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विराजमान हो गये । राजाजी के पहुँचने पर ही प्रवचन प्रारंभ किया जाता था । ज्यों ही राजासाहब आये, त्यों ही पंडितजी ने बोलना प्रारंभ कर दिया । राजाजी की नज़र तो पंडितजी के रूमाल पर थी । सचमुच उन्होंने उसे मुँह पर रख लिया था । इससे नाई के कथन की पुष्टि हो गई। राजाजी का मन प्रवचन में नहीं लगा । वे पंडितजी को दण्डित करने का उपाय सोच रहे थे ।
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प्रवचन समाप्त होते ही दी जाने वाली चिट्ठी में उन्होंने लिख दिया: स चिट्ठी लाने वाले की तत्काल नाक काट ली जाय ।" नीचे हस्ताक्षर कर दिये । चिट्ठी दे दी ।
पण्डितजी ने वह चिट्ठी उठाई और चल दिये हमेशा की तरह भंडारीजी के पास । उन्होंने चिट्ठी पढ़ने की कोशिश ही नहीं की । उन्हें विश्वास था कि आज भी दो स्वर्णमुद्राएँ देने की बात ही इसमें लिखी होगी ।
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उघर चुगलखोर नाई से न रहा गया । तमाशा देखने के लिए अपनी चुगली से प्रभावित क्रुद्ध राजा पंडितजी के साथ कैसा व्यवहार करते हैं-यह जानने के लिए बिना बुलाये ही नाई राजमहल में चला आया । सामने से प्रसन्न-चित्त पंडितजी आते दिखाई दिये । नाई ने समझा कि इन्हें कोई दण्ड नहीं दिया गया है, तभी खुश है ।
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नाई ने शिष्टाचारवश उन्हें प्रणाम किया । पंडितजी ने नाई के द्वारा माँगी गई दक्षिणा की बात याद आ जाने से वह चिट्ठी उसे दे दी और कह दिया : " लीजिये, आजकी दक्षिणा मैं आप ही को दे देता हूँ - यह चिट्ठी लीजिये और भंडारीजी के पास चले जाइये । "
पंडितजी इसके बाद अपने घर चले गये । नाई भंडारी
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