे लेकर हमारी पीठ दागने के लिए हमारा पीछा कर ही रहे हैं। भोजन की लालच में ठहर गये होते तो अवश्य हमारी दुर्दशा हो गई होती।
ऐसा सोचते हुए और भी तेजी से भागकर वे सेठजी को आँखों से ओझल हो गये।
यहाँ हम देखते हैं कि द्वेष के मूल में भी चिन्ता ही काम कर रही थी। सेठजी को चित्ता थी कि आतिथ्यसत्कार में कोई कसर न रह जाय, इसलिए बाझार से वे फल की टोकरी उठा लाये। सेठानी को चिन्ता थी कि मुझे
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