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सलाह रुचिकर नहीं लगती। क्यों नहीं लगती ? एक दृष्टांत द्वारा यह बात स्पष्ट होगी।
चार मित्र थे। वे जबलपुर से फिल्म देखने नागपुर गये। फिल्म देखने के बाद भांग की गोलियाँ खा कर वे नागपुर स्टेशन पर आये। जबलपुर के लिए चारों ने टिकिट खरीदे और भ्रम से बम्बई जाने वाली गाड़ी में बैठ गये।
थोड़ी देर बाद टिकिटचेकर उनके डिब्बे में आया। टिकिट माँगा। एक मित्रने निकालकर दे दिया। टिकिटचेकरने कहा कि आपके पास जबलपुर का टिकिट है; परन्तु यह गाड़ी तो वम्बई जायगी। उतर कर दूसरी गाड़ी में बैठ जाइये। फिर दूसरे, तीसरे और अन्त में चौथे मित्र का टिकिट देखा । सब को यही शुभ सलाह दी कि आप यहाँ से उतर कर जबलपूर जाने वाली दूसरी गाड़ी के डिब्बे में बैठ जाइये; अन्यथा आप अपने गन्तव्य पर नहीं पहुँच सकेंगे।
चौथे मित्रने कहा : "जनाब! हम सही गाड़ी के सही डिब्बे में बैठे हैं। आप ही स्वयं गलत डिब्बे में आ गये हैं। यह प्रजातन्त्र प्रणाली का युग है। इस में बहुमत की बात मानी जाती है। हम चारों की समझ में यही गाड़ी जबलपुर जाने वाली है तो यह जबलपुर ही जायगी। बम्बई कैसे चली जायगी? हम चार हैं; आप अकेले हैं। बहुमत हमारा है; इसलिए हमारी बात सही है और आपकी गलत । गलत जगह आकर आप हमें क्यों परेशान कर रहे हैं ?" ।
टिकिटचेकर व्हाइट ड्रेस पहिनता है। हम जैसे साधु भी व्हाइट वस्त्र पहिनते हैं। टिकिटचेकर के समान हम भी आपको सलाह देते हैं कि आप संसार की ओर जाने वाली परिग्रह की गाड़ी में बैठ गये हैं; जब कि आपको मोक्ष की
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