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आयुष्य कभी नहीं जुड़ सकता। मृत्यु की एक मर्यादा है - सीमा है। वह हमें धोखा नहीं देती।
कौन कहता है कि मौत कहकर नहीं आती? वह तो पूर्वसूचना देकर ही आती है। सब से पहले वह बाल सफेद कर देती है। यह उसका पहला नोटिस होता है; परन्तु हम उस पर खिजाब लगा लेते हैं, जिससे कहीं वह नोटिस पढने में न आ जाय। फिर दाँत तोड़ देती है; परन्तु नकली बत्तीसी लगवाकर हम उसके इस दूसरे नोटिस की भी उपेक्षा कर जाते हैं। जब दृष्टि क्षीण हो जाती है तो हम लैंस लगवा लेते हैं और सुनने की शक्ति क्षीण होने पर हम श्रवणयन्त्र लगा लेते हैं। शरीर पर झुरियाँ पड़ने पर प्लास्टिक सर्जरी का सहारा लेते हैं। इस प्रकार उसके हर एक नोटिस को हम बिना पढ़े ही निष्प्रभ करके अपने को सुरक्षित मान लेते हैं; परन्तु हमारी इन बालचेष्टाओं पर मौत ठहाका मारकर हंसती रहती है और ज्यों ही हमने अन्तिम सांस ली कि वह हमें धर दबोचती है। ____ करोड़ों स्वर्णमुद्राएँ आप देने को तैयार हो जायँ तो भी कोई हमारी आयुष्य में एक क्षण की वृद्धि नहीं कर सकता। शंकराचार्य कहते है :आयुः क्षणलवमात्रम्
न लभ्यते हेमकोटिभिः क्वापि । तच्चेद् गच्छति सर्वम्
मृषा ततः काधिका हानिः? [करोड़ों स्वर्णमुद्राओं के बदले भी कहीं से जो आयु क्षणभर भी प्राप्त नहीं होती, वह यदि सारी व्यर्थ चली जाय तो उससे बढ़कर अधिक हानि भला क्या होगी? ]
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