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उत्तराध्ययन सूत्र में भी लिखा है : "अप्पा कत्ता विकत्ताय दुहाण य सुहाण य ॥" [प्रात्मा ही सुख-हुःख का कर्ता और भोक्ता है]
अच्छे कार्यों द्वारा हम अपने लिए सुख का और बुरे कार्यों द्वारा दुःख का निर्माण करते हैं । फिर अपने निर्मित सुख-दु:ख का हम स्वयं ही भोग भी करते हैं। निर्माण और भोग में अन्तर है। सुतार फर्नीचर का निर्माण करता है, कारीगर भवन का; परन्तु फर्नीचर से युक्त भवन का भोग या उपयोग कोई धनाढय सेठ करता है। इस प्रकार वस्तुओं के कर्ता और भोक्ता अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु कर्मों का कर्ता और भोक्ता एक ही होते है । सूत्रकृतांगसूत्र में लिखा है : जं जारिसं पुवमकासि कम्म
तमेव प्रागच्छति सम्पराये ॥ . [पहले जो जैसा कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है]
पानी में डाला गया लकड़ी का टुकड़ा तैरता है; परन्तु यदि गीली मिट्टी उसं पर लगा दी जाय, फिर कपड़ा लपेटा जाय और फिर उस पर दूसरी बार गीली मिट्टी की परत चढाई जाय-इस प्रकार यदि आठ बार उस पर गीली मिट्टी की परतें चढ़ा दी जायँ तो वह पानी में डूब जायगा।
यही बात आत्मा के लिए है। वह भी पूर्वजन्म में निर्मित पाठ कर्मों के आवरणों से लिप्त होने से संसारसागर मे डूबी हुई है।
जन्म लेने के बाद ये लिपटे हुए कर्म क्रमश : उदित होहो कर शुभाशुभ फल (सुख-दु:ख) देते रहते हैं :
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