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पेट के लिए भी मनुष्य गौरव को नष्ट करता है । एक कवि ने लिखा है :
इयमुदरदरीदुरन्तपूरा
यदि न भवेवभिमानभङ्गभूमिः क्षणमपि न सहे. भवाहशानाम् कुटिलकटाक्षनिरीक्षणं नृपाणाम् ॥
--- भतृहरिः [अत्यन्त कठिनाई से भरी जाने वाली तथा अभिमान (गौरव) को नष्ट करने वाली यह पेट रूपी गुफा अगर न होती तो में माप जैसे राजाओं के कुटिल कटाक्ष के अवलोकन को क्षणमात्र भी नहीं सहता]
हिन्दी के कवि रहीम ने भी पेट की इस विचित्रता का अनुभव किया था। यह भूखा हो तो गौरव नष्ट करता ही है, परन्तु भरा हो तो भी दृष्टि बिगाड़ देता है। जिसका पेट भरा हो, वह समझता है कि सबका पेट भरा है। इस प्रकार भूखों के प्रति सहानुभूति, दया और सहायता के भाव को उत्पन्न नहीं होने देता। यह देखकर पेटसे उन्होंने कहा कि तू पीठ क्यों नही हो गया ? उनके शब्द यह हैं :
रहिमन भाखत पेट सों क्यों न भयो तू पीठ ? भूखे मान डिगा वही भरे बिगारत दीठ ! गौरव को बचाने में वही सफल होता है, जो स्वार्थी न हो।
ईसाइयों के धर्मगुरु पोप दस-दस पौंड दान में लेकर सबको स्वर्ग का पासपोर्ट दे रहे थे।
एक चालाक आदमी भी वहाँ पहुँचा । उसने दस पौंड देकर अपने लिए एक पासपोर्ट ले लिया।
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