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चौंककर वे बोले :- “नहीं- नहीं, कौन कहता है ? मैं तो ध्यान से सुन रहा हूँ।"
थोड़ी देर बाद आसोजी फिर ऊँघने लगे। मुनिराज के पूछने पर बोले :- “नहीं - नहीं, कौन कहता है ? मैं तो आँख बन्द करके आपके प्रवचन पर मनन करता हूँ।"
फिर कुछ समय बाद उनकी वही हालत हो गई। मुनिराजने इस बार प्रश्न थोड़ा बदलकर पूछा :- "आसोजी! क्या जी रहे हो?"
वे समझे कि वही प्रश्न होगा, बोले :- “नहीं- नहीं; कौन कहता है ? मैं तो..."
उत्तर सुनकर सभी श्रोता हंस पड़े; क्योंकि इस बार. उनका झूठ पकड़ लिया गया था। लोगों के हँसने का कारण जब उन्हें समझाया गया, तब वे लज्जित हुए।
महर्षि दयानन्द का एक रसोइया था- जगन्नाथ । विरोधियों ने रिश्वत देकर जगन्नाथ को इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वह दही में जहर मिलाकर महर्षि को खिला दे। जहर से मिश्रित दहीं सामने आया। महर्षि ने अनजाने ही पूरे विश्वास के साथ उसे खा लिया। जब शरीर में उसका असर मालूम होने लगा, तब जगन्नाथ को बुलाकर दस हजार रुपयों को थैली उसे थमाते हुए कहा :- "मैं तो अब शरीर छोड़ने ही वाला हूँ ? परन्तु तुम यह थैली लेकर तत्काल यहाँ से भाग जाओ; अन्यथा मेरे अनुयायी तुम्हें जान से मार डालेंगे!"
मरणासन्न अवस्था में भी अपने हत्यारे पर यह अनुकम्पा - यह सहानुभूति, सचमुच किसी पहुँचे हुए महात्मा में ही पाई जा सकती है, जनसाधारण में नहीं।
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