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"मैं पृथ्वीभर की उन सोने की खानों की तरह का-जिनमें कभी कोई फूल नहीं उगता, ऐसा धनवान होना पसन्द नहीं करूंगा-जिसके हृदय में सहानुभूति न हो ! मेरी समझ में नहीं आता कि आदमी लखपति-करोड़पति होते हुए भी किस प्रकार प्रतिदिन ऐसे लोगों के पास से गुजर सकता है, जिनके पास खाने तक को पर्याप्त नहीं है !" -कर्नल इंगरसोल
हज़रत अय्यूब एक बार बीमार पड़े। बीमारीने इतना भयंकर रूप ले लिया कि उनके शरीर में घाव हो गये और उनमें कीड़े बिलबिलाने लगे। कीड़े इतने अधिक हो गये कि वे घावों में से निकल-निकलकर ज़मीन पर गिरने लगे।
दयालु अय्यूब अपनी वेदना शान्ति से सहते रहे, परन्तु उन कीड़ों की वेदना भी उनसे देखी न गई। उन्हें उठा-उठा कर वे फिरसे अपने शरीर के घावों में डालने लगे।
पूछने पर अपने शिष्यों से उन्होंने कहा : “इन कीड़ों की खुराक मेरे शरीर में ही है, जहाँ ये पैदा हुए हैं। घावसे निकल जाने पर खुराक न मिलने के कारण भूख के मारे तड़प-तड़प कर ये बेचारे मर जायँगे। मेरा शरीर तो नश्वर है आज है, कल नहीं रहेगा। इस नश्वर शरीर से जितना भी दूसरों का उपकार किया जा सके, उतना ही अच्छा । मरने के बाद तो यह शरीर किसी काम का नहीं रह जाता। यह कौन नहीं जानता ? परोपकार ही सार है-धर्म का, तब परोपकार के इस हाथ आये अवसर को व्यर्थ क्यों जाने दूं?"
धन्य है ऐसे दयालु विदेशी सन्त को।।
श्री हेमचन्द्राचार्य ने महाराज कुमारपाल को दयाधर्म का महत्त्व समझा दिया था। उनके राज्य में जो पशुबलि
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