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अजरामरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थञ्च चिन्तयेत् । गृहीत ईव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥
[ विद्या और धन का संचय तो बुद्धिमान् अपने को अजर अमर मान कर करे; किन्तु मृत्यु ने मेरे केश पकड़ रक्खे हैं- ऐसा मानकर धर्म का श्राचरण करे ]
मृत्यु तो आयगी ही; परन्तु जो धर्मात्मा है, वह उससे उद्विग्न नहीं होगा । उसको सामने रखकर ही तो उसने धर्माचरण किया है ! यह सोचा है :
नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्त्तव्यो धर्मसंग्रहः ॥ [ मौत सदा पास ही खड़ी है; इस लिए मुझे धर्म का संग्रह करना है ]
इस प्रकार धर्मसंग्रह के लिए प्रेरणा भावना ही देती है ।
भावना की जागृति में द्रव्य भी बहुत सहायक होता है । रावण चाहता था कि अशोक वाटिका में बैठी हुई सीता स्वेच्छा से मुझे स्वीकार कर ले । मन्त्रियों ने सलाह दी कि आप वेश बदलने में कुशल हैं । संन्यासी का वेष पहिनकर सीता को चुरा लाये थे; उसी प्रकार राम का वेश पहिनकर सीता के सामने चले जाइये । वह आपको स्वीकार कर लेगी ।
रावण ने क्या कहा ? वह बोला कि यह प्रयास मैं पहले ही कर चुका हूँ; परन्तु उस वल्कलधारी राम का वेश पहिनते ही मेरी वासनाएँ विलीन हो जाती हैं - विकार विलुप्त हो जाते हैं - कामनाएँ कोसों दूर भाग जाती हैं! सारा गुड़ गोबर हो जाता है; क्या करूँ ?
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