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देवताने मुझसे चाँवल माँगे । मैंने बड़ी मुश्किल से दो दाने निकाल कर उसे दिये। फिर नींद खल गई तो देखा कि मेरे हाथ में वे ही दो चाँवल के दाने थे, जो मैंने दिये थे। दोनों दाने सोने के थे ! मैं सोचने लगा कि यदि सारे दाने दान कर देता तो कितना अच्छा होता ?"
जो दान आप करते हैं, वह कई गुना होकर परलोक में मिलता है; परन्तु परलोक में कई गुना मिले-इस आशा से नहीं, केवल परोपकार की भावना से ही हमें दान करना चाहिये। दान से इस लोक में जो कीर्ति प्राप्त होती है, उसका भी कोई कम महत्त्व नहीं है।
यह सुना जाता है कि महारथी कर्ण को जन्मसे ही अभेद्य कवच और कुण्डल प्राप्त हुए थे। कर्ण के पिता सूर्य माने जाते हैं और अर्जुन के पिता इन्द्र । अपराजेय महारथी कर्ण को तभी पराजित किया जा सकता था, जब उसके शरीर से कवच-कुण्डल उतरवा लिये जाते !
कर्ण दानवीर के रूप में प्रसिद्धि पा चुका था। किसी याचक को वह कभी निराश नहीं करता था। उसके इस सद्गुण का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए करने का निर्णय इन्द्रने किया । वह कवच-कुण्डल माँग कर ले लेना चाहता था।
सूर्य को इन्द्र की यह बात मालूम हो गई। उसने कर्ण को सावधान कर दिया : "बेटे ! यदि कोई तुमसे कवचकुण्डल दान में मांगने आये तो दे मत देना।''
कर्णने उत्तर में कहा : "पिताजी ! मैं आपकी समस्त आज्ञाओं को शिरोधार्य करने के लिए तैयार हूँ; किन्तु . अपने दान-धर्म से विमुख नहीं हो सकता; क्योंकि दानधर्म ही परिग्रह के पाप का एकमात्र इलाज है।"
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