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१५२ लिए सन्धि करके बोलना तब शुद्ध होता, जब कहा जाता "दध्यानय ।"
__ केशव की पत्नी इस बात से खिन्न हो गई। उसने सोचा कि मेरे पतिदेव की हँसी मेरी हँसी है। मुझे किसी भी तरह से अपने पतिदेव के गौरव की रक्षा करनी चाहिये ।
वह बोली : "आप व्यर्थ हँस रहे हैं। मेरे पतिने कहा है-दधि मानय [दधि मा + आनय] अर्थात् दही मत लाओ। छाछ लाओ-ऐसा उसका आशय था। क्या अशुद्धि है भला इस में ?''
यह कह कर उसने केशव की थाली में छाछ परोस दी। सब चकित हो गये। अपनी प्रतिभा के बल पर केशव की पत्नी ने सबको मूर्ख साबित करके अपने पति के गौरव की रक्षा की।
केशव मन-ही-मन लज्जित हुमा । दूसरे दिन गुरुजी के आश्रम में जा कर उसने मन लगाकर विद्या का अध्ययन किया और एक अच्छे कवि के रूप में ख्याति प्राप्त की।
एक इत्र का व्यापारी था। अनेक प्रकार के इत्र लेकर महाराणा से मिलने पाया। उदयपुर के राजमहल में पहुँच कर उसने सब इत्रों के नमूने बताये, परन्तु भाव अधिक लगने से एक भी इत्र महाराणा ने नहीं खरीदा।
वह उदास होकर दिल्ली जा रहा था कि सामने से शिकार खेल कर अनोखा कुवर आ रहे थे।
इत्र विक्रेता से बातचीत करके तत्काल उन्होंने सारा इत्र खरीद कर उसके सामने ही अपने घोड़े के शरीर से चुपड़ दिया। इत्र विक्रेता चला गया।
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