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कभी सुख है कभी दुःख है, इसीका नाम दुनिया है ।" दुनिया में सुख और दुःख का चक्र बराबर चलता ही रहता है :
कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा । नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण ॥
[ किसके प्रात्यन्तिक सुख या केवल दुःख प्राप्त होता है ? चक्र के आरों की तरह दशाएँ ऊपर-नीचे होती रहती हैं ] जीव अपने सुख-दु:ख का जिम्मेदार स्वयं ही है, कोई दूसरा नहीं :
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा
अहं करोमीति वथाभिमानः स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः ॥
अध्यात्मरामायणम्
[ सुख और दुःख कोई किसीका नहीं देता । दूसरा कोई मुझे सुख या दुख देता है - ऐसा समझना गलत है । "मैं करता हूँ" ऐसा झूठा घमण्ड नहीं करना चाहिये; क्योंकि संसार अपनेअपने कर्मसूत्रों में गुथा हुआ है अर्थात् अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही संसारी जीव सुख या दुःख का अनुभव करते हैं; इसलिए अपने सुख-दुःख के लिए वे स्वयं ही जिम्मेदार हैं ] हमारे सुख-दुःख में दूसरे केवल निमित्त बन जाते हैं । जैसा कि शास्त्रकार कहते हैं :
सव्व पुव्वकयाणं कम्माणं पावए फलविवागे । प्रवराहेसु गुणस्य निमित्तमितं परो होइ ॥
[ सब जीव पूर्वकृत कर्मों का फल प्राप्त करते हैं । अपराध ( दु:ख ) और गुण (सुख) में दूसरा तो निमित्तमात्र होता है ।
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