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अपने से बड़ा साबित किया है । यदि खुदा खुदको बड़ा साबित करना चाहते तो अपने नाम से ही मुर्देको खड़ा कर देते । पहले तो मैंने उन्हीं का नाम लिया था ।"
बादशाह ने इस चतुराई भरे जवाब से चौंक कर अपनी भूल कबूल की और कबीर को अत्यन्त सम्मानके साथ भारत भेजनेका प्रबन्ध कर दिया ।
इस कथामें मुर्दे को जिन्दा करने की बात आलंकारिक है । उसका तात्पर्य यही है कि मुर्दे के कारण जो शोक परिवार को हो रहा था, उसे मिटा दिया गया ।
यदि यह तात्पर्यार्थ न लेकर अभिधेय अर्थ लिया जायगा तो उस सूक्ति के उत्तरार्ध से अनर्थ हो जायगा । पूरी सूक्ति इस प्रकार है : “सच्चा साधु वह है जो मुर्दे को जिन्दा करे और जिन्दे को मुर्दा !"
उत्तरार्ध में जिन्दे को मुर्दा करने वाले को सन्त कहा गया है । उसके अनुसार तो बड़े-बड़े हत्यारे भी सन्त मान लिये जायँगे; परन्तु ऐसा नहीं है; क्यों कि इस उत्तरार्ध का भी आलंकारिक अर्थ होता है। वह यह कि सन्त जीवित आदमी को संयमी बनाता है-इन्द्रियों को वश में रखने की कला सिखाता है-विषयों को सामने देखकर भी वह मुर्दे की तरह कैसे उनके प्रति अनासक्त रहे-उपेक्षाभाव रखे ? ऐसा उसे प्रशिक्षण दिया जाता है ।
खैर, यह थोड़ी-सी प्रासंगिक चर्चा इसलिए कर दी कि ऐसी कथाएँ सुनकर लोग चमत्कार के चक्कर में न पड़ जायँ और अन्धविश्वासों के शिकार न बन जायें ।
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