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६. कर्मफल
जिस प्रकार करोड़पति सेठ धनके बल पर नर्तकी को नचाते हैं, उसी प्रकार संसारी जीवोंको पुण्यपाप के बल पर कर्म नचाता रहता है । नर्तकी को उलटने पर "कीर्तन" शब्द बनता है. यदि जीवों के जीवन में कीर्तन अर्थात भगवान् की भक्ति या स्तुति आ जाय तो फिर वे ही कर्म को नचाने लगते हैं ।
हम सब संसारी जीव कर्मराजा के कैदी हैं। असंसारी सिद्ध देव ही उसके बन्धन से मुक्त हैं।
कर्म आत्माका सबसे बड़ा शत्रु है । शरीर आत्मा का कारावास है । हम अनशन (उपवास) करते हैं तो दूसरे दिन कान पकड़कर कर्म पारणे में सब वसूल कर लेता है। शरीर आत्माका सारा पुण्य लूट लेता है ।
शुभाशुभ कर्म ही परलोक में जीव के साथ जाते हैं, शेष सारी सम्पत्ति, समस्त रिश्तेदार कौर मित्र यहीं छट जाते हैं :
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे
___भार्या गृहद्वारि जनःश्मशाने । देहश्चितायां परलोकमागे ।
कर्मानुगो गच्छति जीव एकः ।। [धन ज़मीनमें (पहले बैंकोंकी सुविधा नहीं थी, इसलिए लोग धनको ज़मीन में गाड़ कर रखते थे), पशु बाड़े में, पत्नी धरके दरवाजे में, लोग श्मशान में और शरीर चिता में (जल कर) छूट जाता है । परलोक के मार्ग में जीव
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