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२५ [सब परिग्रह और भोगों का जिस में त्याग होता है, वह वैराग्य भला किसे सुख नहीं देता ?]
धन यदि परोपकार में न लगाया जाय तो वह धनवान को कुमार्गगामी बना देता है :
प्रत्थो मूलमणत्थाण ॥ [अर्थ (धन) सब अनर्थों का मूल है
ऐसा शास्त्रकारों ने कहा है। आद्य शंकराचार्य ने यही बात “चर्पट मंजरी' नामक अपने ग्रन्थ में इस प्रकार कही है :
अर्थमनर्थ भावय नित्यम् नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम् पुत्रादपि धनभाजो भीतिः
सर्वौषा विहिता नीतिः [अर्थ को सदा अनर्थ समझो। मैं सच कहता हूँ कि उस (धन) में लेशमात्र भी सुख नहीं है। धनवानों को अपने पुत्रों से भी डर लगा रहता है । यही बात सर्वत्र समझे।
कुछ लोग कहते हैं कि हम अपने पुत्र के लिए धनका संग्रह करते हैं। उनके लिए एक कवि ने कहा है :
पूत सपूत तो का धनसंचय ?
पूत कपूत तो का धनसंचय ? यदि पुत्र सुपुत्र है तो उसके लिए धनसंग्रह की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि अपनी योग्यता के बल पर वह खुद धन कमा लेगा-कमाता रहेगा और यदि पुत्र कुपुत्र है तो भी उसके लिए धन का संग्रह बिल्कुल व्यर्थ है; क्योंकि वह आपके संचित धन को भी इधर-उधर (दुर्व्यसनों में) उड़ा देगा।
साधु-सन्त सलाह देते हैं कि परिग्रह का त्याग करके अपनी आत्मा को भारहीन बनाईये; परन्तु आपको यह
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