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है, उस-उसके (सबके ) सामने दिन ( करुणाजनक याचना के )
वचन मत कहा कर ]
विदुर नीति में ऐसे लोगों को कठोर दण्ड देनेका प्रविधान पाया जाता है । लिखा है :
द्वाम्भसि प्रवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् । विद्वांसं चाप्रवक्तारम् धनवन्तमदायिनम् ॥ [ न बोलने वाला विद्वान् और न देने वाला धनवान् इन दोनों को गले में शिला बाँधकर जल में डुबो देना चाहिये ] महात्मा बुद्ध ने भी कहा था :
"न वे कदरिया देवलोकं व्रजन्ति ॥ "
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धम्मपद १३ / ११
[ कृपण कभी स्वर्ग में नहीं जाते ] एक कंजूस मात्र लेना जानता है, देना नहीं; और माँगने वालों को "नहीं है" कह कर निराश कर देता है - यह वात एक राजस्थानी कवि ने इस दोहे के माध्यम से प्रकट की है :
बावन वखर में बड़ो नन्नो सहुनो सार । दद्दो तो जाणू नहीं लल्ले ' अक्सर प्यार ॥ ऐसे लोगों की प्रतिज्ञा होती है : जल डबू श्रगिनी जल 'हिमुख प्रगल दूँ । 7 इतना कारज मैं करूँ दद्दो नाम न ल्यू ॥ राजस्थान में चारण नामक एक समाज है । पुराने जमाने में अपने आश्रयदाता राजाओं की बढ़ा-चढ़ा कर स्तुति करना, कविताओं में प्रशस्ति तैयार करना और उसे गा-गा कर सुनाना उनका प्रमुख कार्य था - व्यवसाय था | उनसे
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१. इन्कार । २. सबका उत्तम अंश । ३. देना । ४. लेना | ५. प्रायः । ६. साँप के मुँह में उँगली दे दूँ । ७. इतने ।