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है, इसलिए दान के काम नहीं आ पाता । वह धन का संग्रह करता-करता मर जाता हैं, किन्तु नहीं जानता कि उसका उपभोग कौन करेगा?
दो कंजस आपस में बड़े मित्र थे । एक दिन की बात है । उनमें से एक बीमार पड़ा । दूसरा उसका हाल-चाल जानने और सान्त्वना देने के लिए उसके घर गया । बीमारी गहरी थी । केवल औषध का सेवन करने से पूरे लाभ की संभावना न थी। मित्रने सुझाया कि कुछ दान-पुण्य भी करना चाहिये :
मूजी से कंजूस यूँ कहे शान्ति झट होय ।
दान करो निज हाथ से जो इच्छा हो, सोय ॥
इस पर मुजीने कहा : "मित्र ! यह बात तो मुझे पहले से ही मालूम है । मैं वह दान कर चूका हूँ, जिसके लिए आप मुझे प्रेरित कर रहे हैं।"
मित्रने पूछा : "क्या आप अपने दान का विवरण बतायेंगे ?'' मूजी : "अवश्य । सुनिये :
दो दाना तो दालका सवा टका-भर चन । एक टीपर्यो तेल को तीन गांगड़ी लण ॥ इतो दान निज हाथसे तुरत फुरत कर दीन । कि नही ने पूछयो नहीं, नरभव लाहो लोन ॥
ऐसे अद्भुत दानियोंको कुछ देने में ही कष्ट होता हो तो भी कोई बात नहीं; परन्तु ये तो दूसरों को देते हुए देखकर भी बड़े दुखी हो जाते हैं । एक उदाहरण से मैं अपनी बात स्पष्ट करना चाहूँगा ।
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