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__ परमात्मा नित्य हैं और आपके शूज अनित्य हैं; फिर भी यदि आप बाटा के एम्बेसेडर शूज, जो आजकल पौने दो सौ रु. में मिलते हैं, पहिन कर मन्दिर मे दर्शनार्थ चले जायं तो क्या होगा? शरीर आपका मूत्ति के निकट रहेगा; किन्तु नेत्र और मन तो मन्दिर के बाहर रखे शज में ही अटके रहेंगे, उस अवस्था में यदि आप मुंह से कहें :त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव ! [हे देवाधिदेव ! तुम ही मेरे माता-पिता, बन्धु, मित्र, विद्या धन और सब कुछ हो।]
तो इसका क्या अर्थ होगा? आप स्वयं समझ लेंगे कि यह स्तुति वास्तव में परमात्मा को हुई या जूतों की?
जूतों का तो केवल उदाहरण के लिए उल्लेख किया गया है; अन्यथा दुनिया की समस्त अनित्य वस्तुएँ हमें नित्य परमात्मा की अपेक्षा अधिक आकर्षित करती हैं; जब कि मृत्यु के समय ये सब यहीं छूट जानेवाली हैं :जब तेरी डोली निकाली जायगी।
बिन मुहरत के उठा ली जायगी। उन हकीमों से यूं कह दो बोलकर
करते थे दावा किताबें खोलकर "यह दवा हगिज न खाली जायगी!"
जब तेरी डोली निकाल जायगी।। जर सिकन्दर का यहीं पर रह गया
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