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५२ में प्रज्ञानान्धकार व्याप्त है । उसी अन्धकार के कारण हमें हृदय के भीतर छिपा ईश्वर भी नहीं दिखाई देता ।
एक बार ईश्वरने देवों से कहा कि मुझे विश्राम करना है-किसी एकान्त स्थल में ले चलो, जहाँ कोई मुझ से कुछ माँगे नहीं। यहाँ तक कि कोई मुझे वहाँ खोज भी न सके ।
देवोंने कहा कि हम आपको चन्द्रलोक में ले चलते हैं । ईश्वरने कहा : "अभी अभी २१ जुलाई १९६६ को नील ए० आर्मस्ट्राँग, एड्विन ई० आलड्रिन और माइकेल कोलिन्स ये तीनों चन्द्रयात्रा में सफल होकर लौटे हैं। अब तो मनुष्य वहाँ आता जाता ही रहेगा; इसलिए और कोई दूसरा स्थान बताओ।"
देवों ने सुझाया कि हम आपको पाताल में ले चलते हैं । ईश्वर ने कहा : “वहाँ भी ड्रिलिंग करके आदमी आ जायगा ।"
देव : "तो फिर एवरेस्ट पर ?'
ईश्वर : "अरे ! वहाँ तो शेरप्पा तेनजिग पहले ही अपना झंडा गाड़ आये हैं।" तब नारदजी बोले : “क्या आप मानव के अन्तस्तल में रहना पसन्द करेंगे ?''
ईश्वर : हाँ, यह जगह अच्छी है, बिल्कुल सुरक्षित है। मैं आजसे उसी स्थान पर चला जाता हूँ।''
कहते हैं, ईश्वर तभी से मनुष्य के हृदय में निवास कर रहा है और मनुष्य उसे बाहर ही खोजता रहता है । मिलेगा कैसे ? विशुद्ध आत्मा ही वह ईश्वर है, जो हृदय में रहता है। उसका आनन्द जिसे एक बार भी अनुभव में आ जाता है, वह कभी इधर-उधर नहीं भटकता ।
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