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कहने का आशय यह है कि हमें वाणी में संयम रखना चाहिये । ऊटपटाँग असम्बद्ध बोलने की आदत से अपना और दूसरों का बहुमूल्य समय बरबाद होता है ।
मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता ॥
[ भला करने वाली परिमित वाणी ही बोलने की कला है ]
सन्त तुलसीदास को पत्नी की एक बातने सन्त बना दिया था । शादी के बाद एक दिनके लिए भी उन्होंने पत्नी को उसके पीहर नहीं जाने दिया । एक दिन उनका साला वहाँ आकर उसे चुपचाप अपने घर ले गया । उस समय तुलसी बाजार में सौदा खरीदने गये थे । घर आने पर पड़ोसियों से पता लगा कि पत्नी अपने भाई के साथ पीहर गई है तो वे तत्काल सौदा घर में पटक कर ससुराल की ओर भागे ।
उधर पत्नी पहुँची और एक-दो घंटे के बाद ये भी वहाँ जा पहुँचे । ससुराल में उनका स्वागत-सत्कार हुआ । रातको जब एकान्त में पत्नी रत्नावली से मिलन का अवसर आया तब वह बोली :
लाज न लागत आपको, दौरे प्रायहु साथ । धिक् धिक् ऐसे प्रेमको, कहा कहौं में नाथ ! अस्थि- चर्ममय देह मम, तामें जैसी प्रीति । तैसी जो रघुनाथ महँ, होति न तो भवभीति ॥
रत्नावली की इस बात को " तुलसीदास " शीर्षक महाकाव्य में महाकवि श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला" ने बहुत प्रभावक ढंग से यों प्रकट किया है :
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