________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
२४३
है - दूसरों से आत्मीयता - दूसरों को अपने समान समझना और उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न देना, धोखा न देना, यथाशक्ति सहायता करना ।
---
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
निज दुःख गिरिसम रज करो जाना ।
मित्र दुःख रज मेरु समाना ॥
-तुलसीदास
अपना दुःख पहाड़ के समान भी हो तो उसे धूलि कण के समान समझना और मित्र के रजकण के समान साधारण दुःख को भी मेरु पर्वत के समान मानना मित्र का ही कार्य मित्रता है ।
कराविव शरीरस्य नेत्रयोरिव पक्ष्मणी । प्रविचार्य प्रियं कुर्यात् तन्मित्रं मित्रमुच्यते ॥
[ हाथ शरीर का और पल के आँखोंका भला जिस प्रकार बिना सोचे करती हैं, उसी प्रकार जो बिना सोचे प्रिय ( हितकर ) कार्य करता है, वह मित्र ही वास्तव में 'मित्र' कहा जा सकता है]
अवास्तविक मित्र को हम कुमित्र कहेंगे, जिनकी संख्या अधिक पाई जाती है । सुमित्र तो भला करने वाली कड़वी बात भी निस्संकोच कह देगा, क्योंकि वह सदा मित्र की भलाई का विचार ही प्रमुखरूपसे किया करता है :
मिसरी घोले झूठ की ऐसे मित्र हजार । जहर पिलावे साँचका वे विरला संसार ॥ संस्कृत के एक श्लोक में भी ऐसी ही बात कही गई है: श्रप्रियाण्यपि पथ्यानि ये वदन्ति नृणामिह । त एव सुहृदः प्रोक्ताः अन्ये स्युर्नामधारकाः ॥
[ मनुष्यों को अप्रिय ( कटु) पथ्य ( हितकर ) वचन भी जो कहते हैं, वे ही ( वास्तविक ) मित्र कहे गये हैं । शेष सब केवल नामधारक है (नाम मात्र के मित्र हैं ) ]
For Private And Personal Use Only