________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(२) वान् के सान्निध्य में रहकर भी कोई लाभ नहीं उठा सकता। कहा भी है :
गुणिनि गुणज्ञो रमते,
नागुण शीलस्य गुणिनि परितोषः । अलिरेति वनात्कमलम्,
न दर्दुरस्तनिवासोऽपि ।। [ गुणों को जानने वाला ही गुणी को देखकर प्रसन्न होता है। निर्गुण (गुणहीन) को गुणी से सन्तोष नहीं होता। भौंरा जंगल से कमल तक आता है; परन्तु मेढक कमल के समीप रहकर भी कमल की सुगन्ध से आकर्षित नहीं होता! ] जिनमें गुणों का निवास होता है, उन्हीं का “गौरव" सुरक्षित रहता है-उन्हीं में "चतुराई" होती है। गुणी जन सदा दूसरों की ही 'चिन्ता" करते हैं, अपनी नहीं। उनमें 'दया" होती है; इसीलिए उनकी "भावना" में "मानवता" भरी रहती है। यही मानवता उनमें "मित्रता" की पात्रता पैदा करती है।
दुनिया में अधिक से अधिक मित्र पाने के लिए मित्रता की पात्रता एक अनिवार्य शर्त है ! जैसा कि एक शायर का कथन है :
दोस्त इस दुनिया में सच्चा उसको होता है नसीब । यानी जिसमें दोस्त बनने को लियाकत खुद भी हो॥
मित्रता को मन में अंकुरित करने के लिए जिन चौदह गुणों की आवश्यकता है, उन पर एक-एक प्रवचन में विस्तृत विचार-विमर्श करने के बाद अन्त में (पन्द्रहवें प्रवचन में) मित्रता का विवेचन किया गया है। मैत्रीमार्ग में चलने के लिए ये पन्द्रह कदम हैं-ऐसा माना जा सकता है।
For Private And Personal Use Only