________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
करके दसरों के समकक्ष बन जाता था। यह था-सार्मिक वात्सल्य का वास्तविक रूप !
जब से इस रूप का लोप हुआ, तभी से जैन धर्मावलम्बियों की संख्या घटती जा रही है। विक्रम संवत् १२२६ में भारत के जैनों की संख्या आठ करोड़ थी। श्री हीरविजयसूरि के समय तीन करोड़ रह गई थी। आज केवल एक करोड़ है और यदि आपने ध्यान नहीं दिया तो भविष्य में यह संख्या और भी घट जायगी। सामिक वात्सल्य को मूलरूप में अपना कर इस निरन्तर घटती संख्या को रोका जा सकता है।
जिस प्रकार खेत में जितने दाने बोए जाते हैं, उतने ही नहीं, बल्कि सैकड़ों गुने अधिक दाने उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार जो गुप्तरूप से दान किया जाता है, उसका फल अनन्त गुना मिलता है। महात्मा ईसाने गुप्तदान की विधि बताते हुए कहा था कि यदि तेरा दाहिना हाथ दान करे तो बाएँ हाथ को उस दान का पता न चले-इस तरह दान कर।
परिग्रह वही करता है, जिस में भोगों की लालसा होती है । परिग्रह से भोग और भोगों से भवभ्रमण का संबंध है :
"भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चइ ॥" [भोगी संसार में भटकता है और अभोगी मुक्त हो जाता है]
विरक्ति की भावना ही भोगी जीव को अभोगी बनाती है; इसीलिए वह सब के लिए सुखदायिनी है : सर्वपरिग्रहभोगत्यागः कस्य सुखं न करोति विरागः?
- शंकराचार्य
For Private And Personal Use Only