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उन्होंने मोटेराम से पूछा : “मित्र ! वह भालू उस समय तुम्हारे कान में क्या कह रहा था ?
इस प्रश्न के उत्तर में मोटेरामने कहा : "भाल कह रहा था कि संकट में सहायता का झठा संकल्प करने वाले मित्र के साथ नहीं रहना चाहिये।"
वरं न मित्रम्, न कुमित्रमित्रम् ॥ [कुमित्र को मित्र बनाने की अपेक्षा मित्र न होना (मित्रहीन रहना) अच्छा है]
महात्मा गाँधी के आध्यात्मिक गुरु श्रीमद् रायचंद जौहरी ने अपने एक व्यापारी मित्रके सामने उसके साथ हुए सौदेका दस्तावेज फाड़ कर उसकी समस्त चिन्ताओं को चकनाचर करते हुए कहा- "इसी दस्तावेज के कारण प्राप के हाथ-पाँव बँधे हुए थे । बाजार में इस समय जो भाव है, वह अपेक्षित भाव से इतना ऊँचा है कि आपको साठ हजार रुपयोंका घाटा हो जायगा, जिसकी पूत्ति करना आपकी आर्थिक स्थिति को देखते हुए सर्वथा असम्भव है। मैं केवल दूध पी सकता हूँ, खून नहीं ।"
दूसरों की प्रतिकूल परिस्थितिसे अनुचित लाभ उठाने वाले व्यापारी इस घटना से बहुत कुछ सोख सकते हैं। उन्हें अन्य व्यापारियों के साथ सदा मित्रतापूर्ण व्यवहार ही रखना चाहिये, शत्रुतापूर्ण नहीं ।
रघुनाथ पण्डित की निमाई पण्डित से घनिष्ट मित्रता थी। दोनों मित्र एक दिन नौकाविहार कर रहे थे। दोनों बड़े भारी दार्शनिक थे । रघुनाथ पण्डितने कहा कि मैंने 'न्याय शास्त्र' पर दीधिति नामक एक टीका लिखी है । निमाई ने कहा : टीका तो मैंने भी लिखी है; परन्तु कुछ अघूरी है । मैं उसे अपने साथ ही सदा रखता हूँ, जिससे विचार सूझते ही उन्हें तुरन्त पन्नों पर लिखा जा सके ।
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