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प्रशस्ति सुनकर राजा लोग उन पर प्रसन्न हो जाते थे और उन्हें पुरस्कार में प्रचुर धन देते थे। इससे उनकी आजीविका चलती थी-पूरा परिवार पलता था ।
ऐसा एक चारण कवि किसी कंजूस सेठ के पास जा पहुँचा । उसने प्रशस्तिकाव्य सुनाकर सेठकी तबीयत खुश कर दी। कुछ-न-कुछ इनाम तो देना ही पड़ेगा अब-ऐसा सोच कर सेठने कह दिया : “मैं तुम्हें एक पगड़ी दूंगा।"
चारण सन्तुष्ट होकर चला गया। दूसरे दिन जब पगड़ी माँगने पहँचा तो जिस मनहरण कवित्त से चारणने प्रशस्तिगान किया था, उसी छन्द में सेठ ने उससे ऐसा कहा :
'पाघ देनी कही सो तो, माँगत हो आज ही पै,
आवेगो असाढ तब, बन हु बुवावेंगे । होवेगो कपास तब, लोड - पीज - कात - बुन, कोऊ चतुर धोबी तें, ऊजरी धुवावेंगे । बुगचा में बाँध घर, रखेंगे कितेक दिन, प्रावेगो कसुम्बो तब, गुलाबी रंगावेंगे । हम बाँध 'पुत बाँध, पोते पड़पोते बाँध, पीछे हम 'वाही पाघ तुमको दिलावेंगे ।
चारणने अपना माथा ठोक कर कहा कि तुम्हारे प्रपौत्र (पुत्र के पुत्र के पुत्र) के सिरसे पगड़ी उतरने तक न तुम जीवित रहोगे और न मैं ही रहूँगा !
ऐसे कृपणों का भला कौन मित्र बनना चाहेगा ? कोई नहीं।
१. पगड़ी। २. गठरी। ३. वसन्त ऋतु । ४. पुत्र । ५. पौत्र (पुत्र का पुत्र)। ६. प्रपौत्र । ७. वही।
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