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समय आत्मा और परमात्मा की बीच कोई व्यवधान नहीं रह जाता।
मन्दिर में जाकर आप अपने ललाटपर जो तिलक लगाते हैं, वह दूसरों के सामने यह प्रकट करता है कि प्राप एक धार्मिक पुरुष हैं । वह तिलक आपको दुराचारसे, दुर्व्यसन से और बेईमानी से रोकता है । यही उसका लाभ है ।
द्रव्यपूजा में भी विवेक ज़रूरी है । प्रतिमा पर चढ़ाने के लिए फूल ही तोड़ा जाता है । उसकी पत्ती तोड़ने का निषेध है, जिस से फूल के जीव को अभयदान मिल सके । चाँवल के साथ सुपारी, कमलगट्ट, इलायची, बादाम जैसी सूखी वस्तुएँ ही चढाई जाती हैं; पीपरमेंट की गोली या चाकलेट नहीं; अन्य था भंडार में चींटियाँ एकत्र हो जायेंगी
और चाँवल आदि के भार से या प्रहार से मर जायँगी । ऐसी भूलें प्राय: बच्चे कर बैठते हैं। विवेकी श्रावक-श्राविकाओं को चाहिये कि वे बच्चों को समझा दें; क्योंकि ।
"विवेगे धम्ममाहिए।" [विवेक में ही धर्म होता है-ऐसा कहा गया है]
विवेकी व्यक्ति उन वस्तुओं की उपेक्षा करता है, जिन का सम्बन्ध आत्मा से न हो । स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने अन्तिम समय में अपने प्रियतम शिष्य विवेकानन्द से कहा था: “मेरे पास आठ सिद्धियाँ हैं । मैं तुम्हें देना चाहता हूँ उनको ।"
इस पर बहत ही विनय के साथ स्वामी विवेकानन्द बोले : "गुरुदेव ! यदि उन सिद्धियों का सम्बन्ध आत्मा से न हो तो कृपया मुझे न दें । मैं उन्हें पचा न सकूगा ।"
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