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पड़े। मित्रों की सहायता से कुटुम्बियोंने चाहा कि उनका इलाज़ कराया जाय।
बीमारी भयंकर थी। सेठजी ने पूछा : “इस बीमारी के इलाज में कुल कितना खर्च होने की संभावना है ?"
___ एक मित्र बोला : "चार-पाँच हजार रुपये तो लग ही जायँगे।"
सेठजी : “और अन्त्येष्टि में क्या खर्च आयगा ?" मित्र : "चार-पाँच सौ रुपये ।"
सेठजी : "तो फिर इलाज की ज़रूरत नहीं। मुझे इस बीमारी से मरने ही दीजिये । सस्ते में काम निपट जायगा।"
कंजूसी का कष्ट गरीबी के कष्ट से भी बढ़ कर होता है-यह बताते हुए किसी कवि ने कहा है :
न शान्तान्तस्तृष्णा धनलवणवारिव्यति करैः श्रतच्छायः कार्याश्चरविरसरूक्षाशनतया । अनिद्रा मन्दाग्निर्न पसलिलचौरानलभयात्
कदर्याणां कष्टं स्फुटमधनकष्टादपि परम् ॥ [धन रूपी खारे पानी से मनकी तृष्णा (प्यास) शान्त नहीं हई । लम्बे समय तक रसहीन रूखा भोजन करने से शरीर की शोभा नष्ट हो गई। राजा, जल, चोर और प्राग के डर से अनिद्रा और मन्दाग्नि का रोग लग गया। स्पष्ट ही निर्धनों की अपेक्षा कृपणों को कष्ट अधिक होता है]
पहले धन जमीन में गाड़ने वाले कंजूस तो बड़े बुद्धिमान होते थे, क्योंकि वर्षीदाम के समय उनका धन तीर्थंकर के द्वारा निर्धनों में वित्तरित हो जाता था। इससे पुण्य उन्हें भी मिल जाता था, परन्तु आजकाल तो बैंक में रखा जाता
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