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२२ [एक ओर सारे धर्म रहें, एक ओर सार्मिक वात्सल्य ! (दोनों बराबर महत्त्व के हैं)।
"सार्मिक वात्सल्य" के बदले "स्वामि वत्सल" शब्द चल पड़ा है, जो गलत है। "साहम्मिय" का संस्कृत रूपान्तर "सार्धामक" है, जिसका अर्थ है-समान धर्म या एक धर्म के अनुयायी। उन्हें वात्सल्य (प्यार) से जो कुछ दिया जाता है-आर्थिक सहायता की जाती है, वह सब धर्म का एक अंग है।
आचार्य हेमचन्द्रसूरि के शरीर पर मोटा वस्त्र देखकर कुमारपाल भूपाल ने कहा : “आप मेरे गुरुदेव हैं; फिर भी अपने शरीर पर ऐसा मोटा वस्त्र धारण करते हैं तो लोग मुझे क्या कहेंगे? यह सोचकर मुझे लज्जा आती है। आप कृपया अच्छे महीन वस्त्र पहिने ।'
__ इस पर आचार्यजी ने कहा : “मैं मोटे वस्त्र पहिनता हूँ तो लज्जा मुझे आनी चाहिए, आपको नहीं। फिर लज्जा का सम्बन्ध वस्त्र से जोड़ना भी गलत है। लज्जा आनी चाहिए-पाप से; सो यदि मुझसे कोई पाप होगा तो लज्जा आयेगी। तीसरी बात यह है कि मैं आम आदमी के जीवनस्तर का प्रतिक हूँ। यदि समाज सम्पन्न होगा तो प्रत्येक सदस्य आपके समान बहुमूल्य महीन वस्त्र ही पहिनेगा। उस अवस्था में मुझे भी दान में भक्तों के द्वारा महीन वस्त्र ही मिलेंगे; इसलिये यदि आप मुझे महीन वस्त्र पहिने हुए देखना चाहते हैं तो आम आदमी का जीवनस्तर सुधारने का प्रयास करें।"
दान इस तरह होना चाहिये, जिससे लेने वाला न दीन हो और न आलसी तथा देने वाला भी अहंकार का शिकार न हो । सन्त तुलसीदास कहते हैं :
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