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१२. दया
दया धर्म का मूल है पाप-मूल अभिमान । तुलसी दया न छाँडिये जब लग घट में प्राण ॥
जब तक घट में प्राण हैं अर्थात् जब तक मनुष्य जीवित है, तब तक उसे दया नहीं छोड़नी चाहिये-निर्दय (क्रुर) नहीं बनना चाहिये।
यदि हम किसी मुर्दे को जिन्दा नहीं कर सकते तो किसी जिन्दे को मुर्दा बनाने का हमें क्या अधिकार है ?
इस्लाम में ईश्वर को "रहीम" कहा जाता है। रहम का अर्थ है-दया; इसलिए रहीम का अर्थ हुआ-दयालु । परमात्मा यदि दयालू है तो वह निर्दयता का व्यवहार कसे सह सकता है ? इसीलिए हज (तीर्थयात्रा) के समय चींटी तो क्या, जूं तक को मारने का निषेध है। प्रभु महावीर ने फरमाया है :
"धम्मस्स जणणी दया ॥" [दया धर्म को माता है]
धर्म का अर्थ है-परोपकार। दूसरों का उपकार वही कर सकता है, जिसके दिल में दया हो।
दया का एक पर्यायवाची शब्द है-अनुकम्पा । यह बहुत स्पष्ट अर्थ की प्रतीति कराने वाला शब्द है। दूसरे दुःखी प्राणियों को देखने के पश्चात् (अनु) जो हमारे हृदय में कम्पन होता है-सहानुभूति जागृत होती है, उसे कहते हैं
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