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पूर्वभव का संस्कार और घर का तिरस्कार पाकर छह वर्ष का एक बालक वल्लभीपुर के उपाश्रय में आया । उपाश्रय का द्वार खुला था । बालक ने उसमें बिराजमान आचार्यश्री के चरण पकड़ कर प्रार्थना की कि दीक्षा देकर आप मुझे अपना शिष्य बना लीजिए ।
श्राचार्यश्री ने कहा : " वत्स ! हम तुम्हारे माता-पिता की अनुमति पाये बिना तुम्हें दीक्षित नहीं कर सकते ।
बालक : "अनुमति मैं आप को अभी दिला देता हूँ । आप मेरे साथ घर चलिये ।
"
आचार्यश्री चल पड़े । घर पहुँच कर बालक ने माँ-बाप से कहा : "मैंने संसार छोड़ दिया है । ये आचार्यश्री हैं । मैं इनका शिष्य बनना चाहता हूँ । आप इन्हें दीक्षा की अनुमति दे दीजिये । "
माँ-बाप ने कहा : "गुरुदेव ! एक ही शर्त पर हम दीक्षा की अनुमति दे सकते हैं कि दीक्षा के समय बालक का नाम आप ऐसा रखें कि उससे इसके माँ-बाप का ईसको स्मरण होता रहे ।'
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आचार्यश्री ने स्वीकृति दे दी । इस प्रकार अनुमति प्राप्त होते ही दीक्षा देकर बालक का नाम " उमास्वाति" रखा गया, क्योंकि उमा बालक की माता का नाम था और स्वाति पिताका.
ये वही उमास्वाति थे, जिन्होंने अमर ग्रन्थ " तत्त्वार्थसूत्र” की रचना की, जो दिगम्बरों और श्वेताम्बरों का सर्वमान्य शास्त्र है ।
भावना ही थी यहाँ, जिसने बालक का कल्याण कर दिया. परदेश से लौटा हुआ एक आदमी अपने साथ अनेक कलात्मक वस्तुएँ ले कर आया । उसने वस्तुएँ दिखाने
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