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पहले ही उन्होंने चिठ्ठी भेजकर सूचित किया था कि हम मिलने आ रहे हैं ।
वह अपने पतिको साथ लेकर फकीर की कुटिया में गई। देखा तो तत्काल पहिचान में आ गये कि वे उसीके पुत्र हैं। वह रोने और विलाप करने लगी : मैं ही पापिन हूँ। जहर देकर मैंने ही अपने प्यारे बच्चों की हत्या की है । धिक्कार है - मुझ हत्यारिनको !” |
मनुष्य हँस-हँसकर पाप करता है; परन्तु उस औरतकी तरह रो-रो कर भोगता है ।
ऐसी ही एक घटना और है ।
एक पंडितजी थे । वे प्रतिदिन राजमहल में जाकर घंटेभर तक घामिक प्रवचन करते थे। दक्षिणामें राजा साहब की ओर से दोदो स्वर्णमुद्राए उन्हें दी जाती थीं । कागजके एक टुकड़े पर राजा साहब दो स्वर्णमुद्राएँ देनेका आदेश भंडारीके नाम पर लिख देते थे । पंडितजो चिठ्ठी बता कर मुद्राएँ ले लेते थे ।
। एक दिन नाईको यह मालूम हुआ कि पंडितजी को दो स्वर्णमुद्राएँ मिलती हैं तो उसका भी मन इस ओर आकर्षित हुआ ।
दूसरे दिन जब पंडितजी नाई के घर बाल बनवाने गये तो बाल बनवाने के बाद नाई ने कहा : “पंडितजी! आप एक घंटा प्रवचन करते हैं और मुझे भी एक घंटा बाल बनाने में लगता है। इस प्रकार दोनों का श्रम समान है तो पारिश्रमिक भी समान होना चाहिये । आप दो स्वर्णमुद्राएँ लेते हैं तो मैं भी आप से दो स्वर्णमुद्राएँ. ही बालबनवाई के लगा।"
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