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पंडितजी : "आपके श्रममें और मेरे श्रममें अन्तर है। प्राप शारीरिक श्रम करते हैं और मैं बौद्धिक श्रम करता हूँ, इसलिए दोनों का मूल्यांकन समान नहीं हो सकता!"
नाई : "क्यों नहीं हो सकता ? श्रम तो श्रम ही हैभले ही वह शारीरिक हो या बौद्धिक । समय दोनों में समान ही खर्च करना पड़ता है। इसलिए पारिश्रमिक भी समान ही मिलना चाहिये।"
पंडितजी : “मैं स्वर्णमुद्राएँ माँगता नहीं हूँ। राजासाहब स्वयं ही देते हैं; किन्तु पाप तो माँग रहे हैं। माँगने वाले को केवल पारिश्रमिक मिलता है, दक्षिणा नहीं।"
नाई : 'अच्छा तो आप भी मुझे बिना माँगे किसी दिन दो स्वर्णमुद्राएँ दे दीजियेगा। आज मैं पारिश्रमिक से ही काम चला लगा।"
पंडितजी नाई की निर्धारित बनवाई देकर बिदा हो गये; किन्तु नाई के दिल में ईर्ष्या की आग जल रही थी।
दूसरे दिन राजमहल में राजासाहब के बाल बनाते समय नाई ने कहा : "हजूर ! आपके शरीर से हलकी-सी सुगन्ध आती रहती है; परन्तु पंडितजी को, पता नहीं क्यों, दुर्गन्ध आती है ?" __ राजा : “तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि पंडितजी का मेरे शरीर से दुर्गन्ध का अनुभव होता है ?"
नाई : “आप स्वयं ही अपनी आँखों से देख लीजियेगा साहब ! जब पंडितजी प्रवचन करने बैठते हैं, तब आपके पहुँचते ही रूमाल उठा कर वे नाक पर रख लेते हैं या नहीं।"
नाई चला गया। अगले दिन पंडितजी प्रवचनार्थ यथासमय राजमहल में अपने लिये निर्धारित आसन पर जाकर
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