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नहीं जानता । हमारा आयुष्य भी प्रतिपल इसी प्रकार बिना रुके व्यतीत होता जा रहा है ।
जीवन मृत्युपर प्रतिष्ठित है। संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं मिल सकता जहाँ किसी जीव की मृत्यु नहीं हुई हो - जहाँ कोई जलाया अथवा दफनाया न गया हो ।
जब तक हम नश्वर शरीर में प्राण हैं, तभी तक इसका सम्मान होता है । प्राणों के अलग होते ही इस शरीर का सौन्दर्य समाप्त हो जाता है । लोग इसे बस्ती से बाहर ले जाकर जला देते हैं या गाड़ देते हैं । आपके प्रिय कुटुम्बी ही सबसे पहले आपके शरीर में आग लगाते हैं । यह सब हम स्वयं अपनी आँखों से अड़ोस - पड़ौस में देखते रहते हैं; फिर भी आश्चर्य है कि हम सावधान नहीं होते ।
जीवन एक संग्राम है । इसमें सावधान रहने वाले ही विजेता बनते हैं । जिन्होंने जीवनभर दूसरों को धोखा दिया हो - सताया हो - लँटा हो- पीटा हो- जान से मारा हो, वे ही मृत्यु से डरते हैं । इससे विपरीत जिनका जीवन परोपकार में बीता हो- दूसरों की सेवा-सहायता में लगा रहा हो, वे मृत्युका शान्ति से वरण करते हैं - स्वागत करते हैं; ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार अभी - अभी ( १५ नवम्बर १९९२ को ) सन्त विनोबा भावे ने किया है। उन्होंने जैन साधुओं के समान संथारा ले लिया था, सो सात दिन में सिद्ध हो गया !
आपने घड़ी की आवाज तो सुनी ही होगी। वह "कट - कट" करती हुई यह सन्देश निरन्तर दे रही है कि जीवन की घड़ी कट रही है, जागते रहो ।
टूटा पुल और फूटा बर्त्तन जुड़ सकता है; परन्तु टूटा
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