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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरिष्यमाणो बहुधा परस्वम् करिष्यमाणः सुतसम्पदादि । धरिष्यमाणोऽरिशिरस्सु पावम् न स्वं मरिष्यन्तमवैति कोऽपि । [नाना प्रकार से पराये धन का अपहरण करता हुआ, पुत्र, सम्पत्ति आदि की वृद्धि करता हुआ और शत्रुओं के मस्तक पर पाँव रखता हुआ कोई भी व्यक्ति यह नहीं जानता कि में स्वयं ही एक दिन मर जाऊंगा] एक राजा था। उसने लाखों रुपये की लागत से एक सुन्दर महल का निर्माण कराया। उसने महल का उद्घाटन किसी ज्ञानी पुरुषसे कराने का निश्चय किया। उद्घाटनसमारोह की जोरदार तैयारियाँ की गई। जो भी उस भव्य महल को देखता, वह उसकी विशालता और मनोहरता पर मुग्ध हो जाता था। राजा को अपने इस नये महल पर गर्व और हर्ष का अनुभव हो- यह स्वाभाविक था। शहर के गण्यमान्य सुप्रतिष्ठित लोगों को आमन्त्रित किया गया था। एक ज्ञानी पुरुष के कर-कमलों से उदघाटनविधि सम्पन्न होने के बाद क्रमश: सभी आमन्त्रित सज्जनों ने महल को भीतर बाहर से भलीभाँति देखा । सबने मन-ही-मन उसकी हार्दिक प्रशंसा की। फिर स्वल्पाहार का कार्यक्रम था। जब राजा साहब द्वारा आयोजित सुमधुर स्वादिष्ट स्वल्पाहार ग्रहण किया जा रहा था, उसी समय ज्ञानी पुरुष से उन्होंने पूछा :- "आपको इस महल में कोई त्रुटि दिखाई दी हो तो कृपया निस्संकोच बता दीजियेगा।" For Private And Personal Use Only
SR No.008725
Book TitleMitti Me Savva bhue su
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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