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ये दोनों तो गृहस्थ थे - श्रावक थे; परन्तु श्रीकालिकाचार्य कौन थे ? वे साधारण मुनि नहौं; किन्तु ज्ञान-दर्शनचरित्र से सम्पन्न अट्ठारह हजार शीलाङ्ग रूपी रथ पर आरूढ एक जैन आचार्य थे।
उनकी एक साध्वी शिष्या थी - सरस्वती। उसके सौन्दर्य पर मुग्ध हो कर उसका शील-भंग करने का प्रयास करने वाले घमण्डी कामुक राजा गर्द मिल्ल को सबक सिखाने के लिए उन्होंने तलवार हाथ में लेकर उस पर आक्रमण किया था ! तलवार उठाने से पहले कुछ समयके लिए उन्होंने वेश का त्याग कर दिया था ।
राजा गर्द मिल्ल ने पराजित हो कर क्षमायाचना पूर्वक यह प्रतिज्ञा कर ली कि भविष्य में वह न किसी जैन साध्वी को छेड़ेगा और न छेड़ने ही देगा। इस प्रकार अपने आक्रमण का लक्ष्य पूरा हो जाने पर कालिकाचार्य ने फिर से मुनिवेश धारण कर लिया और जो कुछ विराधना हुई थी, उसके लिए नियमानुसार प्रायश्चित ले लिया ।
उन्होंने सिद्ध कर दिया कि दुष्ट को दण्डित करने के लिए शस्त्र धारण करना अहिंसा के प्रतिकूल नहीं है ।
क्षमा वीरस्य भूषणम् ।। [क्षमा वीरों का भूषण है कायरों का नहीं]
अहिंसा को कायरता मानने वालोंने ही - “मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी !" जैसी कहावतें प्रचलित कर दी हैं, जो सर्वथा अनुचित हैं - निरर्थक हैं ।
अहिंसाके लिए वीरता और वीरता के लिए सुशीलता अनिवार्य है ।
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