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५. उद्यम
प्रयत्न, पुरुषार्थ, परिश्रम आदिसे उसी का बोध होता है, जिसे उद्यम कहते हैं । जिसे भाग्य कहते हैं, वह भी प्रयत्न का ही फल है :
यत्न करो भरपूर तुम भाग्य मिलेगा पाप । भाग्य यत्न से ही वना यत्न भाग्य का बाप ॥
-सत्येश्वर गीता विद्या भी अपने आप किसीको प्राप्त नहीं होती उसके लिए अभ्यास करना पड़ता है । कहा है :
विद्या धन उद्यम बिना कहौ जू पावै कौन ? बिना डुलाये ना मिले ज्यों पंखा की पौन ॥
पंखे की हवा भी तभी प्राप्त होती है, जब उसे हिलाया जाय अर्थात् उद्यम किया जाय । ज़मीन में जल है; परन्तु कुआ खोदे बिना वह प्राप्त नहीं हो सकता । किसीको प्यास लगी हो । वह कुए के पास पहुँच जाय । कुए में भरपूर जल भी हो; परन्तु प्यास मिटाने के लिए जरूरी होगा कि
ए में रस्सीके सहारे बाल्टी डाल कर जल खींचा जाय और लोटेमें भरकर उसे पिया जाय ।
"दैव दैव आलसी पुकारा ॥" भाग्य के भरोसे रहनेवाले आलसी होते हैं । न देवमिति संचिन्त्य त्यजेदुद्योगमात्मनः ।
अनुद्यमेन कस्तैलम् तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ॥ [भाग्य के भरोसे रहकर कभी अपना उद्योग नहीं छोड़ना चाहिये । बिना उद्यमके तिलोंसे तेल कौन प्राप्त कर सकता है ?]
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