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हिन्दी में एक कहावत है : "धमण्डी का सिर नीचा" अर्थात् घमण्डी को गौरव नहीं मिलता। अन्त में उसे लज्जित होना पड़ता है । इस विषय में एक उदाहरण सुनाकर मैं आज का अपना वक्तव्य समाप्त करूँगा ।
एक घर में सास-बहू की खटपट चलती रहती थी । एक भी दिन ऐसा नहीं बीतता था, जिस दिन उन दोनों में बोलाचाली न हुई हो ।
झगड़ने के बाद रूठ कर सास बहू पर बकझक करती हुई घर से बहार निकल कर बैठ जाती थी ।
भोजन के तैयार हो जाने पर बहू सास को मना कर घर में ले जाती और उन्हें खिला कर खाती ।
इसके द्वारा सास मुहल्ले वालों पर यह प्रभाव जमाना चाहती थी कि घर में मेरी कितनी ईज्ज़त की जाती है । बहू यह सब समझती थी ।
एक दिन पतिदेव व्यापार के सिलसिले में किसी दूसरे शहर में गये हुए थे । सास अपनी आदत के अनुसार कर बाहर जा बैठी ।
रसोई बन गई; किन्तु सास को सबक सिखाने के लिए उस दिन बहू बाहर नहीं निकली । जान-बूझ कर उसने ऐसा किया था । खा-पीकर वह घर के दूसरे कामों में लग गई ।
उधर सास के पेट में चूहे दौड़ने लगे । वह बार-बार झाँक कर घर के भीतर देखती रही; परन्तु बहू मनाने के लिए बाहर नहीं निकली, सो नहीं निकली।
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