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मेरे पास ही मोजूद है; अन्यथा यह भिग्वारी मुझ से क्यों माँगता ? मेरे पास सुख है और इतना अधिक है कि मैं उसे दूसरों को दे भी सकता हूँ । उसने पाथेय का आधा भाग भिखारी की झोली में डाल दिया । पास ही बैठकर वह इतनी प्रसन्नता से उसे खाने लगा मानो उसे आठों सिद्धियाँ और नवों निधियाँ प्राप्त हो गई हों । भिखारी की प्रसन्नता को देखकर वह आदमी भी वैसी ही प्रसन्नता का अनुभव करने लगा । उसे यह तत्त्वबोध हो गया था कि दूसरों की - जरूरतमन्दों की सहायता करने में ही सुख के दर्शन होते हैं । परोपकार ही सबसे बड़ा सुख है ।
जापान की एक लोमहर्षक यथार्थ घटना है । राष्ट्ररक्षा के लिये एक बार वहाँ पच्चीस युवकों की आवश्यकता महसूस की गई । विज्ञप्ति निकलते ही तीन-चार हज़ार नवयुवकों की कतार लग गई । राष्ट्ररक्षा के पवित्र कार्य में सब युवक अपने आपको समर्पित करने के लिए उत्कण्ठित थे । इतनी अधिक संख्या में एकत्र लोगों को देखकर शासनाधिकारी बड़े असमंसज में पड़ गये कि इनमें से पच्चीस युवकों का चयन किस प्रकार किया जाय ।
आखिर सबके नामों की चिट्ठियाँ बना कर लाट्री से पच्चीस नाम निकाले गये। उनमें एक ऐसे युवक का नाम भी निकल आया, जिसके पिता का देहान्त हो गया था । घरमें केवल माता थी । युवक कुँवारा था और अपनी माता का इकलौता पुत्र था। अधिकारियों ने इकलौतेपन के कारण नियमानुसार उसका नाम निरस्त कर दिया ।
इससे युवक को बहुत निराशा हुई- बहुत दु:ख हुआ; क्योंकि देश के काम आने का शुभ अवसर हाथमें आते-आते
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