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જૈન ગ્રંથમાળા EEासाहेन, लापनगर ફોન: ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨
300४८४
धर्म-शिक्षा.
कचो
न्यायविशारद-न्यायतीर्थ मनिश्री न्यायविजयजी.
भकाशक
लक्ष्मीपुत्र फूलचंदजी वेद.
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धर्म-शिक्षा.
लेखक,
5STORAKHASKHABAR
न्यायविशारद-न्यायतीर्थ मुनि
श्री न्यायविजयजी.
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वीर संवत् २४४१.
वि० सं० १९७१
भावनगर आनंद प्रेसमांशाह गुलाबचंद ललुभाइए छाप्यु.
कीमत रु १-७-०
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प्रकाशक, आगरा निवासी श्रेष्टिवर्य श्रीमान् लक्ष्मीचन्द्रजी वेद के ।
लघुकुमार श्रीयुत फूलचंदजी वेद.
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समर्पण
eGo श्रीमन्मान्यवर ज्येष्ठसहोदर भाईसाहब अमरचन्द्रजी ! तथा मोहनलालजी!
आप साहबों का उदारभाव धर्मानुराग गुरुभक्ति तथा भ्रातृवात्सल्य वगैरह अनेक अनुकरणीय गुणोंसे आकर्षित हुआ मैं आपश्री की सेवा में इस पुस्तकके समर्पनेकी रजा लेता .
आप का फूलचंद
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प्रकाशकमहाशयपरिचयः
"वेदो-पाधि फलोदिपत्तनभव श्रीलक्ष्मिचन्द्राभिध
ख्यातष्ठिवरस्य भान्ति विकसदूपाः कुमारास्त्रयः । तत्राऽऽद्योऽमरचन्ड उच्चचरितः प्रल्हादकश्चन्द्रवन्- .
मध्ये मोहनलाल उत्तममतिः सम्यग्गुणैर्मोहनः ॥
" सुवासनां पुष्पत इन्दुतः पुनः
शैत्यं गृहीत्वो-भयरूपतां गतः
एकस्वरूपं दक्तौ जयन्नम् श्री पुष्पचन्यो (फूलचन्त्रो) ऽर्थवदाऽऽव्हयोऽन्तिमः" ।
" एतेनैव कनीयसाऽपि वयसा द्राधीयसा प्रज्ञया ___ लब्ध्वा श्रेष्ठिनिदेशमग्रजयुगं संपृच्छय च स्वस्वतः । श्री सौराष्ट्रकराष्ट्र-भावनगरस्थाऽऽनन्दमुद्रालये
सम्मुद्राप्य महीतले प्रकटिता श्रीधर्मशिक्षे-यकम् "॥
“पण्डितब्रह्मविहारीशर्मा"
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प्रकाशकमहाशय का परिचय.
(संस्कृत श्लोकों का अनुवाद.) मारवाड फलोदी गाँव के (हालमें आगरे रहनेवाले) श्रीमान् श्रेष्टिवर्य लक्ष्मीचन्द्रजी वेद के चरणोपासक तीन पुत्र रत्न शोभते हैं। उनमें पहिला ज्येष्ठ श्रीमान् अमरचन्द्रजी, जो उत्तम चरित्र से विभूषित हैं, तथा सौम्यप्रकृति से चन्द्र की भांति आल्हाददायक हैं। दूसरा पुत्ररत्न श्रीयुत मोहनलालजी, जो कि बड़े अक्लमंद हैं तथा सदगुणों करके लोगों के हृदयका आकर्षण करनेवाले हैं ॥१॥
तीसरा पुत्ररत्न श्रीमान् फूलचंदजी, जिसने फूलमें से सुवासना* तथा चन्द्रमें से शीतलता गुण ले के उन दोनों असाधारण गुणोंद्वारा एक एक गुण को धारण किये हुए फूल तथा चन्द्र को जीता और अपना नाम बराबर सार्थक किया ॥२॥
उम्र से छोटे तथा बुद्धिसे बडे उसी (तीसरे कुमार) ने शेठजी का हुक्म ले के तथा अपने माननीय दोनों बड़े भाई साहबों की सम्मनि पा के अपनी हाथखची ही में से आनन्दप्रेस भावनगर काठियावाडमें इस (धर्मशिक्षा) पुस्तक को छपवाकर पबलीक में प्रकाशित किया ॥३॥
® कुमारके पक्षमें सुवासन। योनी अच्छी वासना-अच्छा संस्कार । फूलके पक्षमें मुडासना अर्थात् अच्छी खुशबू । शीतलता गुण तो दोनों पक्षमें समान ही है। इन द"नों गुण करके गुणात्मा बने हुए जिसने एक ही सुवासना गुण (शीतलता गुण नहीं होनेसे) वाले फूलको जीता । तथा एक ही शीतलता गुण (सुवासना गुण नहीं होनेसे ) वाले च. न्द्रको जीता। दोनों गुण व ले कुभारके आगे एक एक गुणवाले फूल तथा चन्द्रकी लघुता होना स्वाभाविक है ।
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शिक्षा-मुख.
संसारमें प्राणिओं को सुख देनेवाला एक धर्म है। अधर्मी आदमी का धर्म रहित जीवन किसी काम का नहीं । अधर्मी मनुष्य का मुदा जानवर तक को भी स्पृश्य नहीं होता, इसपर एक कविने कहा भी है" हस्तौ दानविवर्जितो श्रुतिपुटौ सारश्रुतेद्रोहिणी नेत्रे साधुविलोकनेन रहिते पादौ न तीर्थं गतौ । अन्यापार्जितवित्तपूर्णमुदरं गर्वेण तुझं शिरो रैरे जम्बुक! मुश्च मुश्च सहसा निन्द्यस्य नीचं वपुः ।।
भावार्थ यह है कि किसी अधर्मी मनुष्य की लोथ का भक्षण करनेको उद्यत हुए गीदड को एक कवि समझा रहा है कि ऐ गीदड ! इस निन्दनीय-पापात्मा मनुष्यके शरीर को छोड दे ! इस का एक भी अंग-एक भी अवयव भक्षण करनेके योग्य नहीं है। अव्वल तो इसके हाय दान रहित हैं । कान उत्तम शास्त्रके श्रवणसे दूर रहे हुए हैं । आँखें सन्त-महन्तोंके दर्शन नहीं पायी हुई हैं। पाँव कभी तीर्थ स्थानों में नहीं गये हैं। पेट कूटकपटसे पैदा किये पैसेसे भरा है । और मस्तक अभिमान करके ऊंचा ही रहा है-ऋषि-महर्षिको नमस्कार करने का लाभ नहीं उठा सका। बस ! इस लिये यह लोय भी तुझे अस्पृश्य है।
अनादिकाल से नदियों का पानी संग्रहता हुआ महासागर तृप्त न हुआ। अनादिकाल से महासमुद्र का पानी पीता हुआ घडवानल शान्त न हुआ। बेशुमार लकडिओं के ढेर को भक्षण करती हुई आग आजतक संतुष्ट न हुई । और प्रतिक्षण असंख्य
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पाणिओं को लुकमा बनाता हुआ काळ-पिशाच कुछ भी ढीला न पडा । उसी प्रकार इस जीव को-अनादि काल से विषयानन्द भोगते हुए भी सन्तोषवृत्ति न मिली, अहा मोह ! बलिहारी है वेरी।
मोहरूपी मदिरा के नशेमें बावले बने हुए अधी-अविवेकी मनुष्य का जीवन-छाया रहित वृक्ष की भांति है । पानी रहित तालाब की तरह है । गन्धहीन पुष्प के समान है। बगैर दांत के हाथी के सदृश है । बिना लावण्य के रूप जैसा है। मन्त्री रहित राज्य सा है । देवतारहित देवालय के तुल्य है । चारित्रभ्रष्ट साधु के सहश है। चन्द्र शून्य रात्रि के समान है। हाथमें शस्त्र नहीं रक्खे हुए सैन्य की तरह है । और आंख बिना के मुँह के बराबर है।
चक्रवर्ती भी-धर्म का उपासक न हो तो ऐसा परलोक पाता है कि जहाँ निन्ध भोजन को भी दिव्य अमृत मानना होता है। बडे कुलमें उपजा हुआ श्रीमान् श्रेष्ठिरत्न भी धर्मको प्रसादी के नहीं पाने के कारण भवान्तरमें उच्छिष्ट भोजी कुत्ता होता है। बाह्मण वैश्य क्षत्रिय शुद्र कोई भी क्यों न हो, धर्म का तिरस्कार सब के लिये अनर्थ उपजानेवाला है। अधर्मी मनुष्यों को बिल्ली साँप शेर गिद्ध वगैरह दुर्गतियोंमें जाने की टिकट मिलती है । धर्महीन प्राणी विष्ठा वगैरहमें अनेकशः कीडे का जन्म पाते हैं,
और मुरगे वगैरह की चोंच व पांव के प्रहार का लाभ उठाते हैं। पापिष्ठ-दुरात्मा मनुष्यों का भवान्तर गति के समय नरक की
ओर प्रयाण होता है और परमाधार्मिकों के हाथोंसे बेशुमार दुःख उन्हें उठाना पड़ता है । पराधीन हो के प्राणी इतना कष्ट उठा लेते हैं, मगर स्वाधीन-स्वतन्त्र दशामें धर्मानुबन्धी (धर्म करने के प्रसंगमें) थोडा भी दुःख उठाना नहीं होता अफसोस ।
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संसार में प्राणिओं को पोषण करनेवाली सची माता धर्म है। जीवों को रक्षण करनेवाला वास्तविक पिता धर्म है । मिजाज को खुश रखनेवाला असल मित्र धर्म है । और पवित्र स्नेहभाव से वर्त्तनेवाला एक बन्धु धर्म है । धर्म-सुख सम्पदा का अथाह भंडार है । धर्म रणयुद्ध में लोहे का बख्तर है । और धर्म बुरे कर्मों के ममेको भेदनेवाला प्रतीक्ष्णशस्त्र है। धर्म के प्रसाद से प्राणी राजा होता है, सम्राट होता है, देवता होता है, देवेन्द्र होता है, अहमिन्द्र होता है आखिरमें ईश्वर भी हो जाता है।
धर्म के अचिन्त्य प्रभाव को, सब दर्शनों में सभी मजहबों में सभी धर्माचार्य मुक्तकण्ठ से पुकार रहे हैं और धर्म का सामान्य स्वरूप“पञ्चैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥१॥
(इस श्लोक में बताया हुआ) सभी महानुभावों को सम्मत है । वास्तवमें आत्म शुद्धि ही धर्म होनेपर भी उसके अहिंमादि सा. धनों को भी धर्म कहना कोई अनुचित नहीं है।
धर्म का सामान्य स्वरूप प्रायः सभी को विदित होगा। किन्तु यह मेरा प्रयास धर्म सम्बन्धी कुछ विशेष शिक्षा देने के लिये है, इसीसे इस पुस्तक का नाम भी "धर्मशिक्षा" रक्खा गया है। धर्म के विषयमें हजारों पुस्तकें विद्वानों के हाथ से लिखी गई हैं और नया तत्त्व-अपूर्व वात्तो कोई नहीं लिख सकता, तहां भी नये नये ढंग से उस उस समयपर लेखक लोग अपनी कलम चलाया ही करते हैं। किसी लेखक की किसी प्रकार की लेख पद्धति रहती है किसी की किसी चाल की । संक्षेप से विस्तार से ___*१ अहिंसा, २ सत्य ३ चोरी नहीं करना ४ ब्रह्मचर्य ५ संतोष ( त्यागवृत्ति) इन पंच नियमों को सभी धर्मचारियों ने पवित्र माना है।
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मिश्ररूप से भिन्न भिन्न संकलना से विषय संयोग की विचित्रता से एक ही विषयपर हजारों लेखकों की हजारों तरह की जुदे जुदे ढंगवाली कलम चलती है । अनन्त वामय अनन्त शास्त्र ५२ ही वर्णोंपर पर्याप्त हैं तहां भी सब शास्त्र-सभी पुस्तकें परस्पर विलक्षण ही ढंगवाली हैं, कोई पुस्तक किसी पुस्तक से एकरूप नहीं होती । इस लिये. यह संकोच नहीं रखना चाहिए कि " पुस्तकों का ढेर पडा है, पहले जमानेके विद्वान् लोग बहुत ग्रन्थ लिख छोड गये हैं, नई पुस्तक से क्या प्रयोजन है ?" । किन्तु "शुभे यथाशक्ति यतनीयम् " ( शुभ काममें यथाशक्ति उद्यम करना चाहिए ) इस सुभाषित के अनुसार यथाबुद्धि-यथाकिलोकोपकारक योग्य लेखनी अवश्य चलानी चाहिए । ज्यों ।। स्मारक वस्तुएँ ज्यादह बढ़ेंगी त्यों त्यों जनसमाज को कर्तव्यों की ओर संस्कार दृढ होगा, स्मरण बार बार जागता
रहेगा।
धर्म सम्बन्धी शिक्षामें बहुत वक्तव्य भरे हैं । इतनी छोटी सी पुस्तक में सब वक्तव्यों का निवेदन नहीं आ सकता। इस पुस्तक में मेरे अल्प ज्ञानानुसार मैने अभी बिन्दुमात्र ही कहा है । खास खास विषय ऐसे बहुत से हैं कि जिनका स्पर्श भी यहां नहीं किया गया है और अवश्य विवेचन करने योग्य हैं । मैं पहले इस पुस्तक को बहुत ही छोटी रखना चाहता था मगर वक्तव्योंने ज्यों ज्यों मुझे घेर लिया त्यों त्यों लाचार हो के कुछ कुछ बढाता रहा, आखिर में प्रकाशक महाशय की प्रेरणा से यहांतक बढा के विराम लेना पड़ा।
इस पुस्तक में जितनी बातें बताई गई है उनका अनुक्रम आगे धरा है । इसी ग्रन्थमें से कुछ हिस्सा ले के " गृहस्थधर्म " पुस्तक का निर्माण हुआ है । ___“धर्मशिक्षा" का जन्म किशनगढ-राजपुताने में हुआ है ।
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विक्रम सं-१९६९ की सालमें जब मैं किशनगढ में चौमासा रहा था उस समय आगरा निवासी श्रीयान् श्रेष्टिवर्य महानुभाव लक्ष्मी चंदजी वेद के पुत्ररत्न श्रीयुत अमरचंदजी श्रीमान् मोहनलालजी तथा श्रीमान फुलचंदजी किशनगढ आये थे । उस वक्त श्रीमान फूलचंदजी ने मुझे अपना यह विचार दर्शाया कि " कोई धर्म विषयक अच्छी पुस्तक हिन्दी में लिखनी चाहिए कि जिससे इस प्रान्तवाले लोगों को लाभ मिल सके " । और पुस्तक लिखनेका साग्रह निवेदन किया। इन्हीं के निवेदन से इस पुस्तकका निर्माण हुआ है।
इस पुस्तक के लिखते वक्त न मेरे मनमें कोई द्वेषभाव की परिणति थी और न मैं ऐसी क्षुद्र वृत्ति रखना पसंद करता हूँ, तथापि राभस त्ति से मेरा औद्धत्य कहीं इसमें प्रतीत होता हो तो क्षमा करें।
" लेखक"
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विषयानुक्रम
विषय.
१ धर्मकी प्राचीनता और उदारदिलसे धर्मकी गवेषणा.
५ दर्शनों के परस्पर मतभेद. ३ वेदानुयायी मतों का निरीक्षण. ४ वेद के हिंसादिप्रतिपादक वाक्य.... ५ वेद के कर्त्ता सम्बन्धी विचार. ६ हिंसा प्रतिपादक मनु के श्लोक. 9 असर्वज्ञों से वेदो का प्रादुर्भाव. ८ ऋग्वेद संहिता का हिंसाप्रतिपादक वाक्य. ९ नास्तिकमत का खण्डन.
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434.
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१० बौद्धमत भेदोंकी समीक्षा. ११ ' नास्तिक' शब्द का अर्थ. १२ बौद्ध व जैन दर्शन का अत्यंत पार्थक्य.... १३ नैयायिक व बौद्ध दर्शन में एकसरीखी मिलती हुई
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बातें.
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१४ जैन दर्शन के अटल लक्षण स्याद्वाद का निरूपण. १५ जीवादि नौ तत्त्वों का निवेदन. १६ मुक्तिका स्वरूप और उस दशा में अद्वैत सुखकी सिद्धि. ४२ १७ प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रमाण का दिग्दर्शन. १० नय व सप्तभङ्गी .. १९ सप्तभंगी की गहनता. २० काल के भेदानुभेद. २१ धर्मोपदेशक - तीर्थंकर का परिचय..... २२ जैन शास्त्रों के मादुर्भाव का विशुद्ध मूल...
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५४.
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१०
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२३ जैन शासनकी पवित्रता निष्पक्षपातता और निर्विरोधता.५१ २४ प्रभावक जैनाचार्यों के कुछ नाम.... .... .... ५५ २५ जैनधर्म के कानून और साधु धर्म. .... .... ५३ १६ श्रावकधर्म का प्रारम्भ .... .... २७ श्रावकधर्म-चारह व्रतों के नाम और पहिला स्थूल
प्राणातिपातविरमण व्रत .... .... .... २८ दूसरा स्थूल मृषावादविरमण व्रत. .... २९ तीसरा स्थूल अदत्तादानविरमण व्रत ३० चौथा स्थूल मैथुनविरमण व्रत .... ३१ पांचवाँ स्थूल परिग्रह विरमण व्रत.... ३२ छठाँ दिग्विरति (गुणवत) .... ३३ सातवाँ भोगोपभोगपरिमाण , .... ३४ आठवाँ अनर्थदण्ड त्याग , ३५ नवाँ सामायिक ( शिक्षा व्रत) .... ३६ दशवाँ देशावकाशिक ,, .... ३७ ग्यारहवाँ पोषध , .... ३० बारहवाँ अतिथि संविभाग.... ३९ देव गुरु व धर्म को शुद्धि ....
१८६
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धर्म शिक्षा.
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अर्हम्। नमः शास्त्रविशारद-जैनाचार्य श्रीविजयधर्मसूरिभ्यः ।
धर्मशिक्षा. प्रणम्य परमात्मानं धर्माचार्यान्गुरूंस्तथा । भव्यानामुपकाराय धर्मशिक्षा विधीयते ॥१॥
यह तो सुविदित ही है कि समस्त जीवयोनिमें मनुष्यत्व जाति, परमपदमाप्तिका परम मार्ग है । समस्तप्रकारसे विज्ञान सामग्री वा धर्मसामग्री मनुष्यही को प्राप्त होसकती है। अतएव शास्त्रकारों ने मोक्षप्राप्तिका परम साधनभूत मनुष्य जन्मको देवत्वसे भी अधिक श्रेष्ठ बताया है । क्योंकि देवलोगोंको स्वर्गसुख-रमणमें आसक्ति होने से तपश्चरणादिका उदय नहीं होता है, और विना तपश्चरणादि, समस्त कर्मक्षय स्वरूप मोक्ष नहीं मिलसकता । इस लिये इस मनुष्यत्व जातिको प्राप्त करके बुद्धिमान् विवेकी पुरुषोंको धर्मका आदर करना परमावश्यक है । लेकिन अफसोस है कि आजकल नवीन धर्मोंका प्रचार उत्पन्न होता हुआ बहुत दीख पडता है । परस्पर विरोधि धर्मोंकी धारा, अल्प
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धशिक्षा. मति भोले लोगों के हृदयमें ऐसा प्रहार करती है कि विचारे खडे भी नहीं होसकते, यानि धर्मका रास्ता नहीं सूझनेके कारण आस्तिक्य गुणसे परिभ्रष्ट हो जाते हैं; यह तो मेरा कहना होही नही सकता कि समस्त भूमंडल एकही धर्ममें आ जाय । एक धर्ममें यह जगत् कभी उपस्थित न हुआ न होगा, वरना एक ही सत्य धर्मसे सर्व जगत्का निस्तार होने पर दुर्गति के द्वारको अर्गलाही देनी पडेगी, यानि नरकादि दुर्गति शून्य हो जावेगी। इसलिये सच्चा और मिथ्या धर्म अनादि कालसे चला आरहा है, इसमें कौन क्या कहेगा? लेकिन वर्तमान हवासे मालूम पडता है कि नवीन २ मजहब निकालनेमें लोगोंको बहुत शौक हो गया है । हमभी थोडा कुछ टटु चला करके इज्जत उठावें, ऐसा समझ कर उटपटांग प्रलापों की पोथी थोथी बनाके प्रजामें प्रवाहित कर देते हैं। परन्तु समझना चाहिये कि यदि सच्ची इज्जतकी गठडी उठानी हो तो परमात्मा के सत्यधर्ममें आरूढ हो कर के पवित्र आचार तपश्चरणादि द्वारा दुष्ट कों को क्षीण करें और इसीसे अपरिमित-अद्भूत-अविनाशी-लोकोत्तर आनन्द प्राप्त करें, शारदपूर्णिमा चन्द्रकी किरण सहोदर चमकीली विश्वव्यापी यशोदेवीकी वरमालाभी पहिनें । स्वकपोल कल्पित असत्य मत फैलानेसे फायदा होना तो दूर रहा, किन्तु एकान्त पापोंकी गठडी उठानी पडती है और भवाटवीमें चिरतरकाल परिभ्रमण करना पड़ता है।
कोईभी स्वाभिमाय प्रकाश करने के पहिले सोचो ! कि यह अभिप्राय सिद्धान्तानुकूल है वा विपरीत है। पूर्व ऋषि वा माचीन विद्वानों के आगे हम लोगोंकी कौन बुद्धि ? हम क्या कोई नया तत्त्व निकाल सकते हैं। अलबत्ते ! समस्त शास्त्रोंकी मीमांसा
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धर्मशिक्षा.
करना अत्यावश्यक है। न कि बावा वाक्यं प्रमाणम्' इस मूर्ख रूढिपर बैठ रहना चाहिये। परंतु यह अवश्य खयालमें रहे कि हमारी बुद्धि जगद्व्यापिनी नहीं है, अनंत पदार्थ हमारी बुद्धिसे अभी बहार हैं। दो अक्षरके ज्ञान मात्रसे पंडिताभिमानी बनना और नया समाज खडा कर देना यह केवल मूर्खताका नमूना है, असम्बकालापोंमें पांडित्य नहीं ठहरा है, किन्तु व्याकरण साहित्य इतिहास दर्शनशास्त्र तर्कशक्तिद्वारा बुद्धिका परिपाक होना, यही विद्वान्की ल्याकत कही जाती है। अपने बेर मीठे दूसरे के खट्टे ' ऐसे तुच्छ विचारोंसे तत्व प्राप्ति नहीं होती है । किंतु स्वपर धर्मके विभागको छोडकर परीक्षा रूपी कसौटीसे जिसकी कीमत चमत्कारिणी मालूम पडे, वही धर्म अपना उपादेय होना चाहिये । कुलधर्मका कदाग्रह वडा बुरा है । जीवनकी खराबी करनेवाला है । इसी विषयमें “स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो नयावहः," यह वाक्यभी पूर्णतया सम्मति दे रहा है। तथाहि.
'स्त्र, यानि अपना अर्थात् आत्माका असल जो वास्तविक धर्म, उसका पालन करते हुए मनुष्यको निधन, यानि मरण अथवा विपत्ति होजाती हो तो बेशक हो जाओ, परन्तु 'पर, धर्म, अर्थात् शत्रुता करनेवाला याने आत्माकी वास्तव लक्ष्मीका टुटाक (चोर) अतएव आत्माका द्रोही धर्म हमेशाके लिये भयको पैदा करता है।
पाठकगण !इस गीता श्लोकसेभी कुलधर्मका कदाग्रह निषिक ही समझो !। वही धर्म अपना समझना चाहिये, जो कि किसी प्रकार बाधासे वाधित न हो और वही धर्म सर्वथा बाधा-दोष
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धर्मशिक्षा. रहित कहा जा सकता है, जो कि सर्वज्ञने प्रकाशित किया है। ऐसा सनातन धर्म बापदादाओंसे अनादृत ही क्यों न हुआ हो?मगर बुद्धिमान् लोग उसकी अन्वेषणामें कटिबद्ध रहते हैं। जब यह बात निश्चित है कि मोक्षका मार्ग एकही है। क्योंकि विरुद्ध कारणोंसे एक कार्य कभी उत्पन्न नहीं होता है। जैसे घटकी उत्पत्ति मृत्तिकासेही होती है, न कितन्तुओंसे, तो मोक्ष प्रदाता मार्गभी परस्पर विरोधि कैसे होंगे ? इसलिये परीक्षाको सहन करनेवाला, सर्वज्ञदेव भाषित एक ही धर्म-मार्ग मोक्षसाधक होसकता है। अतः बुद्धिमानोंको चाहिये कि सत्यासत्य धर्मरुप रत्न कांचोंके पुंजमेंसे दृढ परीक्षाद्वारा सत्य धर्मरूपी रत्न उठालेवें । कांच रत्नका भ्रम न रक्खें । किंतु यह बात तबही होगी जवकि कुल परंपरासे आये हुए धर्मका कदाग्रह रफा होजायगा। कुल परंपरापाप्त धर्म सत्यही क्यों न हो? लेकिन उस सत्य धर्ममें सत्यत्वका परिचय होनेपर उस सत्य धर्मका पक्षपाती वनना समुचित है। क्योंकि सम्यग् ज्ञानपूर्वक श्रछा करना यही मोक्षका परम साधन सभी शास्त्रकारोंकी उक्तियों से निकलता है।
इस कलिकालमें पूर्व महात्माओंकी तरह सूक्ष्मतर प्रज्ञा यद्यपि दुर्लभ होगई है. तथापि मध्यस्थ पुरुषकी बुद्धिमत्ता धर्मकी परीक्षा करती हुइ परमार्थ सत्यही धर्ममें विश्रान्ति लेती है इसमें कोई सन्देह नहीं, मगर मूर्ख पुरुष और कदाग्रही पंडितके लिये तोधर्मकी दर्लभता शास्त्रकारोंने बताई है, वातभी सच्ची है, क्योंकि धर्म जैसी परम वस्तु समस्त जगत् को यदि प्राप्त होजाय तो जगत् दरिद्रही कैसे रहेगा ? पंडितभी क्यों न होमगर वह यदि हीनभाग्य होगा तो जरूर कदाग्रह रूपसर्प उसके मनोमंदिरमें घुसकर और विवेकरुपी दूध एकदम पी
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धशिक्षा. करके दुर्बुद्धिरूप विष फैला देगा । पाठकवर ! आप समझगये होंगे कि धर्म एक मामूली चीज नहीं धर्मराजाके प्रभावसे लोग परमानन्दी बनजाते हैं। इस संसार चक्रमें भ्रमण करते हुए प्राणीको सर्व प्रकारकी संपत्ति प्राप्त हो चुकी, परंतु सत्य धर्मके दरवाजेमें प्रवेश नहीं हुआ। जिसके जरियेसे जीवको दारिद्य नदीमें अभीतक डुबकी मारनी पड़ती है। अगर सत्यधर्मकी सेवा मिली होती तो हर्गिज आजतक इतनी विपत्ति नहीं उठानी पड़ती। धर्म एक भव रोगको मिटानेका परम औषध है। धर्म एक भवक्लेशकी हत्या करनेमें बडा शूरवीर है। अब समझिये कि सत्य धर्म कहां ? और हम कहां?। दुनियां में हजारों धर्म जलबुबुदके बराबर पैदा होते हैं और जलबुबुदके बराबर प्रलीन होजाते हैं। और पंडिताभास मिथ्याभिमानी लोग एक नया समाज खडा करके विद्याकीटांग तोडनेको प्रयत्नशील होते हैं। मगर वे लोग यह नहीं जानते हैं कि क्षणिक संसारसुख क्षणविनाशी है, और झूठी इजतके पीछे जूता खाना पडता है । सत्य मुनियोंकी श्रुतियों के सत्य अर्थको छुपाकर कदाग्रह से असत्य अर्थको फैलानेमें अल्पज्ञ समाज अपनेको बहादुर समझती है । मगर श्रुति विरोधि सत्रविशति अर्थ प्ररूपणा के दुरंत परिणामको अपने खियालमे नहीं लाते है ? सैलावे ? मतलबी पुरुष हमेशा अपने मतलबमें ही गुम रहेते हैं.
दुनियामें जितने धर्म प्रचलित हो रहे हैं वे सब धर्म परस्पर विरोधी होकर अन्यके खंडनके साथ अपनी जय कीर्तिका ढंढोरा पिटवाते हैं। क्या उन धर्मोको निकालने वाले सब सर्वज्ञ हैं ? सर्वदशी हैं ? अगर मत नहीं हैं तो फिर स्वकल्पित बातोंको प्रचलित करने में उन्मत्त होना बिलकुल अज्ञानता ही है न ? जो जो नये नये विचार तरंग
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धर्मशिक्षा. उत्पन्न होवे उन सबको अपनी आत्मा में रखना चाहिये । पूर्णचिन्ता करके युक्त मालूम होने पर उनको जाहिरमें लाना मुनासिब है, छद्मस्थों को सहस्रशः नम हो जाता है । विचारना चाहिये कि यदि भ्रम से असत्यवस्तुको सत्य मानकर प्रचलित करेंगे तो बहुत संसारकी द्धि होगी। और ऐसे भवभीरु होना यह आत्माका प्रथम गुण है । जो शख्स नये मत निकालने में अपनी पूजा समझता है वहधर्मका परमशत्रु है। क्योंकि नया धर्म कोई नहीं निकाल सकता । सर्वज्ञ सर्वदशीभी पूर्व प्रसिक ही धर्ममार्गको प्रकाशित करते हैं, जैसे जीव अनादि है, मोक्ष अनादि है, वैसे धर्मभी अनादि है । धर्मका अपूर्व प्रादुर्भाव यदि माना जाय तो मोक्ष प्रवाह अनादि नहीं हो सकेगा, क्योंकि धर्मके अपूर्व प्रादुर्भाव समय के पहिले धर्मका अभाव होनेसे निष्कारण मोक्ष रूप फल नहीं बन सकता। अतः धर्म और मोक्षका प्रवाह अनादि कालसे चला आरहाहै । अलबत्ते कचित् क्षेत्रादि दोषोंसे धर्मका अभाव होसकता है। मगर धर्मका अपूर्व प्रादुर्भाव होना सर्वथा असंभव है । जब यह वात निश्चित हो गई, तो फिर नया मत खडाकर देना यह अन्बल पाखंड नहीं तो दूसरा क्या ? पाखंडि लोग अपना पाखंड फैलाकर दुनियाको ठगते हैं. असत्य उपदेश देकर प्रजाको उर्गतिमें गिराते हैं और ॥ स्वयं नष्टा दुरात्मानो नाशयन्ति परानपि ॥
इसन्यायको चरितार्थ करते हैं। यदि कहा जाय कि हम नया मत नहीं निकालते हैं किन्तु शास्त्रोंका परमार्थ बताकर प्रजाको तत्वज्ञानिनी बनानेकी कोशिश करते हैं, तो ये सबवातें झूठ हैं। शास्त्रोंका परमार्थ निकालना बडी विद्वत्ताका काम है। अज्ञा
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धर्मशिक्षा. नियोंको शास्त्रका पता नहीं मालूम पडता है। और सच्चे ज्ञानि लोग तो धर्म नायक पनेके अनुचित घमंडसे हमेशा बहारही रहते हैं । वास्तवमें तो जबतक विप्रलंभक गुरुके वचनों के ऊपर हृदय विश्वासी रहेगा, और असंबद्ध प्रलापोंसे गुरु वचनोंको सत्य सिध करनेका हठ दूर न होगा, तबतक यही : दृष्टिरागरूप मलयवायु तत्त्वज्ञानरूप अमृत दृष्टिका जन्म न होने देगा । अतः दृष्टिरागको जलांजलि देकर शास्त्रोंकी परीक्षा माध्यस्थ्यसे करनी चाहिये। और न्यायनरेशकी आज्ञाको हमेशा उठानेवाले सिद्धान्तोंको अपना उपादेय समक्तना चाहिये । जिज्ञासु--
" षण्णां विरोधोऽपि च दर्शनानां तथैव तेषां शतशश्च भेदाः। नानापथे सर्वजनः प्रवृत्तः
को लोकमारा धयितुं समर्थः? " ॥१॥ बौद्ध-नैयायिक-सांख्य-जैन-वैशेषिक-जैमिनीय ये छ दर्शन हैं। और वे परस्पर विरोध रखते हैं। और प्रत्येक दर्शनमें से सैंकडों फांटे निकले हुवे दिखाई देते हैं। समस्त प्रजा भिन्न भिन्न मार्ग में प्रवृत्त हो रही है । अव जनसमाजको कौन उपदेशघारा आराधित करसकता है । बस इस कारण से लोगों का चित्त धर्म के विषयमें विव्हल रहा करता है, किं कर्त्तव्यतामूह बना रहता है । तो क्या परमार्थ से कोइ सत्य धर्म होगा ही नहीं कि जिससे संसारका क्लेश नष्ट होसके ?
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धर्मशिक्षा.
शानी-हे देवानुप्रिय! आपकी जिज्ञासा प्रशंसनीय है। सचमुच उक्त छ दर्शन परस्पर विरोध रखते हैं तथाहि
नैयायिक तथा वैशेषिक दर्शनका तंत्र परस्पर बहुत समान होनेपर भी अवान्तरविरोध उन्होंके शास्त्रोमें प्रकट दीख पड़ते हैं। अव्वल तो प्रमाणकी व्यवस्थामें उन दोनोंका विरोध है। नैयायिकोंने प्रत्यक्ष अनुमान उपमान और शब्द इन चार प्रमाणोंको स्वीकारा, तब वैशेषिकोंने प्रत्यक्ष और अनुमान ये दोही प्रमाण माने। उसी प्रकारसे पदार्थ व्यवस्थामें भी प्रकट ही विरोध है। सांख्यकी प्रक्रिया उन्होंसे बिलकुल विपरीत है। जब वैशेषिकोंने पृथ्वी-जल-तेजवायुः-और आकाशका क्रमसे गन्ध-रस-रूप-स्पर्श और-शब्दको गुण माना, तब सांख्याचार्यों ने मन्ध-रस-रूप-स्पर्श-शब्दोंकी तन्मात्राओंसे पृथ्वी-जल-तेज-वायु:-और आकाशकी उत्पत्ति स्वीकारी । देखिये ! पाठकगण! है न पहाड जितना विरोध ? । औरभी सुनिये ! जगत्की उत्पत्तिका निमित्त कारण ईश्वर है ऐसा वैशेषिकोंने कहा, तब सांख्य प्रवचनमें ईश्वर मानाही नहीं, किन्तु सत्त्वरजस्तमोगुणात्मक प्रकृतिका संक्षोभ होने पर जगतकी व्यवस्था मानी।
अब जैमिनीय दर्शनमें गौर कियाजाय तो वहांभी बडीही विलक्षणता दिखाई देती है। पहिले तो जैमिनीय दर्शनमें सर्वश ही नहीं माना है। जैमिनीयका दूसरा नाम मीमांसक है। मीमांसक दो प्रकारका है, एक पूर्व मीमांसक और दूसरा उत्तर मीमांसक । पूर्व मीमांसक प्राधान्येन क्रियाकांडी है । और उत्तर मीमांसक वेदान्ती है। वेदान्ति लोगोंने एक सत्य ब्रह्महीको माना और
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धर्मशिक्षा.
__संसारके सब पदार्थोको झूठा कहाहै। इस प्रकार जैमिनीय दर्शन भी एक विलक्षणेही है।
पाठक मित्रो ! देखी! वेदकी विचित्र लीला । एक ही वेदमेंसें निकलेहुए ये चार दर्शन कितने झघडे बखेडेमें गिरे हैं। परस्पर लडते हुए उन्होंने क्या वेदकी निन्दा नहीं को?, जब वे दर्शन परस्पर प्रतिरोधी हो कर स्वाभिप्रायानु रूप वेदपदाको लगाकर अन्यदर्शनके ऊपर आक्षेप करते हैं, तब जरूर एक एक दर्शनकी अपेक्षा दूसरे दर्शन वेद निन्दक ठहरते हैं। बस ! " नास्तिको वेदनिन्दकः" यह उन्हीके घरका कुठार परस्पर लड़ते हुए उन्हों के ऊपर ही आ कर गिरा । अहो ! कैसा कलह केलीका दुरंत परिणाम ? । अस्तु । अब बौद्धों की तरफ नजर की जाय तो, बौद्ध लोग वेदोंसे विपक्षी होकर एक और ही अपनी सृष्टि बताते हैं। तथाहि
बौद्धकी चार शाखाएं हैं। वैभाषिक १ सौत्रान्तिक २ योगाचार ३ और माध्यमिक ४ ।
उनमें वैभाषिकोंने चौथे क्षणमें वस्तुका नष्ट होना माना है। और सौत्रान्तिकोंने आत्माको नहीं माना, किंतु रूप-वेदना-विज्ञान संज्ञा-और संस्कार इन पांच स्कंधोंको परलोकगामी स्वीकारा है। और सौत्रान्तिकों के अभिप्रायसे सब बाह्य वस्तु अप्रत्यक्ष हैं। किंतु ज्ञानाकारद्वारा बाह्य वस्तुओंका अनुमान होता है, और सब वस्तु क्षणिक हैं । योगाचार बोद्धौं के हिसाबसे विज्ञान मात्र ही जगत् है । बाह्य वस्तु शशशृंग के बराबर है। माध्यमिकों के विचारसे सर्व शून्य हैं। देखिये महाशय वृन्द ! दर्शनोंमें कितना विरोध ? कितनी परस्पर भिन्न भिन्न मान्यता ?
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जैन दर्शनभी उक्त पांच दर्शनोंसे अलग ही वस्तुका स्वरूप बता रहा है।
अब कहां रही धर्म पद्धति ? । क्योंकर अल्प मति लोगोंका चित्त धर्ममें सन्देहाकुल न होवे ?। . ___अहो ! मल्लप्रतिमल्ल न्यायेन कैसा दर्शनोंका गभीर झगडा ? । न जाने एक ही वेद पर भक्ति रखनेवाले विद्वानोंकी इतनी विप्रतिपत्ति क्यों चली? । गौतम-कापिल-कणाद-जैमिनी आदि ऋषियों के अभिप्राय परस्पर विरोधी क्यों हुए ? । मालूम तो यही होता है कि वे सब ऋषिलोग पूर्णज्ञानी नहीं थे। जैसे जैसे विचार पैदा होते थे वैसे वैसे विचारों को वे लोग लिख देते थे। बात भी ठीक ही है। विना सम्यज्ञान ऋषियोंको भी भ्रम रहा ही करता है।
पाठकवृन्द ! सूक्ष्म दृष्टिसे अगर गौर कियाजाय तो गौतमादि मुनि प्रणीत एक एक दर्शनमें भी आचार्योंके परस्पर मन्तव्यविरोध दिखाई देंगे। देखिये ! नैयायिकोंका सिद्धांत, वात्सायनादि ऋषियों के अभिप्रायसे झानसुखादि रहितही मोक्ष है, और श्रीभासर्वज्ञने मोक्षमें नित्य सुखको स्वीकारा है।इसीरीतिसे प्रमाणचर्चा में भी परस्पर बहुत विरोध दिखाई देते हैं। परंतु लेख गौरवका भय रहनेसे इस बातको यहाँ विस्तरतः कहना उचित नहीं समझता हूं । इसी प्र. कार सांख्यादि दर्शनोमें भी परस्पर विरोध सुलभ ही हैं।
वाचकगण! ध्यान दीजिये कि गोतमादि मुनियों को न्यायादि सूत्र कहाँसे मिले ?। यदि उन्होंने स्वमनसे सूत्र बनाकर प्रकाशित किये, तबतो उनमें विश्वास कैसे होगा?। प्रामाणिक लोग उनको प्रमाणरूपसे कैसे ग्रहण करेंगे? क्योंकि अपूर्णज्ञानी को सहज भ्रम अवश्य रहा करता है। अगर कहा जाय कि पहिले के
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न्यायसूत्रोंको देखकर उनके आधारसे गोतमादि ऋषियोंने न्यायादि सूत्रों की रचना की । तो कहना चाहिये कि पहिलेके सूत्रोंका की कौन ? यदिखुद ईश्वरही कहोगे ? तब सोचो ! एकही ईश्वरने गौतम और कणादादि ऋषियोंको परस्पर विरोधी सूत्र क्यों दिये ? क्या प्रजाके चित्तको भ्रमित करना ईश्वर चाहता था? यदि ऐसी ही बात हो तबतो आपका ईश्वर बडाही दयालु ठहरेगा।
वाहजी वाह मित्र ! कैसी ईश्वरकी दया, जिसको अपनी प्रजाके ऊपरभी अहित करनेमें संकोच नहीं आया ।
' हम नहीं समझते हैं कि सब ऋषि लोगोको एक ही सत्य धर्म प्रतिपादक सूत्र देनेमें ईश्वरका क्या बिगडता था? प्रत्युत प्रजा धर्म विषयक सन्देह पीडासे पीडित नहीं होती, सत्य ध. मकी आराधना करके परमानन्दरूप बन जाती, यही इश्वरको बड़ा फायदा होता। अगर वेदका अवलंबन लेकर सूत्रोंकी रचना करनेमें आई, तो फिर वही पुनरुक्त करना पड़ता है कि ऋषि लोगोंको वेदका पूर्ण ज्ञान नहीं था! वरना परस्पर विरोधी विषयोंकी चर्चा नहीं होती। सनातनी लोग यह तो कहते ही नहीं कि यह अमुक ही ऋषि सत्य है उसीका सिद्धान्त उपादेय है, किन्तु सब ऋषि लोगों को एक सरिखे सत्कारमें लाते हैं।
___ क्या वाचक वर्ग! परस्पर विरोधी सिधान्तवाले सब ऋषिलोग माननीय हो सकते है ? हर्गिज नहीं ।
दरअस्लमें गौतमादि रुपियोंके कई कई सिद्धान्त प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे बाधित होनेसे उनमेंसे कोई भी ऋषि पूर्ण वेदज्ञानी नहीं था।
वस्तुतः ऐसे कुटंग वेदकी रचना करनेवाला कौन? यही बडा भारी प्रश्न उठता है, अगर ईश्वरको वेद का कहोगे, तब तो
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धर्मशिक्षा.
ईश्वरने ऐसा कुटंग वेद क्यों बनाया? कि जिसमें ऋषिलोग व्यामूढ बन गये । ईश्वरने ऐसा वेद क्यों न बनाया यानि वेदकी ऐसी स्पष्ट रचना क्यों न की जिससे ईश्वरभक्त सब ऋषियोको वेदमें एकही सत्य तत्व मिल जाता । और भी समझना चाहिये कि बडे बडे रुषि लोगोंकी परस्पर विपतिपत्ति होने के समयपर खुद ईश्वरने आकर उन विप्रतिपत्तियों (मतभेदों) का समाधान क्यों न किया, अन्यथा वेद रचनाकी क्या जरुरत ? क्योंकि सर्वज्ञ ईश्वरको पहिले मालूप ही होगा कि ये लोग मेरे बनाये हुए वेदको यथार्थ रीतिसे नहीं समझेगें । और वेदके भिन्न २ आशयों को लेकर ऋषिलोग कलह केलीमें फँस जायंगे और प्रजाको सत्यधर्मका श्रद्धान नहीं होगा। ऐसे जानते हुवे भी ईश्वरने जो वेदकी रचनाकी तो यह प्रथम विफल (फजूल) कार्य करण दूषण ईश्वरको आया । असालमें वेद श्रुतियोंका अवलंबन ले कर पाखंडी लोगोंने बहुत अकृत्य काम फैलाया, और कृत्य काम के ऊपर खड़ फैंका । और भोले लोग वेदके नाममें मोहित हो कर वेदको परम सबूत समझ कर हिंसादि कर्ममें फंसने लगे। और संसार विषयानन्दी मतलबो लोगोंने वेदका बहाना लेकर अपनी पूजा तथा अधर्म वृद्धि चलाई । वाचकवर्ग ! इन सब पापोंका निमित्त कारण वेदकर्ता ईश्वर ही होगा । यह दूसरा वज्र कठिन दोष ईश्वर के ऊपर आया। क्या इन सब भावि परिणामोंको ईश्वर नहीं जानता था ? अगर जानता था तो फिर वेदकी रचना क्यों की? वेदकी रचनासे क्या नतीजा ईश्वरने निकाला? । अगर नहीं जानता था तो फिर ईश्वर ही कहां रहा? क्योंकि सर्वज्ञता ही ईश्वरका परम स्वरूप है। ___पाठक महाशय ! वेदक" ईश्वर कैसा बहादुर ? धर्मको फैलाने के लिये ईश्वरने वेद बनाया और फैल गया अधर्म ।
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धर्मशिक्षा
वाह जी वाह ! ईश्वरकी कैसी दीर्घदर्शिता । धन्य है ऐसे ईश्वरको जिसका मनोरथ कुछ था और परिणाम कुछ निकला कि जिस वेदका पुच्छ पकड कर सैंकडों धर्म वर्तमानकाळमें चले जा रहे हैं । बन्धुओ ! समझिये, ईश्वरको यदि सत्य धर्म चलाना था तो सब ऋषि लोगोंको एक ही सत्य धर्मकी श्रुतियां देनी थी जिससे भिन्न भिन्न दर्शनोंकी धारा निकलकर प्रजाको क्लेशित नहीं बनाती । खैर! इस वख्तभी ईश्वरको क्या निद्रा भाई है, इस वख्तभी ईश्वर खडा होकर पाखंडी लोगोंको शिक्षा देकर वेदका परमार्थ प्रकाश क्यों नहीं करता है? । अगर कहा जाय कि इस वख्त कलियुग होनेसे ईश्वर खडा नहीं हो सकता है तो क्या कलियुग ईश्वरकी क्रियाको भी रोक सकता है ? यदि ईश्वरकी क्रिया को भी कलियुग रोकेगा तो ईश्वर शक्तिहीन ही कहा जायगा। यदि कलियुग ईश्वरके ऊपर कुछ नहीं कर सकता है, तो फिर ईश्वर क्यों सत्य धर्मका प्रकाश करनेमें विलंब करता है। दयालु ईश्वर यदि सर्व शक्तिमान् है तो जब चाहे तब प्रजाके ऊपर दया कर सकता है। सुयुगमें तो प्रायः बुद्धिमती सुशीला मजा होती है उस समयमें प्रजाके ऊपर दया करनेका परिश्रम उठाना इश्वरको अत्यावश्यक नहीं है। किन्तु दया करनेकी अत्यावश्यकता इस कलियुगमें ही है । ऐसे समयमें दयालु देवको दया प्रजाके ऊपर यदि न बने तो फिर वह दयालु कैसे कहा जायगा ?। क्षुधा के समय पर भोजन दाता दाता कहलाता है, परिपूर्ण पेट होने पर अमृत दाताभी सत्कार पात्र नहीं होता है । तात्विक दृष्टिसे मी. मांसा करने पर वेद न तो ईश्वर रचित मालूम पड़ते हैं और न प्राज्ञ मुनीश्वर रचित मालूम पड़ते हैं क्योंकि वेद श्रुतियों में बहुत विरोध दृष्टिगोचर होते हैं । अत एव समज्ञना चाहिये कि मूल ( वेद ) जब अशुद्ध है तो वेदोंके आधारसे निकले हुए गौतम
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१४
धशिक्षा. वेदान्तादि दर्शन शास्त्र भी अशुद्ध क्यों नहीं होंगे, क्या मूल अशुद्ध होनेसे शाखा अशुद्ध नहीं होगी ? । अव्वल तो वेदमें भरी हुई हिंसा ही वेदकी अपवित्रता बता रही है। जिसने वेदको तत्त्व दृष्टिसे देखा होगा वह पुरुष कदापि वेदको शुद्ध नहीं कहेगा ।
____ लीजिये ! वेदकी खुशबूछागादीनां वधः स्वर्ग्यः । पापघ्नो गोस्पर्शः। द्रुमाणां पूजा । ब्राह्मणपूजनम् । पितृप्रीणनम् । वन्हो हुतं देवप्रीतिप्रदम् । इत्यादि
__ अर्थ-छाग ( बकरा ) आदि पशुओंका वध करना स्वर्म के लिये है। गो (गाय) का स्पर्श पाप नाशक होता है । वृक्षोंकी पूजा करनी चाहिये। ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये। पितृ लोगोंको तर्पण करना चाहिये । अग्निमें द्रव्यका होम करना देवोंकी प्रीतिके लिये होता है । इत्यादि।
ऐसे ऐसे असंबद्ध वाक्योंसे भरे हुए वेदको कौन पंडित पुरुष प्रामाणिक मान सकता है ? क्यों कि प्राणी की हिंसा करना सर्वथा अधर्म है तो फिर पशु हिंसा को धर्म बताने वाला वेद दयालु महात्मासे बना हुआ कौन स्वीकारेगा ?। पशुओंकी हत्या करना-बुरी हालतसे पशुओंकी जान निकालना और दया धर्मका दावा करना यह बात कैसे हो सकेगी? । सर्व प्राणीयोके प्राण एक समान हैं यानि सब जीवों को सुख प्रिय होता है और दुःख अप्रिय होता है फिर भी जीवोंका संहार करना इसको धर्म कौन मानेगा। अव्वल ईश्वरकी पूजा जीवोंकी रक्षा करनी ही है। जीवोंकी हिंसा किसी भी प्रकारकी वेदकार बतलाता हो लेकिन सर्व प्रकारेण पशु हत्या करना कुकर्म ही है।
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धर्मशिक्षा.
१५
क्या गौपा गौ विष्टाशिवा
हाता है ? क्या
अब दूसरे वाक्य पर आईये ! गायका स्पर्श करनेसे पापका नाश कैसे होगा? गायके स्पर्शसे पाप के ध्वंसको माननेवाले वेदकारने रासभ के स्पर्शको पापघातक क्यों न कहा ? क्या रासभकी तरह गौ पशु नहीं है ? और पशु क्या मनुष्यसे अधिक अधिकार रखता है ? यदि पशु मनुष्यसे अधम ही है तो फिर गौ का स्पर्श पापघातक कैसे होगा ?
अरे भोले वेदभक्तो : थोडी तो नजर खोलो! क्या गौ संसार चक्रमें भ्रमण नहीं करती है ? ! क्या गौ विष्ठादिक मलिन चीजोंको नहीं खाती है ? क्या गौ के बदन पर दंड , प्रहार नहीं होता है ? क्या गौ दुःखसे पुकार नहीं करती है ? क्या गौ को गोपालकी आज्ञामें नहीं रहना पडता है ? क्या गौके स्तनमेंसे लोग दूध नहीं निकाल लेते हैं ! क्या गौ दूसरे जीवोंको नहीं सताती है ? क्या गौ का मरण नहीं होता है । जब ऐसी क्षुद्रता गौमें रहा करती है तो फिर किस बातसे गौको श्रेष्ठ कही जाय ? जो अपने पुत्रके साथ भी दुराचार करती है वह गौ खुद आप पापके समुद्रमें डूब रही है तो हमारे पापको कैसे नष्ट करेगी। गौ की आत्मा यदि पापी न होती तो क्यों मनुष्य और देवके भवको छोडकर पशु जन्ममें आती । पुण्यसे उच्च गति और पापसे अधम गतिका होना क्या शास्त्रकार नहीं बताते हैं ? ।
अगर दुग्ध देनेसे गौ बडी कहलाती हो तो भैसने क्या अपराध किया ? । अगर गौ के पुच्छमें ३३००००००० देव रहा करते हैं ऐसा कहा जाय तो यहभी बड़ा उपहास ही है। विना सबूत ऐसी गप्पको कोई पंडित पुरुष नहीं मान सकता।
अब तीसरे वाक्यके ऊपर नजर कीजिये ! वेदकार वृक्षोंकी पूजा क्यों बताता है? क्या वृक्षभी देवता है ? एकेन्द्रिय जीवको भी
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धर्मशिक्षा. देवता कहना यह तो बडी भारी वेदकारकी चतुराई । "मुखमस्तीवि वक्तव्यम्" इस वचनका आदर करनेवाले वेदकारने तो बोलनेमें बिलकुल मर्यादा ही नहीं रक्खी । अस्तु ! पंडितोंके आगे ऐसे युक्तिरहित वाक्य हास ही को पैदा करते हैं।
अब चौथे वाक्यके ऊपर आई ये ! । ब्राह्मणोंकी पूजा बतानेवाला वेद ब्राह्मणोंका बड़ा भारी पक्षपाती मालूम पड़ता है। अन्यथा ऐसा ही कहना उचित था कि जो कोई सदाचारी ब्रह्मचारी मुनि महात्मा हो उसकी पूजा करनी चाहिये । क्या ब्राह्मण कपटी क्रोधी अभिमानी लोभी विषयानन्दी नहीं होते हैं ? बहुत, फिर ब्राह्मणकी पूजा करना क्यों लिखा?। जैसे वैश्यादि वर्ग महात्मा सदात्मा अधमात्मा ऐसे विभागोंमें विभक्त हैं वैसे ही ब्राह्मण वर्गभी प्रकट ही दिखाई देते हैं, फिर ब्राह्मणोंका ही पक्ष. पात क्यों ? वास्तवमें अगर कहा जाय तो दुर्गा चंडी आदि देवीयों के आगे निर्दय रीतिसे पशुओंका संहार करनेवाले ब्रा- . ह्मण लोगोंने सरासर दयाधर्म तो डुबा ही दिया है। देवीयोंके आगे पशुओंकी हत्या करके पशुओंके खूनसे ललाटमें तिलक करनेवाले विपोंने क्या दया देवीकी जान नहीं ली ? इस विषयमें अगर संदेह हो तो पूर्व देशमें जाकर देख लो ! यहतो मेरा कहना हो ही नहीं सकता कि सभी ब्राह्मण ऐसी हिंसा करते हैं। क्योंकि गुजरात मारवाड आदि प्रदेशोंमें दयालु ब्राह्मण भाई बहुत दिखाई देते हैं बहुत ब्राह्मण लोग नम्र एवं बड़े सज्जन हैं । परन्तु कहनेका मतलब यहो हैकि वेदकारने ब्राह्मणकी पूजा करनेको कोई वजह नहीं बतलाई । किस हेतुसे ब्राह्मण लोग वर्गों में बड़े हो सकते हैं ? । क्या वर्तमानमें ब्राह्मण लोग वैश्य लोगोंकी तरह नमक मिरच साबुन घृत तैल गुड कपास आदि सब रोजगार करनेको नहीं लग गये हैं ? । यदि कहा जाय कि
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धर्मशिक्षा.
ब्राह्मण लोग पंडिताईका कामभी करतेहैं, इसलिये ब्राह्मणजातिकी महत्ता कही जातीहै, तो क्या दूसरी जातियों में विद्वान लोग नहीं हैं ? ओसवालोंमें ऐसे ऐसे विद्वान् पडे हुए हैं कि जिन्होंकी तर्कशक्तिपर काशीके विद्वान्भी लटु होजातेहैं । औरभी ब्राह्मणोंको समजना चाहिये कि अपने पैरमें संन्यासी साधु लोगोंको नमस्कार न करावें । क्योंकि साधु कितना भी अपठित हो, लेकिन साधु साधुही हैं, ब्राह्मण कितना भी विद्वान् क्यों न हो ? लेकिन वह गृहस्थ ही है। गृहस्थको कभी साधुसे अपने पैरमें नमस्कार करानेका अधिकार नहीं है, अपने पैरमें साधुको नमस्कार कराने वाले ब्राह्मण पंडित लोग बिलकुल अनुचित ही करतेहैं, इसमें कौन क्या कहेगा ?। साधुलोगोंने संसारको छोड दियाहै, और ब्राह्मण लोग संसारमें फंसे हुए हैं। अब कहिये पाठकगण! पूजनीय कौन होसकता है ? साधु ही, न कि गृहस्थ पंडित । अतः साधुको नमस्कार करके अनन्तर उसको पढाना ब्राह्मण लोगोंको उचित है। विद्या मात्रसे कृतकृत्य होजाना यह बडीभूल है । विना सदाचारके केवल विद्यासे कुछ परमार्थ नहीं होताहै, अतः अपने उचित आचारमें रक्त होकरके ब्राह्मण पंडितोंको अपनी ब्राह्मण जातिमें ही गुरुपनेका दावा करना अच्छाहै, नकि सब वर्गों में । बस! अब सिद्ध होगया कि सदाचारी महात्मा साधु लोग पूजनीयहैं, न कि केवल ब्राह्मण जाति ।
अब पांचवे वाक्यके उपर आईये । मरे हुवे पितृ लोगोंको भोजनादि पहुंचानेके वास्ते ब्राह्मणोंका पेट भरना यह कितनी अज्ञानता? क्या ब्राह्मण लोग पिट निमित्त भोजन खाकर फरागत नहीं जाते हैं, जिससे वे लोग मरे हुवे पित लोगोंको भोजन पहुंचा सकें। संसारीजीव संसारमें भ्रमण करता हुआ, देवगति, मनुष्यगति,
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धर्मशिक्षा. तिर्यग्गति, और नरकगति इन, चार गतियोंमें पर्यटन करता है। अब देखिये ! मरे हुए, पितृ लोग यदि देवगतिमें गये होंगे, तब तो उन्होंको कवल-भोजन करनेकी जरूरत ही नहीं। क्योंकि
देवोंका शरीर हमारे शरीरकी तरह सात धातुओंसे भरा हुआ नहीं है, अतः मनुष्योंकी तरह वे कवल-भोजन नहीं करते हैं, किन्तु अमृत प्रवाहसे सदा ही वृप्त रहते हैं । फिर देवगतिमें गये हुए पितृ लोगोंको ब्राह्मणादिके द्वारा भोजन पहुं. चाना यह कितना अज्ञान? देवलोकमें क्या समृद्धि कम है ? क्या देवोंने कभी क्षीर देखी नहीं है ? । जब देवलोग अद्भुत संपसे संपन्न ही रहते हैं, तो फिर किस बातकी पूर्तिके लिये भोले लोग ब्राह्मणोंके पेटकी पूजा करते होंगे? ।
यदि मरे हुए पितृ लोग मनुष्य गतिमें गये होंगे,यानि किसीजगहपर मनुष्यही हुए होंगे, तौभी कौओंके साथ उनका संबन्ध कभी नहीं हो सकता, जिससे कौओंकी नातको जिमाना उचित होसके । खयाल करो! कि मनुष्य जन्ममें अवतरे हुए पितृलोग गर्भावस्थामें वा बाल्यावस्था में स्वजनोंने दिये हुए भोजनको कैसे प्राप्त करसकते है?। अभीतक यह चमत्कार हुआ ही नहीं कि जिस घरमें,मरे हुए पितलोग अवतरे हैं, उसके घर वालोंने (माता पिताओंने) पैदा हुए उस बालकके ऊपर गिरता हुआ भोजन-वस्त्रादि देखा हो। फिर ऐसी प्रत्यक्ष विरुद्ध बातोंके बतानेवाले वेद आदि शास्त्र, सुशास्त्र कैसे हो सकते हैं? यदि पित लोग मर करके तिर्यच योनिमें गये हों तौभी विप्रनुक्त भोजन उनको नहीं प्राप्त हो सकता, क्यों कि सब जीव निज निज काँके अनुसार सुख दुःख पाते हैं।
नरकमें गये हुए पितृलोग तो परमाधार्मिकसे पीडा पाते हुए। सदा ही दुःखी रहते हैं। वहां खाना-पीना आदि आरामका नाम ही
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धर्मविषा.
१९
क्या? । इस प्रकारसे समस्त प्राणी अपने अपने कर्मानुसार उसउस योनिमें पैदा होते हैं। और कर्मका फल भोगते हैं। इसलिये पितृ तर्पण श्राद्ध आदि सब पाखंड ही समजने चाहिये । भाइयो ! वार वार छांन करके पानी पीना चाहिये जिस किसीने जैसा तैसा कह दिया, उसको विना परीक्षा, नहीं मानना चाहिये । अब अन्तिम वाक्यके ऊपर आईये! अग्निमें होमा हुआ द्रव्य देवता
ओंको कैसे प्रीति कर सकता है। क्या अग्निमें होमा हुआ घृता. दि द्रव्य देवताके भोगमें आता हे ? यानि उस द्रव्यको देवता लोग खा लेते हैं ? अगर कहोगे, खालेते हैं, तो यह बात झूठ है, क्यों कि देवोंका शरीर हम लोगोंसे विचित्र प्रकारका है, वे लोग हम लोगोंकी तरह कवल भोजन नहीं करते । अनिमें होमा हुआ द्रव्य स्पष्ट नष्ट होता हुआ जब मालूम पडता है, तो फिर वह द्रव्य, देवोंके खानेमें कैसे आता होगा ? यह विचारणीय है। यदि अग्निको, देवोंका मुँह मानकर देवताओंको आहुत द्रव्यका भोजन सिद्ध किया जाय, तो भी किसी सुरतसे सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि उत्तम, मध्यम और अधम देवता लोग, एकही अग्निरूप मुंहसे द्रव्यका भोग करते हुए परस्पर उच्छिष्ट ही भोजन करनेवाले सिद्ध होंगे! वाह जी वाह ? क्या वेदकी खुशबू ? सचमुच विचारे देवता लोगोंको मुसलमानोंसे भी अधम बतानेवाला वेद सिद्ध हुआ । निदान मुसलमान लोग मिलकर एकही पात्रों खाते हैं, परन्तु वेदने तो एक ही मुँहसे देवता लोगोंका खाना मंजूर रक्खा । और भी देखिये ! कि एक शरीरमें बहुत मुख तो किसी जगहपर सुन भी सकते हैं, मगर, बहु शरीरमें एक मुँह सर्वथा असंभव ही है, फिर भी असंभव बातोंको बतानेवाले वेदकारको कैसा समझना चाहिये ? । तथा और भी सोचनेकी जगह है कि बहुत देवोंका एक ही मुंह माननेपर पूजा आ
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२०
धर्मशिक्षा.
दिसे आराधित किया हुआ एक देव, और निन्दा आदिसे अपमानित किया हुआ दूसरा देव, एक ही मुखसे पूजकनिन्दक पुरुषको अनुग्रह वा निग्रह वाक्य कैसे बोल सकेंगे? । पाठकगण ! जब देवताओंका मुंह अनि माना, तब देवताओंके दूसरे अवयव भी अग्निकी तरह कोई न कोई मून वस्तु माननेही पडेंगे, नबतो देवता लोग अदृश्य होही नही सकते ' फिर पिशाचादिको अदृश्य कहनेवाले सनातन वैदिक ग्रंथ कैसे प्रामाणिक माने जायँग? । क्याज्यादह कहें, इतना तो सोचो कि अग्निमें हरकिसमकी विष्टादि चीजें पड सकती हैं, फिर अग्निको देवोंका मुख मानना यह देवोंकी दुर्दशाही करनी है । ऐसे ऐसे बहुत अप्रामाणिक वचन वेदोंमे प्रकट हैं । तत्त्वदृष्टिसे देखते हुवे हमें नहीं मालूम पडता है कि वेदोंका रचयिता महात्मा विशुधज्ञानी हो। बस! वेदही जब अशुद्ध ठहरा, फिर वेदानुयायी दर्शन वा मतान्तर कैसे शुद्ध होसकते हैं। क्योंकि छद्मस्थ दृष्टिरागी पंडितोंने वेदोंकी श्रुतियोंके भिन्न भिन्न अर्थ निकाल कर वा समझकर दर्शन पद्धति खडी करदी है ! इसी प्रकारसे अद्यापि वैदिक धर्मोंकी धारा चली आरही हैं। और वर्तमानमें भी उसी प्रकार नवीन २ मजहब वेदानुसारी निकल रहे हैं। सुनिये ! इसी विषयमें एक कवि की कविता
" श्रुतयश्च भिन्ना स्मृतयश्च भिन्ना नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः " ॥१॥
अर्थः-श्रुतियां परस्पर भिन्न हैं, परस्पर विरोधग्रस्त हैं, और स्मृतियांभी परस्पर विरुद्ध अर्थको बता रही हैं । उन्होंका
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धर्माशक्षा रचयिता एक मुनि नहीं हैं भिन्न भिन्न विचारवाले भिन्न भिन्न मुनियोंसे उनकी रचना हुई है। एवंच एक मुनिसे रचना नहीं होनेके कारण किसका बचन सत्य ? किसका मिथ्या ? ऐसा संदेह पैदा होता है। अतएव श्रुति आदिमें प्रामाण्यका निश्चय नहीं होसकता है। इसलिये धर्म रहस्यका पता कहां मिले ? बस! शास्त्रों की पचति को छोडकर, व्यवहार पवित्र, महाजनेासे सेवित, दयादान देव पूजा प्रभृति प्रसिद्ध ही मार्ग आदरमें लाना चाहिये । देखो महाशय गण ! कविकी कविता, कविका हृदय खूब मालूम हुआ ? बिचारा कवि, श्रुतियों के विरोध देखकर उदासीन हो गया, और ऋषियोंके झगडों में नहीं फँसा-दृष्टि पक्षपाती नहीं बना। और श्रुतिस्मृतियोंसे असंतुष्ट हो कर वहांसे निकल गया, व्यावहारिक पवित्र मार्ग के ऊपर आया । देखिये ? अब कहां रही वेदवाणीकी मधुरता ? वेद वाणीके ऊपर पानी ही फिर गया। सुनिये ! पाठक वर्ग ! औरभी वेदकी कठिनता, जिसने अपना कर्तृत्वका स्पष्ट उल्लेख भी नहीं दिया, कैसे देखें ? देवे तो अपनी ढोल जितनी पोल प्रकट ही हो जाय, हा ? कैसी वेदने धूम मचादी ? कैसा वेदकार बहादुर ? हमें वेदकारकी चतुराई पर मुग्ध होना पडता है कि वेदका निर्माण करनेपर भी उसने वेदको अपौरुषेय सनातन पवित्र सिद्ध किया। ओहो? कैसा विचित्र इन्द्रजाल ? इस इन्द्रजालने तो ज्ञानी ऋषियोंको भी भ्रमित कर दिया, नहींतो जैमिनीय प्रजा, वेदको अपौरुषेय कैसे बोल सकती ?। न जाने जैमिनीयनेताको वेदकी पौरुषेयता मानने में क्या उदर पीडा होती थी? | क्या सर्वज्ञ सिद्धि प्रसंगसे डरकर वेदको अपौरुषेय माना । वाह ? बडी अक्ल । वेदको अपौरुषेय माननेपर क्या वह डर अब नहीं रहेगा ? अवश्य रहेगा । सुनिये ? जैमिनीयोंकी पुकार :--
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धर्मशिक्षा.
___ "नोदनाहि नूतं भवन्तं नविष्यंत सूक्ष्म व्यवहितं विप्रकृष्टमेवंजातीयकमर्थमवगमयति, नान्यत् किंचने-न्द्रियम्" ॥
अर्थ-नोदना (श्रुति) भूतकालिक, वर्तमानकालिक,भविष्यकालिक, सूक्ष्म, और व्यवधानमें आये हुवे, तथा दूर रहे हुवे, सभी पदाथोंका प्रकाश करती हैं। यह काम इन्द्रियोंसे नहीं होता हैं।
पाठकगण? ऐसी अद्भुत नोदना, तीनकालके पदार्थोंका निवेदन किसी पुरुषको अवश्य करेगी, अन्यथा उक्त वाक्य अप्रामाणिक क्यों न होगा? जब नोदना किसीभी पुरुषको त्रैकालिक चीजोंकों निवेदन करती है. तो वहीं सर्वज्ञता सिद्ध हुई। अहा ? "घट कुट्यां प्रभातम् " यह न्याय कैसा चरितार्थ हो गया ? क्योंकि सर्वज्ञ सिद्धि प्रसंगसे डरते हुए मीमांसकको वेदकी अपौरुषेयता मानने परभी सर्वज्ञ सिद्धि सिद्धांतका सत्कार किये विदुन छुटकारा नहीं हुवा।
प्रिय पाठक ? मीमांसक यदि मीमांसक होता, तो ऐसे भ्रम जालमें नहीं फंसता । किन्तु प्राज्ञेतर लोग अपना मतलब निकालनेकी चतुराई नहीं जानते हैं। कैसे जानें ? अज्ञानता और चतुराई परस्पर विरुद्ध है। जिन धर्मोंका प्रवाह असर्वज्ञोंसे चला है, उन धर्मोके अधिकारि लोगोंको चतुराई कहांसे प्राप्त हो सकती है? चतुराई [विज्ञान का समुद्र सर्वज्ञदेवही होते हैं। उन्हींका उपदेश सर्व प्रकारेण निर्मल होता है। वहां लेशमात्र भी दोष नहीं ठहरता, अतः उनके उपदेशको सादर पीनेवाले लोगोंको चतुराई [विज्ञान] सुलभ है, किन्तु मांसभक्षणका उपदेश करनेवाले जैमिनीको किस जगहसे चतुराई मिलसकती है ? । याग धर्मका
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फिर मनुष्या, यज्ञानुष्ठान, पशुमान धर्म समझ लि
धर्मशिक्षा. बहाना लेकर मांसभक्षणको उचित समझनेवाले जैमिनि मुनि का हृदय अवश्य वज्र कठिन होना चाहिये । जो मांस भक्षण, कुदरतसे मनुष्य जातिके भक्षण योग्य नहीं, तो फिर मनुष्योंके लिये मांस भक्षणकी नवीन कुदरत जैमिनिको कहांसे मिली, यज्ञानुष्ठान, पशुमारण विना क्या होही नहीं सकताथा, जिससे पशु मारणको जैमिनिने धर्म समझ लिया । हा! कैसा घोर पाप? क्या सनातन पवित्र धर्म, पशु मारणमें ही ठहरा है, याते पशु मारण रहित ही यागधर्मको ऋषिलोगोंने मंजूर न रक्खा। न जाने हिंसाको धर्म मानने वालोंने पशु रक्षाको क्यों धर्म समझा होगा ? और 'अहिंसा परमो धर्मः' इस वाक्यका सत्कार कैसे किया होगा!
देखिये ! ऋषिके सुभाषितयज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंनुवा । यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद् यज्ञे वधोऽवधः॥१॥
औषध्यःपशवो वृक्षास्तिर्यश्चः पक्षिणस्तथा। यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युच्छ्रिति पुनः॥२॥ मधुपर्के च यज्ञेच पितृदेवतकर्मणि । अत्रैव पशवो हिंस्या नान्यत्रैत्यब्रवीत् मनुः ॥३॥ एश्वर्थेषु पशून हिंसन् वेदतत्त्वार्थविद् द्विजः। आत्मानं च पशृंश्चैव गमयत्युत्तमां गतिम् ॥४॥ द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन् मासान् हारिणेन तु। और णाथ चतुरः शाकुनेनेह पंच तु ॥१॥
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धर्मशिक्षा. षण्मासान् छागमांसेन पार्षतेनेह सप्त वै । अष्टावणस्य मांसेन रौरवेण नवैव तु ॥२॥ दशमासांस्तु तृप्यन्ति वराहमहिषामिषैः । शशकूर्मयोर्मासेन मासानेकादशैव तु ॥३॥ संवत्सरं तु गव्येन पयसा पायसेन तु। वार्धाणसस्य मांसेन तृप्ति दशवार्षिकी ॥४॥
__ अर्थ-खुद ब्रह्माने यज्ञके लिये पशुओंको बनाया है। यह यज्ञ जगतकी विभूतिको पैदा करनेवाला है । इस लिये यज्ञमें पशुवध, वध नहीं है। औषधी पशुवृक्ष तियञ्च और पक्षि, यझके लिये मरणमें पहुंचे हुवे उच्च गतिमे जाते हैं मधुपर्क, यज्ञ, और श्राद्धादि कर्मोमें पशुओंकी हिंसा करनी चाहिये । इन पूर्वोक्त प्रयो जनोंमें पशुवोंको हणता हुवा वेद पंडित ब्राह्मण, अपनी आत्मा और पशुओंको उत्तम गतिमें गमन कराता है ।
दो मास पर्यंत मच्छ मांससे पितृलोगोंको तृप्ति होती है। और तीनमास तक हरिणके मांससे, चार मासतक मेढोंके मांससे, पांच मासतक जंगली कुक्कटके मांससे, छ मासतक बकराके मांससे, सात मासतक सफेद हरिणके मांससे, आठ मास तक काले हरिणके मांससे, नव मास तक रूरू अर्थात् एक प्रकारके हरिणके मांससे, दश पास तक जंगली सुवर और भैसाके मांससे, ग्यारह मास तक सुस्सा तथा कछुवाके मांससे, बारह मास तक खीर और गायके दूधसे तृप्ति होती है,
और बारह वर्ष तक बूढे बकराके मांससे पितृ लोगोंकी तृप्ति होती है ॥
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धर्मशिक्षा.
२५
वाचक ! ये श्लोक किसके हैं ? ये श्लोक उसी महर्षिके हैं, जिसकी तारीफ खुद वेदकारने भी की है, इसका नाम हैमनुजी।
वास्तवमें देखा जाय, तो वेदोंका बनानेवाला एक पुरुष नहीं है, किंतु बहुत ऋषियोंकी लिख छोडी हुई श्रुतियोंको, व्यासजीने संगृहीत–एकत्रित करके ऋग्-यजु-साम और अथर्ववेद, इन चार विभागोंमें विभक्त की; अब समझिये ! विचारक महाशय ! , कहां रही ईश्वरकी रचना ? । इन्साफभी ना कहता है कि निराकार ईश्वरसे शब्दरचना नहीं बन सकती । वही उपदेशक-वक्ता है, जो कि शरीर धारी है । ईश्वर जब शरीर रहित है, तो फिर ईश्वरके मुँहसे शब्द ध्वनिका निकलना कौन विद्वान् मान सकता है ? । अशरीरी ईश्वरको जब मुँह ही नहीं है, तो वह कैसे उपदेश दे सकता है ? , इससे यह साफ मालूम पडता है कि वेदोंका उपदेशक ईश्वर नहीं है, किंतु असर्वज्ञ - षि गण हैं।
जबतक घातक कर्मकी वर्गणाएँ आत्माके ऊपर लग रही हैं, तबतक वह पुरुष महर्षि-परमर्षि ही क्यों न हो ? , मगर असर्वज्ञही है। उसका स्वतंत्र उपदेश निःसंदेह प्रमाणरूपसे ग्रहण नहीं किया जा सकता । संसारमें रहे हुए पुरुषको तबही सवैज्ञता मिल सकती है, जब कि उसकी आत्मासे घातक कर्म सर्वथा नष्ट हो जाँय; मगर वैदिक विद्वानोंके हिसाबसे सर्वज्ञता पाना असंभवही मालूम पडता है, क्योंकि पहले तो कोई सच्चा सर्वज्ञका उपदेश ही नहीं है कि जिसके जरीयेसे कर्मोंको नष्ट करनेका उपाय मालूम हो सके, और तदनुसार प्रवृत्ति बन सके । कौन ऐ. सा देहधारी सर्वज्ञ, वैदिक पंडितोंने माना है कि जिसके उपदे
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धर्माशक्षा. शसे, प्रजाको धर्मका वास्तविक भान हो ? । हमारी समझमें, वैदिकसृष्टिसे एक भी सर्वज्ञ सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि वेदान्ति लोग तो खुद ही शरीरधारीको सर्वज्ञ माननेसे नाराज हैं । और नैयायिकोंके अभिप्रायसे जब मुक्ति ही जडमयी है, तो संसारस्थ-पुरुषको सर्वज्ञता कैसे मिल सकती है ? यह सीधी बात है कि मुक्ति पाने पर भी अगर सर्वज्ञ स्वरूप आत्मा न हो, तो संसारमें रहे हुए पुरुषको तो सर्वज्ञता मिले ही कहांसे ? अगर च संसारमें सर्वज्ञताका उदय माना जाय, तो मजाल नहीं है कि फिर वह सर्वज्ञता मुक्ति मिलने पर आत्मासे भाग जाय । इसीसे (जडमय मुक्ति वादसे ) यह सबूत हुआ कि नैयायिकोंके विचा: रसे ससारस्थ पुरुष कभी सर्वज्ञ नहीं हो सकता । बस ! आगया वैदिकोंके घरमें सर्वज्ञका भयंकर दुर्भिक्ष; बतलाईये ! अब कौन रहा सवैज्ञ-उपदेशक ? जो कि उपदेश द्वारा धर्मका प्रकाश कर सके, क्योंकि निराकार ईश्वरसे तो कुछ उपदेश आदि होही नहीं सकता, और असर्वज्ञ ऋषियों के उपदेश प्रामाणिक नहीं माने जा सकते । अब कहिये ! पाठक प्रवर ! वेद किसके बनाये ठहरे ? , वैदिक मतका सूत्रधार कौन रहा ? ; उक्त विचारके आंदोलनसे हमें यह जच गया है कि वेद, सर्वज्ञके किये हुए नहीं है - वैदिक मंत्रोका उपदेश, सर्वज्ञका किया हुआ नहीं है, और असर्वज्ञ ऋषियोंका वाक्य समूह रूप ही जब वेद सिद्ध हुआ, तो उसकी अप्रामाणिकता निवन्धन, औरभी वेदानुयायि शास्त्र, अप्रामाणिक कहे जाँय, यह स्वाभाविक है।
वास्तवमें अगर कहने दो ! और दिल नाखुश न हो तो वहांतक हमारी धारणा है कि वेद असर्वज्ञ रचित हैं, इतना ही. नहीं, बल्कि वेदोंके रचयिता, एक हो या अनेक हों, दयालु हृदय
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धर्मशिक्षा. वाले नहीं थे, नहीं तो वेदमंत्रोंमें विकराल हिंसाका बयान क्यों होता?
देख लीजिये ! फिर भी वेदमन्त्र" एष छागपुरो वाजिना पुष्णो भागो नीयते विश्वदेव्यः” । (ऋग्वेद संहिता)
यहाँसे लेकर दश पंक्ति तक ऋग्वेद पढनेसे वेदकारका दया हृदय, स्फुट मालूम पड़ जाता है ।
उक्त मंत्रका सारांश यह है
घोडेके पास यह बकरा, पूषा और दूसरे देवोंके लिये लाये हैं । इस घोडेका जो कुछ मांस, मखियां खायँगी, और जो कुछ घोडेके मारने वालेके नखोंमें रह जायगा, ये सब घोडे के साथ स्वर्गमें जायेंगे । इस घोडेके पेटमेंसे जो कुछ कच्चा मांस निकलेगा, वह स्वच्छ करके अच्छी तरह पकाना । घोडेके शरीरमें ३४ पांसलियां हैं, इनमें छुरा अच्छी तरह फेर फेरके, कोई हिस्सा बि. गडने न पावे, अंग अलग अलग निकालिये ।
इस प्रकार, ऐतरेय-तैतरेय--शतपथ ब्राह्मण वगैरह बहुत स्थलों में पशु-हत्या करनेका घोर वयान किया है । यहाँ कितना लिखा जाय; चारों वेदोंमें, भूरि भूरि, पशुवध करनेके मन्त्रोंको देखते हुए भी जिन महाशयोंका हृदय, वेदोंके ऊपर वैसेका वैसा मोहित बना रहता है, और वेदोंकी प्रामाणिकताके विश्वाससे फूला नहीं समाता, उसमें उनका कोई अपराध नहीं है, अपराध केवल दुराग्रहका है, जो कि अच्छे अच्छे विचारवंत लोगोंके भी गलेको पकड बैठा है।
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धर्मशिंशा. __ महानुभावो ! धर्म एक दुनियाँमें आलादर्जेकी चीज है। धर्मके बराबर और कोई अमृत नहीं, और अधर्मके समान कोई विष नहीं है, अब समझिये ! कि अगर अमृतकी जगहपर भ्रमसे विषका सेवन किया जाय, तो कितनी दुर्दशा होगी?। अतः पुख्ता रीतिसे अमृत और विषका फरक समझकर पीछे अमृतका ग्रहण करो, ! और विषको छोडो ! । अपने बाप दादे यदि विष खाके मरते आये हों, एतावता अपने को भी विष भक्षण करना चाहिये, यह इन्साफ नहीं कहाता है । इस लिये अक्ल मं. दोंको चाहिये कि पहले अपना मन, मध्यस्थ-उदार बनावें, और सरल रीतिसे, धर्म-रत्नकी खोज करें । जिज्ञासु
बात तो सही है । हिंसा वगैरह दोषोंसे भरा हुआ शास्त्र, कैसे सुशास्त्र कहा जा सकता ?। अब तो एक बौद्ध दर्शनके ऊपर कुछ २ विश्वास रहता है, क्योंकि अब बौद्धदर्शनसे अतिरिक्त कोई दर्शन, सत्य रूपसे मालूम नहीं पडता । निदान जैन दर्शन भी बौद्ध दर्शनकी एक शाखा रूप ही सुना जाता है । वह बौद्ध दर्शन भी यदि अप्रामाणिक होगा, तब तो धर्मका नाम ही कैसे रहेगा ? । हा ! बडा कष्ट, क्या धर्म रहिल ही जगत् होगा। हा दैव ! सत्य धर्मका. यदि बिलकुल अभाव होगा, तो इस संसारका शरण कौन होगा ?, मोक्षकी व्यवस्था कैसे बनेगी ?, परलोककी विचित्रता भी कैसे सिद्ध होगी ?, ज्यादह क्या कहें, पहले जीव ही पदार्थको ठहराना कठिन होगा, बस ! पहुँच गयी नास्तिकोंकी कीर्ति आवाज । ज्ञानी
चार्वाक ( नास्तिक ) का नाम भी मत लो !, वह तो
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मक्षिक्षा. जीव, पुण्य, पाप, परलोक, मोक्ष वगैरह अदृष्ट पदार्थोंको बिलकुल नहीं मानता है । 'नास्तिकं तु न दर्शनम् ' इस वाक्य प्रघोषसे भी नास्तिक मत, दर्शनोंकी गिनतीमें है ही नहीं। क्योंकि नास्तिकोंके विचार सरासर झूठे हैं । दुनियाँमें, एक राजा, एक दरिद्र, एक शेठ, एक नौकर, एक सुखी, एक दुःखी, एक धनी, एक गरीव, एक पंडित, एक मूर्ख, इत्यादि अनंत विचित्रताएं जब प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं, तो सिवाय पुण्य, पाप, ये विचित्रताएं किससे सिद्ध की जा सकती हैं ? । इसलिये इस स्फुट विषयमें ज्यादह दलीलें देनी जरूरकी नहीं समझते । _अब रहा बौद्धदर्शन, उसके भी सिद्धान्त समालोचना करनेपर नहीं ठहर सकते । बौद्धोंके हिसाबसे सब चीजें सर्वथा क्षणिक हैं; मगर एक ही चीज, बहुत दिनपर, बहुत महीनेपर,
और बहुत वर्ष पर भी जब बराबर ' वही यह है '. इस आकारसे पहचानी जाती है, तो यह बात, सब चीजोंको सर्वथा क्षणिक मानने पर कैसे बनेगी ? । क्या पहले क्षणमें देखा हुआ घट, दूसरे क्षणमें है ही नहीं ?, अगर यही वात हो, तब तो जगद्व्यवहार लुप्त हो जायगा।
बालक भी यह समझता है कि थोडे दिनोंके लिये किसी मनुष्यके पाससे कोई चीज ली जाती है, वह चीज वापीस उसको अवश्य देनी पड़ती है, परंतु बौद्धोंके विचारसे लेनेवाला पुरुष, वह चीज मालिकको वापीस कैसे देगा ? यही क्यों न कह देगा? कि आपकी चीज लेते वक्त ही उड गई, यह चीज तो दूसरी है।
दूसरे क्षणमें सर्वथा वस्तुका नाश मानने वालोंने व्यवहार देवताका मुँह तोड दिया है। अगर बौद्धोंका यह अभिप्राय हो कि सभी चीजें उत्पन्न होनेके समयमें क्षण-विनश्वर स्वभावको लेकर ही पैदा
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धर्मशिक्षा. होती हैं, यदि यह न माना जाय, और यह कहा जाय कि पैदा होती हुई वस्तुका यह स्वभाव ही है-'थोडे समयतक ठहरना;' तब तो वस्तु मात्र नित्य ही बनेंगी-किसी वस्तुका नाश न होगा, क्यों कि मुद्गर-कुठार वगैरह के प्रहार होने परभी थोडे समय तक ठहरना' इस स्वभाववाली वस्तुमात्र उस वक्त कैसे नष्ट हो सकती हैं ?, निदान, प्रहार होते वक्त भी वस्तुमें उक्त स्वभाव मौजूद ही है । इसके उत्तरमें इतना ही कहना काफी है, कि क्षण मात्र रहनेके स्वभावको लेकर ही पैदा होती हुई वस्तु, दूसरे क्षणमें कैसे नष्ट हो सकेगी ?, क्या दूसरे क्षणमें, वस्तुका क्षणमात्र रहनेका स्वभाव कौएं खा जायँगे ? । देखिये ! प्राज्ञ वाचक ! कैसा माकूल उत्तर ?।
वास्तवमें तो उत्पाद--विनाश और धौव्य, इन तीन स्वभावोंसे युक्त ही वस्तु वस्तु कहलाती है, यानी वस्तुमात्रमें ये तीन स्वभाव सदातन रहा करते हैं, विना इनके वस्तुत्व ही नहीं बन सकता, यह बात अगाडी जा के खोल देंगे । वस ! इस सिद्धान्तकी छत्रछायाका यही प्रभाव है कि वस्तु मात्र, नये नये पायोंसे उत्पन्न, और पूर्व पूर्व पर्यायोंके विनाश होनेसे विनष्ट हुआ करती हैं । और मृत्तिका-सुवर्ण वगैरह अन्वयि द्रव्यसे, ध्रुव-सदातन भी कहलाती हैं ।
ज्ञानाद्वैत वादि बौद्धलोग, जगत् में ज्ञानहीको देखते है, इनके विचारसे, सिवाय ज्ञान और कोई चीज नहीं है । इसके जवाबमें यही पूछते हैं, कि पृथ्वी, पानी, आग, वगैरह प्रत्यक्ष देखाती हुई चीजें क्यों नहीं हैं ?-किस सबूतसे बाहरकी चोजोंका निषेध करते हों ! ; कहोगे ! प्रत्यक्षसे, तबतो अपनी छरी से अपना शिर काटा ऐसा हुआ; क्यों ? , क्यों क्या ?, प्रत्यक्षही
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धशिक्षा.
३१ उलटा बाहरकी चीजोंको हाथमें लिये हमारे तुम्हारे आगे फिरता है, फिर भी उन्हें नहीं देखना, यह कितनी अंधता कही जाय ? । प्रत्यक्ष प्रमाण ही जब वाहरकी चीजोंको साबीत कर रहा है तो इसमें और प्रमाणकी कोई जरूरत नहीं है। जी ! प्रत्यक्ष तो भ्रान्त है, क्यों ?, आपहीका-जो यह बोल रहे हो!, यह ज्ञान क्यों भ्रान्त नहीं ? । बाह्य चीजोंके द्वारा व्यावहारिक और पारमार्थिक सभी प्रवृत्तियां बन रही हैं, तिसपर भी इन्हें एकदम उडा देना, यह बडा भारी प्रत्यक्षविरोध दोष बौद्धोंके ऊपर बुंबारव कर रहा है।
यह तो निर्विवाद बात है कि ज्ञान मात्र, किसी न किसी विषयको पकडे ही रहता है, नहीं तो लोगोंकी प्रवृत्ति नहीं बनती। अगर कहोगे ! कि भ्रमज्ञानका तो कोई विषय नहीं है अर्थात् भ्रमज्ञान निर्विषय है, तो यह कहना गलत है, क्योंकि रस्सीमें साँपका जो भ्रम होता है, उस भ्रममें साँप विषय पडा है, यदि कहोगे ! कि जिस जगहपर यह ज्ञान हुआ है, वहां कहां साँप बैठा है ? वहां तो रस्सी है, इस लिये भ्रमज्ञान झूठा ज्ञान है; तो समझो ! कि इस ज्ञानको जब झूठा ज्ञान कहते हो तो इससे अतिरिक्त और कोई सच्चा ज्ञान अवश्य होना चाहिये, नहीं तो ' यह झुठा ज्ञान है ' ऐसा व्यवहार कैसे होगा।
जब भ्रान्त और अभ्रान्त ज्ञानकी व्यवस्था मंजूर रक्खी गई है, तो फिर बाह्य चीजोंकी सिद्धि, बौद्धोंकी गोदहीमें भली भांती आ बैठी समझी जाती है। क्योंकि भ्रान्तज्ञान वही है, जो कि सद्भूत विषयको छोड, दूसरे ही विषयको पकड बैठे । जैसे रस्सीमें साँपका ज्ञान । रज्जुके ऊपर नजर किये हुए मनुष्यकी ( रज्जुका उद्देश करके ) ' यह साँप है' ऐसी जो समझ होती
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धर्मशिक्षा. है, इसका नाम है-भ्रमज्ञान । और अज्रान्त यानी सच्चा ज्ञान वही है, जो सच्चे विषयको, अर्थात् वस्तुको वस्तुस्वरूपसे ग्रहण करे, जैसे रज्जुमें ' यह रज्जु है ' ऐसी समझ । घटको घट, कपडेको कपडा, पानीको पानी, वृक्षको वृक्ष, पुरुषको पुरुष और स्त्रीको स्त्री समझना, यह अभ्रान्त-सच्चा ज्ञान है ।
अभ्रान्त ज्ञानका जन्म, बाहरकी चीजोंकी सिद्धिके लिये होता है । कहांतक कहें, भ्रमज्ञान और स्वप्नज्ञान भी अन्यत्र (दूसरी जगहमें ) साक्षात् की हुयी चीजहीको विषय करता है । सर्वथा अप्रतीत वस्तुका, न स्वप्नज्ञान, न तो भ्रमज्ञान होता है, यदि सर्वथा असद्भुत चीजका स्वप्नज्ञान वा भ्रमज्ञान होना मंजूर रखते हो ! तो कहिये ! गदहेके सींगका भी स्वप्नज्ञान वा भ्रमज्ञान क्यों न होगा ? इसलिये अभ्रान्तज्ञानकी तरह वान्तज्ञान भी बाह्यवस्तुओंकी सिद्धि करने में प्रबल सबूत है, यह क्यों न माना जाय ? बस ! ज्ञानहीसे बाह्यचीजें आपही आप सिद्ध हो जाती हुई ज्ञानाद्वैत मतको उडा देती हैं !
शून्यवादि--बौद्धोंके विचार तो विना शिर-पैरके आपही आप धूलीमें लेट जाते हैं। शून्य--वादको साधते हुए बौद्ध, अपनी वाक्य प्रणालीको अगर शून्य ही कहेंगे, यानी 'हमारा वचन कुछ चीज नहीं है। ऐसा स्वीकार करेंगे, तो कौन विद्वान् आशा रख सकता है कि उनके शून्य वचनोंसे शून्यवाद सिद्ध हो जाय ?। अगर च अपने वचनोंको सद्भूत मानेंगे, तब तो शून्यवाद रहा ही कहां ?।
आकाशसे गिरते हुए वज्रको देख, बडे डरसे इधर उधर भागते हुए भी शून्यवादि-बौद्धने, शून्यवाद--सिद्धांतको कायम किया, यह कितना आश्चर्य ? ।
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धर्मशिक्षा.
शून्यवाद अगर सच्चा हो, तो पत्थर वा वज्र, कोई भी आकाशसे क्यों न गिरे ? डरना क्यों चाहिये ?, गिरता हुआ शून्यरूप वज्र, हमें क्या कुछ कर सकता है ? मगर नहीं, ये सब बौद्धोंके विचार, प्रलाप मात्र हैं, इनसे तो फिर भी वेदानुयायी, छोड ब्रह्मवादी, दर्शन कुछ अच्छे हैं, जो कि इनकी तरह खुली आँखोंमें एकदम भरमूठी धूल नहीं फेंकते * ।
स्वामी दयानन्दजी अपने सत्यार्थप्रकाशमें लिखते हैं कि जैन और बौद्ध दर्शन, समान हैं, क्योंकि जैनदर्शनकी तरह बौद्ध दर्शन भी स्याद्वाद-सप्तभंगीको मान देता है । मगर स्वामीजीका यह कथन सरासर झूठ है । सिवाय जैन दर्शन, किसी दर्शनमें जा के निगाह कीजिये !, और सब दर्शनोंके ग्रन्थ, पत्र उलट पलट करके बड़ी सावधानतासे देखिये !, हर्गिज यह बात नहीं मिल सकती कि जैनदर्शनसे अतिरिक्त मतवालोंने स्याद्वाद सिद्धान्तके सत्कार करनेका सौभाग्य प्राप्त किया हो । स्वामीजीने तो क्षुद्र द्वेषानल जगाकर जैनियोंको ऊपर, नास्तिक शब्दका व्यवहार तक, निन्दा वर्षाई है । मगर याद रहे कि निन्दकोंकी निन्दासे सत्य वस्तुके अंशमै कुछ भी आँच नहीं आती। नास्तिक कहनेसे यदिनास्तिक हो जाते होंतो बतलाईए ! दुनियाँमें, विना नास्तिक हुए कौन बचेगा?। जिस किसीको नास्तिक कहनेकी बुद्धि, स्वामीजीको हर्गिज नहीं होती, अगर व्याकरण-तद्धित सूत्रका अभ्यास किया होता । मगर हजारों प्रकारके कपट प्रपञ्चोंमें अभ्यस्त भी विद्या चली जाती है, तो फिर मुख चुम्बित विद्या की तो बात ही क्या करनी? । यह तो साधारण भी व्याकरणपाठी बालक जान सकता है कि परलोक, पुण्य, पाप वगैरह अदृष्ट ची.
* यह कयन पदार्य विद्याके अभिप्रायसे है।
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२४
जोंको जो न मानता हो, वही नास्तिक है, उसीमें अन्वर्थ नास्तिक शब्दका व्यवहार हो सकता है । इतनी छोटीसी भी बात स्वामिजीके ध्यानमें नहीं थी, यही इनकी विद्वत्ताका नमूना देख लीजिए। जैन दर्शनमें जीव, पुण्य, पाप, परलोक, और मोक्ष वगैरहका जैसा बयान किया है, उसका स्वल्प बिन्दु आगे पाठकोंके सन्मुख अ. स्थित करेंगे, ताकि लोग समझ सकें कि आस्तिक्य की सच्ची सीमा अगर कहां ही भी विश्रान्ति लेती है, तो वह जैनदर्शन ही है।
वैदिकदर्शनोंसे जैनदर्शनमें जमीन आस्मान जितना फरक होने में अगर कोई भी प्रधान कारण है, तो स्याद्वाद-सप्तभंगी है। इसीसे वैदिक और जैनदर्शनके बीचमें पहाड जितना अन्तर रह जाता है, जब यह बात पक्की है, तो सोचो ! कि वही जमीन आस्मान जितना फरक करनेवाला हेतु, जैन और बौद्ध दर्शनके बीचमें क्या नहीं पडा है ?, क्या उसे कौएं खागये हैं । जब बौद्धाचार्य, स्यामादको बडी क्रूर नजरसे देखते हैं, तो फिर वैदिक दर्शनोंकी तरह बौद्धदर्शनभी जैनदर्शनसे हजारों कोश दूर ही क्यों न कहा जाय ? । स्याद्वाद क्या चीज है ? इस बातको सूक्ष्म नजरसे स्वामीजी यदि जानते होते, और बौद्ध दर्शनका शास्त्र एकभी थोडासा पढे होते, तो स्वामीजीकी इतनी अज्ञानता जगत् जाहिरमें नहीं आती। ___ जैनदर्शन और बौद्धदर्शन एक नहीं है, इस विषयमें स्याद्वाद नयही जब जोर शोरसे सिंहनाद कर रहा है, तो अल्पज्ञोंके लिखे हुए ऊटपटांग इतिहासका खरनाद कौन अक्लमंद सुनेगा ?1 याद रहे कि एक दो छोटीसी बातें मिलने पर दो चीजें, एक कभी नहीं मानी जा सकतीं ।
बौछदर्शनका प्रणेता बुद्धदेव, जब अपूर्णज्ञानी था, तो
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३५
शिक्षा. उसके उपदेशमें प्रामाणिकता किस जगहसे आसकती है ?। जिसके भावनेत्रमें तिमिर फैला हो, वही, बौद्धदर्शनको निर्दोष देख सकता है, मगर थोडाभी निपुण विचार करनेवाले महाशय, उक्त दलीलोंसे बौद्धदर्शनको असर्वज्ञमूल,और अप्रामाणिक समझते हैं।
हमें निष्पक्षपातसे यह कहना जरूरी मालूम पडता है कि अन्यदर्शनोंमें-दूसरे धर्मोमें जो अच्छी अच्छी बातें दिखाई देती हैं, वे जैनदर्शन-अर्हत्सवचन रूपी महासागरसे विविध नय रूप तरंग लहरीके वेगसे उडी हुई बन्दियां हैं।
एक एक नयको सावधारण रीतिसे पकड कर निकले हुए बौद्ध और वैदिक दर्शनोंके परस्पर भयंकर कलह होनेके समयमें, निरवधारण-सापेक्ष रीतिसे तमाम नयोंको मान देनेवाले महाराजा श्री जैनदर्शनने बीचमें आके स्याद्वाद-सिंहनादको फूंक कर, अपने ओर विजय कमलाको खींच ली । और दिशोदिशि अपना निष्कटंक, अचल साम्राज्यका सिक्का बैठाया ।।
इससे पाठक वर्ग जान गये होंगे कि जैनधर्म, बौद्धधर्म की शाखा नहीं । कहां गांगा तैली ? और कहां राजा भोज ? कहां बौद्ध धर्म ? और कहां जैन धर्म ? । एक दो बातें मिलनेसे यदि जैन और बौद्ध दर्शनको एक कहा जाय, तो कह दीजिये ! वैदिक दर्शन और बौद्धदर्शनको भी एक, और सुन लीजिये ! उ. नमें मिलती हुई एक सरीखी संख्याध बातें१ न्याय सूत्रका प्रणेता गौतममुनि है, और बौद्ध दर्शनका भी
प्रणेता गौतममुनि है। २ न्याय दर्शमें ज्ञान-शब्द वगैरहको क्षणिक माना है । और
बौद्धदर्शनमें तो वस्तु मात्र क्षणिक है ही है।
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धर्मशिक्षा ३ न्यायदर्शनमें सर्वज्ञ ईश्वर माना है, और बौद्धदर्शनमभी ___ सर्वज्ञ ईश्वर माना है। ४. न्यायदर्शनमें प्रमाण प्रमेय व्यवस्था रक्खी है, और बौद्धदर्श
नमें भी प्रमाण प्रमेय व्यवस्था स्वीकारी है। ५ न्यायदर्शनमें मूर्ति पूजा मानी है, बौद्धदर्शनमेंतो मूर्ति पूजा
प्रसिफ ही है। ६ न्यायदर्शन, वीतराग अवस्था पानेसे मोक्ष प्राप्ति बतलाता
है । बौघदर्शनकी भी यही मर्यादा है। ७ न्यायदर्शनमें तर्क वगैरहको प्रमाण रूपसे नहीं माना है, बौ
द्धदर्शनभी तर्क वगैरहको प्रमाण नहीं कहता है। ८ बौछदर्शनमें हेतुके जो तीन रूप मानें हैं, वे तीन रूपभी
न्यायदर्शनमें माने गये हैं। ९ बौद्धदर्शनमें ज्ञानके प्रति विषयको कारण कहा है, न्याय,
दर्शनमेंभी इस बातको मंजूर रक्खा है। १० न्यायदशनमें, अर्थापत्ति अभार वगैरहको भिन्न प्रमाण नहीं
माना है, इसी मर्यादा में बौद्ध दर्शनभी बैठा है। ११ काणाददर्शनमें प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही प्रमाण माने गये
हैं, उसी तरह बौद्धदर्शनभी उक्त दोनों प्रमाणोंको मानता है। इसी प्रकार सब दर्शनोंके साथ बौद्धदर्शनकी कई कई,
बातोंसे समानता स्पष्ट ही दिखाई देती है, फिर भी जैसे वैदिकदर्शनोंसे बौद्धदर्शन भिन्न ही है, वैसे जैनदर्शन भी. बौद्धदर्शनसे बिलकुल भिन्न दर्शन है ।
वाचक वृन्द! एकान्तवाद.रूपकी चडमेंफंसा हुआ बौद्धमत, जनर्दशनके साथ एक तराजूमें हगिंज नहीं बैठ सकता । अपनी
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माताका पेट तोडकर जन्म लेनेवाले और मांस भक्षणका उपदेश करनेवाले बुद्धने, अकारण करुणा रत्नाकर,सर्वज्ञ, अनि परमात्मा देवके शासनसे एकान्त विपरीत ही सृष्टि प्रकट की. है, यह बात पहिले संक्षेपसे विदित हो चुकी है । अतः परस्पर विरोधी धर्मोंसे दुःखी होते हुए महाजनोंको परम सत्य सनातन श्री वीतरागधर्मका शरण लेकर अपना दुःख मिटाना चाहिए। .... : ___सब दर्शनोंसे विलक्षण, परम शुद्ध, जैनशासन, सांसारिक वासनारूपी सांपनीको वश करनेमें एक जांगुली मंत्र है।
परस्पर किसी प्रकार विरोध नहीं होनेसे, तथा सर्वज्ञ कथित होनेसे, एवं दया, दान, शील, तप, भावना, शम, दम, परोपकार आदि पवित्र उपदेशरूप अमृतकी मुसलधारा वर्षानसे, और विद्वान् मुमुक्षु महात्माओंके आदर मार्गमें आनेसे, जैनधर्म, परम सत्य-प्रामाणिक सिछ होता है।
संसारमें सैंकडो धर्म प्रचलित होने पर भी परम सुखको देनेवाला एक अनादि धर्म अवश्य होना चाहिए, और उसीका नाम है-चीतरागधर्म । जैनधर्मकी पवित्रता और प्राचीनताके विषयों जैनोंके मन्तव्यही मजबूत सबूत हैं; क्योंकि जिस दर्शनके सिद्धान्त, बिलकुल प्रामाणिक हैं, वह दर्शन, पवित्र और प्राचीन सिद्ध होता है ।
जैनागम, जब अनेकान्तवादका प्रतिपादन कर रहा है, तब बौद्ध और वैदिक दर्शनोंने, एकान्तवादको खडा किया । सब दुनियाँ, एकान्तवादमें गुम हो गई है, तब एक ही जैनशासनने सब चीजोंके उपर स्याद्वादनयका सिक्का बैठा दिया। स्याद्वादही जैनदर्शनका अटल लक्षण है। " स्याघाद क्या चीज है ? " इस जिज्ञासाको अच्छी तरह शान्त करनेकी ताकत इस लघु लेखमें नहीं
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१०
वर्मशिक्षा है, तो भी संक्षेपसे यही समझना चाहिये कि एकही वस्तुमें, सच्च, असत्व, वगैरह अनंत धर्मोको स्वीकारना उसका नाम हैस्थाद्वाद। जैसे एकही पुरुष, पुत्रकी अपेक्षा पिता, और पिताकी अपेक्षा पुत्र होता है, उसी तरह वस्तुमात्र, स्वरूप अर्थात् अपने रूपसे सत्, और दूसरे रूपसे असत् हैं । भिन्नभिन्न अपेक्षाओंसे भिन्नभिन्न धर्मोको एक वस्तुमें मानना यही स्याद्वाद शब्दका मतबक है।
और भी देखिये ! समस्त वस्तु प्रतिक्षण पळटती रहा करती है-पूर्वपरिणामको छोडकर दूसरे परिणाममें आती रहती हैं। जैसे कुंडलको भांग कर कटक ( कडा) बनाया जाता है, उसमें पहला कुंडलरूप नष्ट हो जाता है, और दूसरा कटक (कडा) रूप पैदा होता है। लेकिन उन दोनों परिणामोंमे सोना तो वैसा का वैसाही रहता है । इसी दृष्टान्तसे सब वस्तु, पूर्वपरिणामको छोड नये नये परिणामों में दाखिलहोती हुई, सदातन चले आते (मृत्तिका वगैरह) द्रव्यको नहीं छोडती हैं; बस ! इसी अनुभवसे, उत्पत्ति-विनाश और धौव्य इन तीनोंसे युक्त समस्त पदार्थ समझने चाहिये, और यही स्यावाद कहलाता है । कोई पामर लोग कहते हैं कि यह स्याद्वाद संशयरूप बन गया, क्यों कि एक ही वस्तुको सत् भी कहना और असत्भी कहना यही संदेहकी मर्यादा है, जबतक सत् और असत् इन दोनों से एक (सत् वा भसत) निश्चित न बने, तबतक सत् असत् इन दोनों रूपसे एक वस्तुको समझना,यह सच्चा ज्ञान नहीं कहलाता। लेकिन यह समझना पामरोंका भ्रमरूप है, क्योंकि एकही वस्तुमें सत्त्व और अ. सत्त्व ये दोनों धर्म वास्तविक हैं । संशयतो वही कहलाता है कि 'यह पुरुष झेगा वा वृक्ष होगा ? यानी पुरुषपन और वृक्षपन
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पक्षिा इन दोनोंमेंसे एकका भी निश्चय नहीं होनेसे उक्त ज्ञान संशय कहलाता है। प्रकृतमें वस्तुमात्र, सत् रूपसे भी निश्चित हैं, और असत् रूपसे भी निश्चित हैं; जैसे अग्निमें अग्निपन और द्रव्यपनका ज्ञान संशय नहीं कहलाता है, वैसेही एकही वस्तुमें सत्पन
और असत्पनका ज्ञान होना उसे कौन संशय कहेगा । जब एक ही पात्रमें कोई भाम उष्ण, और कोई भाग शीत मालूम पडनेसे एकही पदार्थमें भिन्नभिन्न प्रदेशधारा, शीत और उष्ण इन दोनों धर्मोंका रहना मंजूर रक्खा जाता है, तो फिर एकही वस्तुमें भिन्नभिन्न अपेक्षाओंसे सत्त्व और असत्व इन दोनोंको माननेमें क्या हर्ज है ? ।
क्या रघुनाथ शिरोमणि वगैरह पंडितोंने, एक ही वृक्षमें, वृक्षके मूलको लेकर कपि (बंदर)के संयोगका अभाव अथवा संयोगिका भेद, और शाखाको लेकर कपि संयोगकी विद्यमानता यानी संयोगिपना नहीं माना है ?। जब संयोगिपना और संयोगिका भेद इन दोनों विरुद्ध धर्मोको, अनुभवसे एकही वृक्षमें सिद्ध रक्खा तो फिर सत्व और असत्व इन धर्मोको परस्पर विरुद्ध क्यों समझना चाहिये ?, और एकही वस्तुमें उन्हें क्यों न मानना चाहिये।
क्या वस्तु केवल भावरूप सिद्ध हो सकती है.? इर्गिज नहीं, अगर केवलभावरूप ही वस्तु मानी जाय, तो एक घट वस्तु, पटरूप-हस्तिरूप-अश्वरूप हो जायगी। सर्व प्रकारसे भावरूप माननेमें, एक ही वस्तुको, विश्वरूप होनेका दोष कभी शान्त न होगा । इस लिये सब वस्तुएँ अपने रूपसे अर्थात् अपने द्रव्य-क्षेत्रकाल और भावरूपसे सत्,और पररूपसे यानी परकीय द्रव्य-क्षेत्रकाल और भावरूपसे असत् माननी चाहिये । जैसेकि द्रव्यसे, घट पार्थिव रूपसे है मगर जलरूपसे नहीं है। क्षेत्रसे, अजमेरमें बना हुआ घट, अजमेरका कहलाता है, किंतु जोधपुरका नहीं कारसे,
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शिक्षा हेमंतऋतुमें चना हुआ घट, हैमन्तिक कहाता है, लेकिन वासन्तिक नहीं । भावसे, शुक्लघट शुक्ल है, परन्तु काला नहीं। __.. पाठक मंडल ! इसका नाम स्याघाद है । स्याफादको माननेवाले जैनाचार्योंका, समस्त बौद्धादि दर्शनोंको स्याद्वादरूपी प्रचंड बाणोंसे परास्त करके त्रिलोकोमें फैलाया हुआ अपना प्रताप मशहर है । दरअस्ल में जैनोंके सिद्धान्त पूर्ण मजबूत-परमसत्य होनेसे, उनके उपर किसी दर्शनका आक्षेप सफल नहीं हुआ। जैनदर्शनका सिद्धांत यहाँ लेशमात्र यदि प्रकाश किया जाय, तो भी यह प्रबंध मोटा हो जाता है, इसलिये संक्षेपसे समझना चाहिये कि जैनधर्ममें दो प्रकारके पदार्थ माने गये हैं-जीव, और अजीव । तथा विस्तरसे पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, बंध, निर्जरा,
और मोक्ष, ये 'नवतत्व हैं। __उनमें जीव पदार्थ,चैतन्य स्वरूप है । जीवके विषयमें प्रत्यक्षही प्रमाण मजबूत सबूत है । सब प्राणी मुख दुःखके अनुभवकारा जीवका प्रत्यक्ष करते हैं। वह जीव,अपने शरीर मात्र रहा हुआ है। शरीरसे बाहर जीवको माननेवाले (आत्माको व्यापक माननेवाले) लोगोंकी बड़ी भूल है । क्योंकि आत्माके सुख दुःख वगैरह गुण, शरीरहीमें मालूम पडते हैं । यह बात होही नहीं सकती कि-जिस वस्तुका धर्म,जिस जगहपर मालूम पडा है,वह वस्तु,उस जगहसे अन्य स्थलमें भी ठहर सके । 'दृष्टान्त-जैसे घट, उतनीही जगह पर रह सकता है कि जितनी जगह पर, घंटके रूपादि गुण दिखाई देते हों; उसी रीतिसे आत्माके सुखादि गुण, जब शरीरही में प्रतीत होते हैं, तो फिर शरीरसे अन्यत्रभी आत्माको मानना यह भला ! भ्रम नहीं तो. दूसरा क्या ?। जीव अनन्त हैं, उनमें भव्य जीवही मोसमें जा सकते हैं, अभव्य जीवोंके लिये संसार अनादि और अनंत है। भव्यत्व और अभव्यत्त्व यह आत्माका स्वाभाविक
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धर्मशिक्षा. धर्म विशेष है । भव्य जीव भी अनंत होनेसे, संसारके सब भव्य जीव, मोक्षमें जाने पर, संसार, भव्य जीवोंसे एकदम शून्य हो जायगा, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये ।
अपने २ किये हुए शुभाशुभ कर्मोंके फल भोगते हुए जीव, संसारचक्रमें, देव--मनुष्य-तिर्यञ्च और नरक गतिमें भ्रमण किया करते हैं।
अजीव पदार्थ पांच प्रकारका है। धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय-आकाशास्तिकाय-काल और पुद्गलास्तिकाय। उनमें जड पदार्थ, और जीवोंको गमन करनेमें सहायता करनेवाला धर्मास्तिकाय है। और उनको, स्थिति करनेमें सहायता करनेवाला अधर्मास्तिकाय है । अवकाश देनेवाला आकाश पदार्थ प्रसिद्ध है । पदार्थोंके परिवर्तनमें हेतुभूत, काल पदार्थ मशहूर है । रूप, रस, गंध, स्पर्श, और शब्द, जिसमें रहते हैं, उसे पुद्गल कहते हैं। अतएव शब्दको आकाशका गुण माननेवाले लोगोंकी अल्प बुद्धि प्रकाशित होती है । जो वस्तु अत्यंत परोक्ष है, उस वस्तुका धर्म, प्रत्यक्ष नहीं हो सकता; शब्द यदि आकाशका गुण माना जाय तो आकाश अत्यंत परोक्ष होनेसे, शब्दका प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा। हम नहीं समझते कि शब्दको आकाशका गुण माननेवालोंने, शब्दको परमाणुका गुण, क्यों नहीं माना होगा ?। शब्दको परमा. णुका गुण माननेमें जो डर चमक रहा है, वह डर, उसको आकाशका गुण माननेमें क्या चला जायगा ? हर्गिज नहीं ।
पुण्य-प्रशस्त कर्म वर्गणाका नाम है। जिससे संसारकी संपत्तियाँ जीवको हांसिल होती हैं।
पाप-अप्रशस्त कर्मवर्गणाका नाम है । जिससे संसारमें जीवको बडी विपत्ति उठानी पड़ती है।
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धर्मशिक्षा.
आस्रव-शुभाशुभ कर्मोंको आत्मामें दाखिल होनेका दरवाजा है। संवर-काँको रोकनेवाला एक आत्माका शुभ प्रयत्न है ।
वंध-क्षीर और पानीके सम्बन्धके बराबर, आत्मामें और कोके संयोग होनेका नाम है। निर्जरा-तपश्चर्यादिद्वारा कौके नाश करनेको कहते हैं।
मोक्ष-समस्त कर्मोंका बिलकुल अभाव होनेका नाम है । जिस वक्त आत्मा, समस्त काँसे बिलकुल रहित होता है । उसी वक्त आत्माकी अर्ध्व गति होती है, और लोकके अग्र भाग ऊपर जीव, अवस्थित रहता है। वही मुक्तिपुरी समझनी चाहिए । किन्हीं लोगोंका कहना होता है कि अगर समस्त कर्म बिलकुल नष्ट हो गये, तो फिर इह लोकमें वा परलोकमें, बन्ध होनेका संभव है नहीं, अर्थात् अकर्मक जीव यहांही क्यों न रहे, ऊपर क्यों जाय ? । यदि कम कुछ अवशिष्ट रहा है, तो ऊपर जाने पर भी संसारयंत्र चलता ही रहेगा। मतलब यह है कि समस्त कर्मीका विनाश होने पर, ऊर्व गमन क्यों होना चाहिए ? । इसके उत्तरमें यह समझना चाहिये कि जैसे एक कुम्भारने अपने हस्तदंडके प्रयोगसे, चक्रको चलाया, फिर वह कुंभार अपना हस्त दंडका प्रयोग नहीं करता है तब भी वह चक्र, बहुत काल तक चला करता है । वैसे ही कर्मके प्रभावसे घूमता हुआ आत्मा, कर्मके समूल नाश होने परभी, पूर्व वेगवशात् मुक्त दशामें ऊपर जाता ही है । और भी मुक्त जीवकी उर्ध्वगति होनेका प्रकार यह है कि जैसे एरडंकी सिंगका बन्ध विच्छेद करनेसे एरंड,एकदम ऊपर आ जाता है, वैसे ही कर्म बन्धका विच्छेद होने पर,मुक्त जीवकी स्वाभाविक ऊर्ध्व गति प्रकट होती है। मुक्तावस्थामें जीव,अनंत आनंदमें रमण किया करता है,वह आनंद,
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४३
धर्मशिक्षा. इन्द्रियादिसे किया हुआ नहीं है, क्योंकि मुक्तजीव को,शरीर इन्द्रियादिकका बिलकुल अभाव ही हो जाता है,मगर आत्माका स्वाभाविकवास्तविक सुखानंद मुक्तजीवको प्रकट होता है। वह आनंद, संसारमें कर्मोंसे दबा रहता है, इस लिये सांसारिक जीवोंके अनुभवमें नहीं आ सकता।अतएव परम आनंदके उद्देशसे मुमुक्षु लोग,संसारको छोडकर मुक्तिके साधनोंकी साधना करने लग जाते हैं; मोक्षमें यदि आनंद (सुख) नहीं होता तो कोई बुद्धिमान् पुरुष मुक्तिके लिये प्रति नहीं करता । मगर सैंकडो बुद्धिमान् लोग मुक्तिके लिये प्रति करते तो हैं, अतः मुक्तिमें परमानंद मानना न्यायसिद्ध बात है। ज्ञान-सुख वगैरह आत्माके वास्तविक गुण हैं । लेकिन वे गुण सं. सार अवस्थामें दबे रहनेसे पूर्ण रूपसे प्रकट नहीं हो सकते । जो इन्द्रियादिसे सुख पैदा होता है, वह नैमिचिक गुण समझना चाहिये, न कि आत्माका वास्तविक स्वाभाविक गुण ।
___ दुःखाभाव ही मुक्तिका स्वरूप कहनेवाले पंडितोंके हिसाबसे मूर्छा वगैरह सांसारिक अवस्थाएं भी मुक्ति पदार्थ हो जायेंगी । कहनेवाले लोग कहते हैंकि मुक्तिके सुखमें राग रखता हुआ पुरुष, कितनी भी मुक्ति साधनोंकी साधना करें,तो भी मुक्तिको नहीं पास केगा, क्योंकि राग, मुक्तिको रोकनेवाला है, संसार-बन्धको पैदा करनेवाला है । बात तो ठीक है, परन्तु साथ साथ इतना भी समझना चाहिये, कि दुःखाभावरूप मुक्तिके लिये प्रयत्न करता हुआ पुरुष, दुःखका द्वेषी होनेस कैसे मुक्तिको पावेगा ? । अगर कहोगे कि योग-ध्यानमें लीन रहा हुआ पुरुष, किसीके ऊपर फेष परिणाम नहीं रखता है, तो फिर योग-ध्यानमें लीन रहा हुआ पुरुष किसीके ऊपर राग नहीं रखता हुआ मुक्ति क्यों नही पावेगा?। अतः मानना चाहिए कि त्रिलोकीमें चारों तरफसे सुरेन्द्र-नरेन्द्रोंका
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অল্পদিষ্কা, इकट्ठा किया हुआ सुख, मुक्ति सुखके आगे बिन्दु भी नहीं है । पाठको ! ये नव तत्त्व प्रकाशित हो गये, उनके ऊपर पक्का विश्वास रखना, उसे जैन शास्त्रकार सम्यग्दर्शन कहते हैं। और उनका यथार्थ परिचय करना, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं । जैनदर्शनमें ज्ञानके पांच भेद बतायें हैं मतिज्ञान-श्रुतज्ञान-अवधिज्ञान-मनःपर्याय ज्ञान, और केवलज्ञान । इनमें पहिले दो ज्ञान दरअस्लमें परोक्ष हैं। तो भी व्यवहारमें सच्ची प्रवृत्ति करानेसे चक्षुरादिजन्य ज्ञानोंको व्याव. हारिक प्रत्यक्ष कहा है । वह व्यावहारिक प्रत्यक्ष चार प्रकारका है, अवग्रह-ईहा-अवाय-धारणा । ये, मतिज्ञानमें दाखिल किये हैं । और अनुमान-स्मरण-प्रत्यभिज्ञान-तर्क ये भी मतिज्ञानके भेद समझने चाहिये । श्रुतज्ञानमें आगम प्रमाण दाखिल होता है। तात्पर्य यह हुआ कि प्रमाण दो प्रकारका है--प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष भी दो प्रकारका, सांव्यवहारिक-और पारमार्थिक । परोक्ष प्रमाण पांच प्रकारका है-स्मरण-प्रत्यभिज्ञान-तर्क-अनुमान और आगम । इनमें आगमको छोडकर सब परोक्ष प्रमाण, और अवग्रह-इहा-अवाय धारणा ये सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके चार भेद,मतिज्ञानमें दाखिल होते हैं और श्रुतज्ञान, आगमरूप है । अवधिज्ञान रूपी द्रव्योंको ग्रहण करनेवाला स्पष्ट वास्तविक प्रत्यक्ष है । मनके पर्यायोंको ग्रहण करने वाला मनःपर्याय ज्ञान, वास्तविक स्पष्ट प्रत्यक्ष है । और सर्वज्ञ पन है दूसरा नाम जिसका, ऐसा केवलज्ञान, समस्त लोक-अलोकका युगपत् (एक कालमें-एक साथ) सदैव स्पष्ट प्रकाश किया करता है । इस विषयमें गंभीर विचारणा यदि करनी हो तो यशोविजयजी गुरुदेवके बनाये हुए ग्रन्थोंको देखना चाहिये । और विशेषावश्यक टीका का अमृत रस पीना चाहिये । एवं नन्दि टीकाको निभालनमें लाना चाहिये ।
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धर्मशिक्षा.
जैनशास्त्रमें, नय-सात प्रकारसे माना है। एक देशको ग्रहण करनेवाले, दूसरे अंशके साथ विरोध नहीं रखने वाले अभिप्राय विशेषको नय कहते हैं, उन सात नयोंके नाम
नैगम-संग्रह-व्यवहार--ऋजुसूत्र--शब्द--समभिरूढ-एवंभूत । इनमें, पहिले तीन द्रव्यार्थिक हैं । और पिछले चार पर्यायार्थिक हैं। और नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, ये चार अर्थनय कहलाते हैं । और आखिरके तीन, शब्दनय कहलाते हैं। __प्रमाण और नयका वाक्य, अपने विषयमें प्रवृत्त होता हुआ, विधि
और प्रतिषेधसे, सप्तभङ्गीका अनुसरण करता है। देखिये सप्तभङ्गी_' स्यादस्त्येव घटः' १ 'स्यान्नास्त्येव घटः ' 'स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव घटः'३ 'स्यादवक्तव्यमेव'४ 'स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेव' ५ 'स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेव' ६ स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेव '७
अर्थ-घट (वस्तुमात्र) अपने द्रव्यक्षेत्र काल और भावसे है (सत् है)१ । और परकीय द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे नहीं है (असत् है) २ । वस्तुमात्र, कथंचित् है, और कथंचित् नहीं है, यह क्रमसे विधि निषेध कल्पना ३ । युगपत् (एकसाथ) विधि निषेधकी कल्पनासे,वस्तुमात्र कथंचित् अवक्तव्य है ।। विधि कल्पना और युगपत् विधि निषेध कल्पनासे, वस्तु कथंचित् सत्, कथंचित् अवक्तव्य कहलाती है ५ । निषेध कल्पना और युगपत् विधि निषेध कल्पनासे,वस्तु कथंचित् असत् कथंचित् अवक्तव्य कहलाती है ६। क्रमतः विधिनिषेध कल्पना तथा युगपत् विधिनिषेध कल्पनासे,वस्तु कथंचित् सत् कथंचित् असत् कथंचित अवक्तव्य कहलाती है, ७। यह विषय, स्वाभाविक गंभीर-दुर्गम है । दर्शन-शास्त्रोंके पारगामी
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धर्मशिक्षा. विद्वान् लोग भी इस विषयमें मुग्ध ही रहा करते हैं। जैनदर्शनकी प्रकियामें निपुणता रखनेवाले बुद्धिमान् लोग ही इस विषयकी कुछ खुशबू पा सकते हैं। बडे बडे शंकराचार्य वाचस्पति वगैरह विद्वानोंका दिमाग इस विषयमें चकर खा गया है। और विद्वत्ताकी टांग उंची रखनेके लिये-सव दर्शनोंकी पंडिताईका दावा करनेके लिये, जैनोंकी सप्तभङ्गीको यथार्थ नहीं समझ कर,ऊटपटांग रीतिसे उसका खंडन करके अपनी प्रज्ञाका परिचय देनेमें उन लोगोंने कुछ बाकी नहीं रखी है । इस विषयका परिज्ञान करानेके लिये, जैनाचार्योंने बडे बडे महार्णव बनाकर विश्वमें विद्या अमृतका प्रवाह फैला दिया है । जैसे-स्याहादरत्नाकर ८४००० श्लोक प्रमाण वादि श्री देवसूरिका बनाया हुआ अपूर्ण विद्यमान है । सम्मति तर्क-विशेषाव. श्यकभाष्य टीका-अनेकान्तजयपताका-नयचक्र-नन्दी टीका तस्वार्थ टीका वगैरह और भी बहुत समुद्र अब भी झलक रहे हैं । ऐसे ग्रंथोंको बराबर देखे विदुन स्याउाद सप्तभंगीका खंडन करनेवाला पुरुष, खुद आपही खंडित हो जाता है । खंडन करनेवाले लोग, रत्नका भी खंडन कर देते हैं,और काचकाभी खंडन कर देते हैं। मगर सुपण्डित लोग, रत्न-काचोंका भेद समझ कर रत्नकी रक्षा करते हैं । रत्नका पालन करते हैं । रत्नसे, अपनी आत्मामें आ नन्दकी लहरी दाखिल कराते हैं । इस लिये महानुभावोंको समझना चाहिये कि रत्न ओर काचका पहिले इम्तिहान करें, न कि भ्रान्त होकर काचकी जगह पर रत्नको फोड देवें और फैंक देवें।
पाठको ! जैनधर्मके मूल उपदेशक सर्वज्ञ तीर्थंकर देव हैं। वे लोग हरएक उत्सार्पणी और अवसर्पिणी कालमें चौईस पैदा होते हैं। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी ये कालचक्रके दो विभाग हैं । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीमें भी हर एकके छः छः
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४७ विभाग हैं, जिन्हें आरा कहते हैं, अर्थात् छः आरे उत्सर्पिणीके,
और छः आरे अवसर्पिणीके होते है । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी यह सार्थक नाम है, उत्सर्पिणी काल उसे कहते हैं, जिसमें तरह तरहकी संपत्तियाँ बढती रहें, और अवसार्पणी कालमें संपत्तियां घटती जाती हैं । उत्सर्पिणीके जो क्रमसे छः आरे हैं, उनसे विपरीत ढंगवाले छः आरे अवसर्पिणीके समझने चाहिये ।
अवसर्पिणीकालमें पहला आरा चार कोडाकोडी सागरोपम, दूसरा तीन कोडाकोडी सागरोपम, तीसरा दो कोडाकोडी सागरोपम; चौथा कम ४२ हजार वर्ष, एक कोडाकोडी सागरोपम, पांचवा २१ हजार वर्ष, और छठवा आरा २१ हजार वर्षका है। इनसे उलटे उत्सर्पिणीके छ आरे समझिये :, अर्थात् उत्सर्पिणी कालका प्रथम आरा २१ हजार वर्ष, और दूसरा आरा २१ हजार वर्षका है, इस तरह शेष चार आरे भी समझ लीजिए । इस हिसाबसे उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल, दोनों दश कोडाकोडी सागरोपम प्रमाणवाले हुए। ये दोनों मिलकर २० कोडाकोडी सागरोपम प्रमाणवाला एक कालचक्र होता है। ऐसे कालचक्र अनन्त चले गये, और अनंत चले जायेंगे । कालकी कोई सीमा नहीं है।
वर्तमानमें पांचवा आरा, अवसर्पिणी कालका चल रहा है। जब अवसर्पिणीके चौथे आरेमें चरम तीर्थकर परमात्मा महावीर देव काल कर गये, उस समयसे लेकर तीन वर्ष और साढे आठ महीने गुजरने पर पांचवा आरा शुरू हुआ। आज महावीर देवको काल किये २४३९ वर्ष बीत चुके, वर्तमानमें वीर संवत् २४४० है। पांचवे आरेका नाम है-दूषमा, क्योंकि यह आरा मुःखमय है । और इसके पहले जो चार आरे हो गये, उनके
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नाम क्रमसे-सुषमा सुषमा, सुषमा, सुषमादुषमा, और दुषमा सुषमा है। और आगामी छठवे आरेका नाम है-दुषमासुषमा, यानी वह आरा महा दुःखमय है । ये जो अवसर्पिणीके छः आरोंके नाम बताये,वेही नाम उलटेसे उत्सर्पिणीके छ आरोके समझने चाहिये ।
प्रति उत्सर्पिणी और प्रति अवसार्पणीमें चोईस २ पैदा हुए तीर्थंकर देव, अनंत हो गये, और अनन्त होंगे । तीर्थकर लोगभी पहले हमारी तरह संसारमें भ्रमण किया करते थे, मगर तीर्थकरके भक्के पहले तीसरे भवमें विशिष्ट आत्मबल जगा कर, सुपवित्र तपश्चरणद्वारा तीर्थकर नामकर्म बांधकर, बीचमें स्वर्गका एक भव कर, मनुष्य लोकमें उत्तम कुलमें जन्म लेकर, परम प. वित्र चारित्र-तपके तेजसे कर्मोंको दग्ध करनेके साथ केवलज्ञान (सर्वज्ञता) पा कर, और पुनियाँको तालीम-धर्मकी देके मोक्षमें जा पहुंचे।
तीर्थकर देव ही धर्मके मूल उपदेशक होनेसे, इनके वचनमें अणुमात्रभी असत्यताका संभव नहीं हो सकता। राग, द्वेष, अथवा मोहसे असत्य वचन निकाले जाते हैं, जिनमें राग, द्वेष, और मोह, ये तीन दोष मूलसे उखड गये हैं, उनके उपदेशमें किसी प्रकार दोष रहनेकी सम्भावना नहीं की जा सकती।
जैन प्रवचनमें तीर्थंकरही ईश्वर शब्दसे व्यवहृत किये हैं। और तीर्थकर तो इसी लिये कहाते हैं, कि वे साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका, इस चतुर्विध संघ (ती)की स्थापना (व्यवस्था) करते हैं । तीर्थकरके भवमें तीर्थकर लोग स्वयंबुद्ध हैं, अतएव वे किसीके उपदेशसे ज्ञान पाके, संसारको नहीं छोडते-दीक्षा नहीं लेते, किन्तु आप ही खुद स्वयंबुद्ध होनेसे समयपर विपुल साम्राज्यको
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स्वतएव छोडके परमहंस-परम योगी बनते हैं । तीर्थंकरोंके उपदेश देनेकी भूमिका नाम है-समवसरण । वह समवसरण,इन्द्रोंकी आज्ञासे देवतालोग बड़ी अद्भुत रीतिसे एक योजन भूमिमें बना देते हैं, और उतनी जमीनमें कोडाकोडो प्राणी बडे मजेसे बैठकर ईश्वरकी अमृतसी वाणीका पान करते हैं । ईश्वरकी व्याख्यान परिषद् इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र वगैरह, तमाम जगत्के नायक आते हैं । जन्मसे शत्रुता रखनेवाले जानवरभी जस समय परस्पर प्रेमी बनके सावधानतासे प्रभुका उपदेश सुनते हैं । पांतीस गुणोंसे विभूषित तीर्थकर देवकी देशनाको जानवर तकभी भलीभांती समझ जाते हैं। हाथमें चवर उलारते इन्द्रोंसे सेवाते हुए तीर्थकर भगवानकी मेघकी तरह गंभीर-ध्वनिको बारह पर्षदाएँ मयूरकी भांती बडे आनंदसे पीती हैं।
___ इन्हीं (तीर्थकरों)के चरणोंकी सेवासे अनंत महात्मा-लोग कर्मोंसे मुक्त हो गये-सर्वज्ञ बन गये, और मुक्तिमें जा पहुँचे । ये ही ईश्वर, धर्मके मूल-बीज हैं, धर्मके नायक हैं, धर्मके दाता हैं। इन्हींके उपदेशानुसार, महाप्राज्ञ, विशिष्ट लब्धिसंपन्न, गणधरमहाराज, द्वादशांगीकी रचना करते हैं । और उन्हीं शास्त्रोंके आधारसे उत्तरोत्तर पैदा हुए गीतार्थ-महर्षि, नये नये ग्रंथ बनाते हैं । कहिए ! सज्जनो! धर्मका मूल कैसा मजबूत-प्रामाणिक है ?। कैसी सडकसे जैनधर्मका इस जमानेमें आना हुआ ?। ऐसी ही निर्मल सीधी सडकसे आया हुआ धर्म, सत्यधर्म कहलाता है।
उक्त द्वादशांगी (बारह अंगों) मेंसे वर्तमानकालमें ग्यारहही मूल अंग बाकी हैं, बारहवां दृष्टिवाद नामका अंग विच्छिन्न हो गया है।
मुनिये ! ग्यारह अंगोंके नाम
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।
आचारांग १ सूत्रकृतांग ५ स्थानांग ३ समवायांग ४ भगवती ५ ज्ञातधर्मकथा ६ उपासकदशांग ७ अंतकृत - अनुत्तरोपपातिका ९ प्रश्न व्याकरण १० विपाक ११
ये ग्यारह अंग साक्षात् गणधर महाराजके बनाये हुए हैं, और इनके सिवाय, बारह उपांग आदि ३४ सूत्र,' जो वर्तमानमें मौजूद हैं, गणधरोंके अतिरिक्त और (तीर्थकरके शिष्य-प्रशिष्य) महर्षिओंके बनाये हुए हैं । ये ४५ सूत्र वर्तमानमें जैन तत्वके मूल खजाने समझने चाहिये।
ये ही मूल आगम, मूल सिद्धांत और मूलसूत्र कहलाते हैं । इन सूत्रोंके ऊपर गीतार्थ ऋषिओंने चतुरंगी बनायी हैनियुक्ति, भाष्य, चूनी और टीका । मूलसूत्र सहित ये पंचागी कहलाते हैं। इनके अनंतर ज्यों ज्यों उत्तरोत्तर प्रखर विद्वान् आचार्य हुए, त्यो त्यों उनके द्वारा जैन साहित्यकी बहुत दृषि एवं तरकी होती गई।
चोईसवां तीर्थंकर श्री महावीर परमात्माके ग्यारह गणधर हुए, जिनमें प्रथम श्री गौतम स्वामी, और प्रभुके पट्टधर पांचवां गणधर श्रीसुधमास्वामी हुए। वर्तमानमें जितने जैन मुनि है, वे सब सुधर्मास्वामीकी शिष्य सम्प्रदायमें हैं । सुधास्वामीके मोक्षमें जाने बाद उनके पट्टधर श्री जम्बूस्वामी हुए । इनके मोक्ष जाने पर मोक्षका द्वार बंद हो गया, इनके अनंतर पंचम आरेकी सख्त गर्मीके सबबसे कोईभी महात्मा मोक्षमें नहीं जा सका, और नहीं जा सकता जम्बूस्वामीके शिष्यवर प्रभवस्वामी उनके पट्टधर शय्यंभवसूरि, उनके बाद यशोभद्र, संभूतिविजय, भद्रबाहु, तथा स्थूलभद्र हुए। जम्बूस्वामाक बाद य छः महाप, श्रुत कवाल हुए।
इसी प्रकार उत्तरोत्तर सुधर्मास्वामीकी शिष्यसंपदा, आज
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तक लगातार चली आ रही है । ऐसा अविच्छिन्न धर्मका मूल अगर कहाँही पर पा सकते हैं, तो वह जैन सम्प्रदाय ही है। जैन जातिमें एकसे एक बढेचढे हजारों आचार्य-धुरंधर विद्वान् होने परभी, किसी अर्हद् वचनमें, किन्हीं आचार्योंका परस्पर विरोध-झघडा नहीं हुआ, यही आहेत-धर्मकी वज्रलेपायमान प्रामाणिकता-परमार्थ सत्यता झलकती है।
हमें निष्पक्षपातसे यह उद्घोष किये बिदुन नहीं रहा जाता कि जैन शास्त्रोंमें जैसा निष्पक्षपात बयान है, और उसको जैसी निष्पक्षपातरीतिसें जाहिरमें लानेवाले आचार्य हुए, वैसी निष्पक्षपातता,महावीरके शासनको छोड अन्यत्र कौन कहाँ पा सकता है? । वैदिक मतमें, जैसे, बापका खंडन बेटेने किया, गुरुके वचनका खंडन चेलेने किया, वैसा उपद्रव. परमात्मा अर्हन देवके प्रवचनशासनमें, आजतक न हुआ और न सुना ।
मध्यस्थ दिलसे देखते हुए हमें, दोनों जगह दो बातें अद्वितीय ही पायी जाती हैं-एक इधर अर्हन देवका यथार्थ उपदेश, और उधर अन्य तीथिओंका असद आग्रह ।
प्रतिपक्षि विद्वानोंके समक्षमें भी जैनाचार्य, यह उदार-घो षणा करते आये हैं--अगर इश्वरकी पहचान करनी हो, तो वीतराग ही को ईश्वर समझना चाहिये, सिवाय वीतराग, और कोई ईश्वर नहीं हो सकता । एवं न्यायकी व्यवस्था भी, विना स्याद्वाद-अनेकान्तवाद, और कोई नहीं है । इसी प्रधान विषयके हजारों ग्रन्थ बनाके, जैन आचार्यों ने अपनी चमकीली विद्वचाकी रोशनी, चारों ओर छा दी है। और इसीसे हृदयमें चमत्कार पाये हुए अन्य विधानोंने भी, अपने ग्रन्थोमें, जैनाचार्योंकी जो प्रशस्ति रेखाएँ अंकितकी हैं, आजभी उन्हें, सब कोई खुले दिलसे पढ़ रहे हैं।
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जैनशासनके प्रभावक-सिद्धसेन दिवाकर, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, हरिभद्रसूरि, अभयदेवसूरि,मद्ववादिसूरि, वादिवेतालशान्तिसूरि, वादिदेवसूरि, कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य, मलयगिरि, मलधारिहेमचन्द्र, श्रीहीरविजयसूरि, श्रीयशोविजय उपाध्याय, वगैरह हजारों प्रचंड विद्वान् हुए । एकिले श्री हेमचन्द्राचायेकी की हुई सवालाख श्लोक प्रमाण व्याकरण विषयक रचना अब भी असंपूर्ण मुद्रित-प्रसिद्ध है । इतना ही क्यों ?, न्याय,साहित्य, कोश, स्तुति, धर्मशास्त्र, ज्योतिष, वैद्यक, वगैरह तमाम विषयोमेंभी उस आचार्यकी अद्वितीय पंडिताई, अन्य शास्त्रों में तथा वर्तमान जमानेमें मशहूर है।
वाचकगण ! पूर्व प्रबन्धसे सामान्यतया धर्मका अनादित्व सिद्ध हो चुका है, और जैनतर धर्मों के साथ जैनधर्मका मुकाबला भी कर चुके हैं, तो अब जैनधर्मके अनादित्व व पवित्रताके विषयमें क्या कोई अक्लमंद शंका कर सकता है ?, हर्गिज नहीं । मैं यह बात दृष्टिरागसे नहीं कहता हूं, परंतु वास्तविक जैनधर्मकी पवित्रता, परमसत्यता, और मोक्षकी साधकता, जैन शास्त्रोंको सुदृष्टि से देखनेसे निश्चित होती है । यद्यपि "अपनी माताको डा. किनी कोई नहीं कहता" यह कहावत जगत्में मशहूर है, तो भी मध्यस्थ-धर्मात्मा पुरुष इस कहावतका अनादर करते हुए अपनी डाकिनी माताको जरूर डाकिनी कहते हैं, और यह भी बात है कि अपनी स्वस्थ माताको स्वस्थ माता कहनेवाला पुरुष, आत्मश्लाघाका पातक नहीं उठा सकता, क्योंकि वस्तुके स्वरूप परिचयमें, वस्तुका वास्तविक हाल प्रकट करना, यह इन्साफसे खिलाफ नहीं है, उसी रीतिसे सत्यधर्मको सत्य कहनेवाला, सत्यधर्मका सत्कार करनेवाला; और सत्यधर्मकी वास्तविक तारीफ करनेवाला मनुष्य, अन्याय प्रवृत्ति नहीं करता
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धर्मशिक्षा. है, इसमें कौन क्या कहेगा ?। सत्य वस्तुका सत्यत्व प्रकाश करना, सत्य वस्तुको लोगोंसे ग्रहण करानेकी कोशिश करना यह तो सज्जनोंका परम कर्तव्य है।
जैनधर्ममें जीव, ईश्वर, पुण्य, पाप, परलोक, मोक्ष,तपश्चर्या दान, दया, शील, अनुष्ठान, पवित्रता, प्रमाण, न्याय, युक्ति, तर्क, वगैरह सभी बातें जब भरी हैं, तो फिर किस बातसे जैनधर्मकी न्यूनता कही जा सकती है ? ।
देखिये ! जैनधर्मके कानून
जैनधर्ममें मुख्यत्वेन धर्मके रास्ते, दो प्रकारके बताये हैंएक साधुधर्म, दूसरा श्रावक धर्म । उनमें साधुधर्म, पांच महाव्रत रूप है
सर्वथा (करना नहीं, कराना नहीं, और करने वालेको अनुमोदना नहीं) प्राणातिपात विरमण, यानी जीवोंकी हिंसासे हटना १ । मृषावाद विरमण यानी मिथ्या भाषणसे दूर रहना २ अदत्तादान विरमण अर्थात् नहीं दी हुयी वस्तुको नहीं उठाना ३ । मैथुनविरमण यानी समस्त स्त्रियोंके ऊपर माता अथवा बहिनपनकी बुद्धि रखना, अर्थात् बिलकुल ब्रह्मचर्य पालन करना ४ । और पांचवां महाव्रत परिग्रहविरमण यानी धन, धान्य, सोना, रूपा, वगैरह द्रव्यको बिलकुल नहीं रखना ५।।
वर्तमान भारतवर्षमें सब धर्मवाले साधुलोगोंकी संख्या अगर गिनी जाय तो करीब ५६००००० होगी। मगर जैनेतर साधुओंकी दशा बहुत शोचनीय दिखाई देती है। जैनेतर साधुलोग, तमाखु, गांजा, भांग, वगैरह दुर्व्यसनोंमें इतने फँस गये हैं कि ज्ञान-ध्यान-सदाचारकी सडकसे बहुत दूर हठ गये । साधु हो करके भी गांजा फूंकना यह कितनी शरमकी बात?। बतलाना
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धर्मशिक्षा. चाहिये, कौन धर्मशास्त्र, गृहस्थके लियेभी तमाखु-गांजा फूंकना, अनुचित-पाप जनक न फरमाता हो ? । गृहस्थोंके लिये भी गांजा फूंकना महापाप है तो साधुओंके लिये तो कहना ही क्या ? |
स्त्रीके छोडने मात्रसे साधुधर्म नहीं मिल सकता, किंतु साधुके प्रतिष्ठित आचारोंके प्रतिपालनसे साधुपन मिला कहाता है ! बहुतेरे साधुओंकी शिथिलताने यहांतक अपना पद जमा लिया है कि वे लोग गृहस्थसे भी अधिक, सांसारिक उपाधिका भार शिर पर उठाये फिरते हैं। हाथी, घोडा, बगी, खेत, इमारत, खजाना वगैरह गृहस्थ उपाधिओंमें आकंठ डूबे हुये महंतसाधु, गृहस्थ पदसे कितनी उंची हदपर विराजते हैं. यह कहनेकी कोई जरूरत नहीं। संसारको छोड साधु बन गये, तौभी रूपचंदजी के फंदमें अगर फँसना हुआ, तो सोचो ! साधुपन रहा कहां ? दौलत रखने परभी अगर साधुत्व कायम रहता हो, तोः कहिये ! गृहस्थोंने क्या अपराध किया ? गृहस्थलोग स्त्रीके भोगी होनेसे अगर साधु न कहलाते हों तो साधुलोग भी,अगर धनके अनुचर बनेंगे तो साधु कैसे कहला सकेंगे ? । पैसा रखना और साधुपनका दावा करना यह बात तीनों कालमें नहीं हो सकती। वास्तवमें देखा जाय तो साधुको द्रव्यकी जरूरत होनी ही क्यों चाहिये ? क्या भिक्षासे साधुलोग अपना पेट पूरा नहीं भर सकने ? क्या साधुओंको पहिननेके लिये कपडे नहीं मिल सकते ?, जब खानेके लिये भोजन, और पहिननेके लिये कपडे जगह जगह साधुओंके लिये तय्यार हैं,तो फिर किस बात के लिये साधुओंको द्रव्यकी आवश्यक्ता पडती होगी ? । शास्त्रकारोंका यह फरमाना है कि भिक्षासे अपने शरीरकी यात्रा करते हुए साधु, द्रव्यके संगसे सर्वथा दूर रहें।
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धर्मशिक्षा.
हमारे अनुभवसे, और शास्त्रोंके वचनसे यह बात स्पष्ट है कि साधुको द्रव्यका जो संग्रह करना है सो साधुके हृदय--मंदिरमें गुप्त बैठे हुए कामदेवकी सत्ताको यथार्थ प्रसिद्ध ही करना है। नहीं तो बतलाना चाहिये-साधुके लिये द्रव्य रखनेका
और क्या प्रयोजन हो सकता है ? । साधु, कैसाभी तपस्वी-ध्यानी--क्रियावान् क्यों न हो ? मगर वह यदि द्रव्यके परिग्रहमें फँसा है, तो उसे साधु कौन कह सकता है ? । हम नहीं समझते कि द्रव्यके ऊपर ममता रहते परभी संसारका परित्यागदीक्षाग्रहण, करनेवाले क्यों करते होंगे ? । अगर साधु हो करके भी द्रव्य रखना मंजूर समझते हैं, तो फिर किस लिये साधु होते होंगे? । संसारहीमें (गृहस्थरूपसे) क्यों नहीं बैठे रहते?। पघडी उतारके साधुके रंगित वस्त्र पहिनने मात्रसे साधुपन नहीं मिल सकता । हम तो यह उद्घोषणा करते हैं साधु हो करके यदि द्रव्य रखना मंजूर था, तो गृहस्थही रहना अच्छा था, ताकि गृहस्थ धर्मका पालन तो बन सकता । साधु बनके जो द्रव्य रखता है,वह साधुभी नहीं और गृहस्थभी नहीं है, किंतु उसके लिये कुछ घोडे और कुछ गदहेके स्वरूपवाले खच्चरकी उपमा देनी समुचित समझी जाती है। समझो कि बडे भाग्यके अभ्युदयसे साधुत्व पाया जाता है। वे ही साधुपन लेते हैं, जिनकी तकदीरका सितारा चमकता हो, फिरभी (साधु होके भी) यदि द्रव्यका संग्रह कर नेकी दुर्बुद्धि पैदा हो-द्रव्य इकठे करनेकी कोशिश की जाय, तो हाय ! इससे ज्यादह क्या अफसोस बता ?, हाथमें आया चिंतामणि नहीं सम्हाला ।
साधुका एकही नियम तोडने परभी दुर्गति पाना शास्त्रकारभगवान् फरमाते हैं,तो सोचो ! कि द्रव्य पिशाचको तमाम व्रतोंका भोग देनेवाले साधुकी कौनसी गति होगी ? ।
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धर्मशिक्षा. हमारा यह साफ मानना है कि किसी भी मजहबवालाकिसीभी धर्मवाला साधु क्यों न हो, मगर वह यदि द्रव्यका अनुचर नहीं है, तो उसकी तारीफ है, अखंड मंडलाकारको भजनेवाले लोग अगर रूपचंदजीको नहीं भजते हैं, तो वे शुद्ध धर्मोपदेशके कार्यसे, गुरु बराबर कहला सकते हैं। गुरुके गुण विना योंही गुरुपनकी गद्दी उठा लेनी यह तो चोरीका दोष है। धर्मके उपदेश करनेवाले और उक्त पाँच महाव्रत पालनेवाले ही साधुलोग सच्चे गुरु हो सकते है।
वर्तमान (कलियुग) जमानेमें भी जैन मुनिलोग आचार-विचारसे अन्य साधुओंको अपेक्षा कितने बढे चढे है, यह अक्लमंदोंसे छिपा नहीं है।
सूक्ष्म, स्थूल जीवोंकी दया करनेवाले, सत्य--मधुर भाषण करनेवाले । घर घर जाके भिक्षा लेनेवाले, अनुचित लोभ-तृष्णा नहीं रखनेवाले, धातुके पात्रमें तथा गृहस्थके घर पर नहीं जिमनेवाले, सौंफ, इलायची लोंग तकका भी संग्रह नहीं करनेवाले, अभक्ष्यका भक्षण नहीं करने वाले, द्रव्यको बिलकुल नहीं रखने वाले,पैदल गमन करने वाले,स्त्रीका स्पर्श मात्रभी नहीं करने वाले अपराधी पुरुषको प्रायः क्रोधातुर होके शाप नहीं देनेवाले, उचित नम्रतामें रहनेवाले, अपनी क्रियामें यथाशक्ति हमेशा तत्पर रहने वाले, वर्षाऋतुमे देशाटन नहीं करने वाले, आगका स्पर्श भी नहीं करने वाले, कच्चे पानीका व्यवहार नहीं करने वाले, हरी (सचित्त) वनस्पतिको नहीं छुनेवाले; अपनी प्रज्ञानुसार जैनागमोंको जानने वाले, परोपकार-वैराग्यगर्भित सरल उपदेश देने वाले. ईश्वरके प्रणिधानमें रमने वाले, जैन साधु लोग, साधुके आचारमें, कहांतक बढे हैं, यह विशेष कहनेकी कोई जरूरत नहीं। ऐसे महात्मा, शांत, दांत, त्यागी, वैरागी, ज्ञानी, परोपकारी,
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५७
विवेकी, लोग यदि गुरु नहीं बनेंगे, तो क्या दुरात्मा, क्रोधी, विष. यी, भोगी, रागी, अज्ञानी, परापकारी, स्वार्थी लोग, गुरु बन सकेंगे? |
सज्जनो! सोचने पर तत्वज्ञान होता है, मगर सोचना बड़ा कठिन है । गुरुपन अथवा सापन कैसा होना चाहिये? इस बातको सोचो ! सोचने पर पुख्ता विश्वास हो सकता है कि वर्तमान कलिकालमें भी साधुपनकी उच्च कोटीमें अगर किसीने उच्च पद पाया है, तो जैन मुनिगण है। अलबत्ते जैन प्रजामें बाजे यतिलोग ब्रष्टाचारी हैं, और मुँहपर पट्टी बांधने वाले ढूंढक, तेरापंथी लोग, असदाचारी तथा महा गन्दे रहते हैं. मगर यहाँ उनकी बात नहीं है, क्योंकि वे लोग साधुपदसे बाहर हैं। परमात्माके शासनके प्रेमी, शुद्ध श्रधालु, शुद्ध उपदेशक यविलोग, फिरभी जैनधर्मके मंडलमें बराबर दाखिल हैं, मगर ढूंढक और तेरापंथी साधु लोग, उत्सूत्र प्रलापी होनेसे शासनकी निन्दाका पातक उठाते हुए, पहिले समकीतहीसे जब बाहर हैं, तो जैनधी होनेकी तो बातही कहां रही ?। जैन नामके व्यवहार मात्रसे जैनधर्मी नहीं कहला सकते; यों तो जैन नामका व्यवहार, शिर पर उठाये हजारोंही मजहब क्यों न निकलें ?, मगर प्रकृतमें जैनधर्म शब्दसे जो बात अभिप्रेत है, वह बात हुए विदुन जो जैनधर्मी होना है सो मानो ! इन्द्रका ऐश्वर्य न होने परभी दरिद्र मनुष्यको, इन्द्र नामसे इन्द्र होना है, वह दरिद्र पुरुष नाम मात्रसे इन्द्र भलेही रहो, मगर वास्तवमें प्रसिद्ध अर्थके अनुसार, इन्द्र, नहीं हो सकता, वैसेही जैन नामको लिये फिरे हजारों मजहब, खरोद्धोषणसे शोर क्यों न मचा दें, मगर वास्तवमें प्रसिद्ध अर्थके अनुसार वे जैनधी कभी नहीं हो सकते। यह बात आगे विशेष खुल जायगी।
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धर्म शिक्षा. __ महानुभावो ! कोई साधु भ्रष्ट हो जाय, अथवा अपने (साधुके) आचारोंसे बिलकुल पतित हो जाय, तो उसकी बात यहां नहीं है, मगर जैन साधु जातिका व्यवहार देखना चाहिये । बस ! हो गया पहिला साधु धर्म ।
अव दूसरा श्रावक [गृहस्थ धर्म
गृहस्थ धर्मकी योग्यता (ल्याकत) तबही हो सकती है,जब कि ३५ गुण प्राप्त हो जाय । पांतीस गुणोंका विवेचन योगशास्त्र वगैरह ग्रन्थों में अच्छी तरह किया है, मगर यहां ग्रन्थ गौरवके डरके मारे नाम मात्र पांतीस गुण बता देते हैं
न्याय (नीति)से धन पैदा करना ११ शिष्टाचारोंकी तारीफ करना । अन्य गोत्रमें पैदा हुए तथा समान कुल और आचार वालेके साथ विवाह करना ३ । पापोंसे डरपोक रहना ४ । देशके व्यवहार मुताबिक चलना ५। किसीकीभी निन्दा न करना ६ । अति प्रकट नहीं, और बहुत गुप्त नहीं, ऐसे स्थानमें (जहां उत्तम पडोसका संग हो) बहुत दरवाजे रहित घर बनाना ७ । सज्जनोंके साथ संग करना । मातापिताकी सेवा करना ९। उपद्रवके स्थानको छोड देना १०। निन्दित कोंमें प्रवृत्ति न करनी ११॥ आमदनीके अनुसार व्यय (खर्च) करना १२ । दौलतके प्रमाणमें वेष रखना १३ । बुद्धिके *आठ गुण प्राप्त करने १९ । हमेशा व्याख्यान, धर्मशास्त्र सुनना १५ । अजीर्ण दशामें नहीं खाना १६ । समय पर प्रकृतिके मुआफिक भोजन करना १७ । परस्पर
*शुश्रूषा १ श्रवण १ ग्रहण ३ धारण ४ ऊह ५ अपोह ६ अर्थज्ञान ७ और तत्त्वज्ञान, ये आठ, बुद्धिके गुण हैं ।
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धर्मशिक्षा. बाधा रहित तीन (धर्म, अर्थ, और काम ) वर्ग पालने १८ । उचित रीतिसे, दीन-कंगाल-रंक तथा अतिथि, एवं मुनिजनोंकी प्रतिपत्ति ( भोजन-वस्त्रदान आदि ) करना १९ । हमेशा उदार दिल रखना, यानी कदापि दुराग्रह नहीं करना २०। गुणोंका पक्षपाती बनना २१ । निषिद्ध देश और निषिद्ध कालमें चयों (गमनादि) न करना । बलाबलका परिज्ञान करना । तपस्वी, महात्मा, ज्ञानवृष लोगोंकी पूजा करना २५। नौकर, सेवक खिदमतगार गुलामका पालन-पोषण करना २५ । दीर्घ (लंबी) नजरसे विचार करना २६ । विशेष रूपसे अपने चरित्रके ऊपर खयाल रखना ३७ । उपकारीके उपकारको याद रखना श् । लोकप्रिय होना २९ । लज्जालु होना ३० । दयालु होना ३१ । प्रसन्न रहना ३२ । परोपकारका स्वभाव रखना३॥ काम, क्रोध, लोभ, मान, मद, और हर्ष, इन छ: अन्तरंग (आस्माके-भीतरके) शत्रुओंका संहार करनेकी कोशिश करते रहना ३४ । इन्द्रिीयोंके परवश न होना ३५।
ये ३५ गुण पाने पर मनुष्य, श्रावक-गृहस्थ धर्मकी ल्याकत हासिल करता है । गृहस्थ धर्म कहो! वा श्रावक धर्म कहो ! मतलब एक ही है । श्रावक शब्दकी व्युत्पत्ति है-शृणोति हितशास्त्रमिति श्रावकः, अर्थात् हितकारि शास्त्रको सुननेवाला, श्रावक कहाता है, यह, व्युत्पत्ति मात्र है, श्रावक शब्दका प्रवृत्ति निमित्त तो, समकीत मूल, बारह व्रत अथवा कोईभी व्रत है ।
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धर्मतिक्षा. श्रावक धर्म-बारह व्रत, ये हैं
स्थूल प्राणातिपात विरमण १। स्थूल मृषावाद विरमण । स्थूल अदत्तादान विरमण ३ । स्थूल मैथुन विरमण ४ । स्थूल परिग्रह विरमण ५। (ये, पांच अणुव्रत )।
दिग् विरति ६ । भोगोपभोग परिमाण ७ । अनर्थदंड विरमण ८ । (ये तीन गुणवत)।
सामायिक व्रत ९ देशावकाशिक १० । पौषध ११ । अतिथिसंविभाग १३। (ये, चार शिक्षाव्रत)
अर्थ:-गृहस्थोंकों सर्वप्रकारेण जीवरक्षा होनी बहुत कठिन है । पुत्र, मित्र, कलत्र, बन्धुवर्ग, स्थावर-जंगम परिग्रह वगैरहमें फँसा हुआ श्रावक, सर्व प्रकारेण जीव-रक्षा नहीं कर सकता तौभी शास्त्रकारोंका यह फरमाना है कि गृहस्थ लोग भी गृहस्थ धर्मके मुताबिक अवश्य जीवदया पालें, यानी गृहस्थोंको चाहिये कि निरपराधी दो, तीन, चार, और पांच इन्द्रियवाले जीवोंकी रक्षाके लिये बराबर ध्यान देते रहें । यद्यपि, घर दुकान वगैरह बनवानेमें, तथा और भी बहुत आरंभ कार्योंमें त्रस ( दो, तीन, चार, और पांच इन्द्रियवाले) जीवोंकीभी हिंसा होनेका पूरा संभव है, तथापि “जीवोंको मारूं" ऐसी बुद्धि रखकर जीवोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिये । अलबत्ते राजा महाराजा लोग, दुश्मनको शिक्षा देते ही हैं, और युद्धमें हजारों मनुष्य, कतल हो जाते हैं, अगर शत्रुके सामने युद्ध न किया जाय, तो राजा लोगोंसे प्रजाका प्रतिपालन नहीं हो सकेगा, उलटा राजाओंके शिरपर प्रजाके क्लेश होनेका पातक आ पडेगा, इसलिये अपराधी शत्रुकी दूसरी बात है, मगर यह बात याद रहे कि निरपराधी जीवोंको संकल्पसे नहीं मारना चाहिथ ।
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कविता
___ कितनेही गवाँर लोंग, सांप बिच्छू वगैरह जहरसे भरे हुए जीवोंको देखतेही मारनेकी तय्यारी करते हैं। मगर याद रखो! कि यह बड़ा पाप है । अपना पराक्रम तुल्य बलवालोंके साथ फैलाना चाहिये, दुर्बलोंके आगे शौर्य प्रकट करता हुआ आदमी दलही कहाता है। हम नहीं समझते, कि काटनेवाले जहरी जीवोंको, मारनेवाले लोग, क्या समझकर मारते होंगे ? क्या उनें एकदम देशसे निकालनेके लिये ?, क्या मारनेसे उनका देशनिकाल हो सकता है ?, बतलाना चाहिये ! उन्हें देशनिकालदेनेका अधिकार किसने किसको सौंपा है ? । याद रखो ! कि जिसदेशमें जहरी जीवोंका मारना ज्यादह होता है, उस देशमें उनकी उत्पत्ति ज्यादह हुआ करती है । सृष्टिवादके हिसाबसे जब सब प्राणी ईश्वरके बनाये हुए हैं, तो फिर कौन किसे मार सकता है । एक ईश्वरसे उत्पन्न हुए सभी प्राणी जब भ्राता (भाई) तुल्य हैं, तो उचित नहीं है कि कोई किसे मारे । ईश्वरकी दी हुई चीजको बे प्रयोजन (फिजूल) खींच लेना, अर्थात् दुर्बल जीवोंकी जान निकाल लेनी, यह साफ इरादापूर्वक ईश्वरका गुनहगार होना नहीं है तो क्या है ?।
___“जीवो जीवस्य भक्षणम् " अर्थात् जीव, जीवका भक्षण है, इस बातको पकडे हुए भी दुराग्रही लोग, भक्षणके अयोग्य जहरी जीवोंको क्यों मारें ? । यदि पीडा-तकलीफ देनेसे उनको मारना मुनासिब समझा जाय, तो यह भी बड़ी भूल है, क्योंकि वे जीव, यदि समझपूर्वक काटते हैं, तो समझिये ! कि उनका अपराध, किसी न किसी वक्त पर, जिसको काटा है, उसने जरूर किया होगा, वरना औरोंको छोड अमुकही आदमीको, समझपूर्वक वे कैसे काट सकें ?। अगर विना समझ, योंही संयोगवशात् जहरी जीवोंके तरफसे किसी आदमीको तकलीफ होवे, तौभी उन
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धर्मशिक्षा.
जीवोंको मारना उस आदमीके लिये बडी मूर्खताको जाहिर करता है, क्योंकि विना इरादे किसीकी तरफसे किसीको अगर कुछ कष्ट पहुंचे, तो इसका प्रत्यपकार करना इन्साफसे विरुद्ध है। क्या पत्थरसे शिर फुटे हुए आदमी, पत्थरके ऊपर द्वेष करते हैं। पत्थरका प्रत्युपकार करनेके लिये-तोडने-फोडनेके लिये पत्थरके साथ युद्ध करते है ? हर्गिज नहीं। अगर कोइ पत्थर पर द्वेष करे, तो वह आदमी ही नहीं, गदहा है।
इस लिये दोनों प्रकारसे (समझपूर्वक वा योंही संयोगवश्चात्) काटनेवाले जहरी जीव, हमारे मारनेके काबिल नहीं हैं। बेशक! उन्हें मारना तबही उचित हो सकता है, जब कि एक जीवको मारनेसे दूसरा जीव समझ जाय-शिक्षा पा सके, और काटनेका स्वभाव छोड दे। मगर यह बात देखनेमें नहीं आतो, तो फिर किस उद्देशसे जहरी जीवोंको मारा जाय ? । समझिये ! काट गये जीवको मारनेसे क्या नतीजा निकालोगे !, कुछ भी नतीजा अगर नहीं निकल सकता, तो फिजूल दूसरे दुबैलोंकी जान निकालनी, यह बाह्यातपन नहीं तो और क्या ?।
___ वास्तवमें न्यायकी नजरसे तो सृष्टिका निर्माता (बनानेवाला) कोई भी नहीं है, यानी यह जगत् ईश्वरका रचा हुआ नहीं है। सभी प्राणी निज निज कर्मके प्रभावसे विविध शरीरको लेते हुए संसारवनमें घूमा करते हैं, इसलिये हमें चाहिये कि बडे जीवोंके ऊपर दया दृष्टि रखा करें। अपराधी भी उन्हींको कष्ट देना अनुचित नहीं समझा जाता है कि जिससे आवश्यक प्रतिफल निकल सकता हो, मगर जानवरोंका वध करनेसे तो कुछभी प्रतिफल दिखाई नहीं देता, तो फिर, उनकी तरफसे अपनेको कुछ . कष्ट भी क्यों न पहुँचे ?, उन्हें क्यों मारना चाहिये ।
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धर्मशिक्षा.
___ निरपराधी पशुओंको मारना तो राक्षस कर्म है, इसमें का हना ही क्या ? । न जाने भारत माताकी तकदीरके सितारे पर किस दुर्भाग्य-राहुका आक्रमण हुआ है कि पहले जमानेमें, जो बात नहीं थी, जो घोर कर्म हम नहीं सुनते, उस घोर कर्मका प्रचार, वर्तमान जमाने में अस्खलित बह रहा है। प्रतिदिन भारतभूमिके छोटे बेटे (जानवर-पशु) कितने कतल किये जाते हैं, इसका खयाल करने पर, यह नहीं कह सकते कि भविष्यमें भारत संतानोंके लिये शारीरिक, सामाजिक, और धार्मिक संपत्तिकी झलक, जो कुछ इस वक्त है, उससे कम होती हुई कितने हिस्सेमें जाके ठहरेगी।
बहुतसे लोगोंका कहना होता है कि जैनियोंने दया दया पुकारके सारा देश लूटा दिया, पर यह बात गलत है, दयादेवीका सत्कार करनेसे देश नहीं लूटा जाता, देश, हिंसाहीसे लूटाता है; पहले जमानेमें अनाज,घी,दूध वगैरह चीजें कितनी सस्ती मिलतीथीं, बतलाईए ! आज कितने हैं उन्हें सुखसे भोगनेवाले, हमारे दौलतमंद भाई साहब, गद्दी, तकिये पर चिपक गये हुए निश्चित आनंद भोगते हैं, परंतु भारतदेवीकी प्रजा-हमारे बन्धुओंकी क्या दशा हो रही है, इसका तो खयाल ही कौन करे? इतनी दरिद्रता, इतना दुर्भाग्य, भारतमें कहाँसे, किस प्रकार, और कब पैठा ?, इसका विचार करने पर यही स्फुरण होता है कि नीति विरुद्ध, धर्म विरुद्ध प्रवृत्तिका यह जुल्म है; जबसे निःसार साहसिक्य,
और तामसिक प्रकृति ने अपना पद, भारतमाताके शिरपर पसारा तबहीसे हमारा देश, कंगाल दशा पर आया है। जैनियोंके जितने धर्मबास्त्र सम्मत आचार हैं, वे परलोकहीके सुधार करनेमें शामिल हैं, यह नहीं, बल्कि शारीरिक, सामाजिक और दैशिक अभ्युदयको भी बढानेमें, बराबर कार्मण मन्त्रप्रयोग हैं।खयाल रहे, जैनियोंकी दया
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पशिक्षा वगैरह सभी प्रवृत्तियाँ विवेक युक्त हैं, क्या पहले जैनी राजा कोई हुआही नही!, अथवा तो उसने राज्य प्रतिपालन निमित्त-प्रजा संरक्षण निमित्त, शत्रुके साथ रण समारोहमें डर खाया--संकोच खाया ?, नहीं, अपार कोडाकोडी वर्षोंसे भरतचक्रवर्ति,बाहुबलजी, सगरचक्रवर्ती वगैरह बहुत जैनी राजा हुए, जिन्होंने साठ हजार वर्षतक, पद खंड-भरतक्षेत्रको साधनेके लिये मुसाफिरी की, और वर्षोंके वर्षों तक, बडा भयङ्कर युद्ध मचाया; इतनी दूरका क्या काम ?, नजदीकहीका खयाल करें, कृष्ण वासुदेव, श्रेणिकराजा, कुमारपाल राजा वगैरह हजारों राजाओंने, प्रजा संरक्षण निमित्त, शत्रुओंके साथ बराबर रणसंग्रामका सामना किया, जो कि जैनी परम धर्मात्मा थे, मगर खयाल रहे कि फिजूल झघडा रगडाना, व्यर्थ फिसाद बढाना, यह अच्छा नहीं, और इसीका, वर्तमानमें जो कुछ हम सह रहे हैं,प्रतिफल है, इस लिये गृहस्थलोग, गृहस्थ धर्म, और साधुजन साधुधर्मके मुताबिक अवश्य दया पालते रहें। हरएक आरम्भके काममें, यतना-उपयोग पूर्वक प्रवृत्ति करना, यह दया देवीकी अव्वल उपासना है, विना दामका यह धर्म, किस सज्जनको न रुचेगा ?, बैठो, उठो, सोओ, खाओ, पीओ, चलो. कोई भी काम करो, पर कोई जीव, सूक्ष्म वा बडा, मरने न पावे, इसका खयाल जरूर रखना चाहिये, ऐसी महा मङ्गलमयी महा कल्याण करी दया पालनेमें, जब कुछभी शारीरिक परिश्रम उठाना नहीं पड़ता, और फूटी पाईका खर्चभी नहीं होता, तो फिर इस व्रतके आदर करनेमें उदासीन क्यों होना चाहिये, धर्ममाता-दयाके अङ्गोंकी परिचर्या कर धर्मात्मा क्यों न होना चाहिये ?, क्या फिर ऐसी धर्म सामग्री मिलनी आप मुलभ समझते हैं ?, क्या धर्म विनाभी भविष्यमें सुख सम्पदा की प्राप्तिके मजबूत विश्वासमें आप झुल रहे हैं, अगर यही बात
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धर्मशिक्षा हो तो बतलाईए ! धर्म से सुख पैदा होता है, या पापसे ? , अथवा स्वाभाविक ही?। पाप से सुख पैदा होना, कोई, गदहातक भी नहीं मान सकता, अन्यथा सजन लोगोंका नरकमें
और दुर्जनोंका स्वर्गमें जाना कौन रोकेगा ? । मार पीट करना, बदमाशी करना, दगाबाज करना, येही धर्मकी रूप रेखाएँ किससे आलिखित न हो सकेंगी, अर्थात् संसार भोग, मृषावाद, बदमाशी वगैरह अनायास सुगम प्रवृत्तियाँ ही अगर, पुण्यमें यानी सुख उपार्जन में शामिल हैं, तो इस सुख मार्ग में किसका संचरना दुर्घट होगा, किस आदमी को, ये कर्म, दुष्कर होंगे?, ज. ब, भूलसे भी ऐसे कामोंमें जीवोंकी शीघ्रही प्रवृत्ति हुआ करती सबको विदित है, तो कहिये ! नरक गतिको फिर कोन सम्हालेगा, सभी स्वर्गमें क्यों दाखिल न हो सकेंगे ? ।
___ स्वभावसे सुख दुःखका होना तो कौन महामति मान सकता है ? नियम सिवाय, सुख दुःखकी व्यवस्था, जो सभीको अनुभव सिद्ध है, कभी नहीं हो सकती, यह तो पागल तक भी समझेगा कि “ सुख प्रिय है, मुख हमेशा मिलता रहे, दुःख अनिष्ट है, दुःखका संयोग कभी न हो" जब यही बात है, और सारी दुनियाका व्यवहार चक्र, इसी लिये चलता है, तो भला! यह कौन कह सकता है, कि योंही विना नियम, अव्यवस्थित सुख-दुःखका संयोग होता है हम पूछते हैं कि जो आदमी सुखी है, वह सुखी ही क्यों ? दुःखी क्यों न हुआ ? , और जो बेचारा दुःखी प्राणी है, वह सुखीही क्यों न हुआ, इसकी वजह क्या, कि इसीको सुख, और इसीको दुःख; दोनों पुरुष एक ही मुहूर्तमें एक ही योगमें, पैसा पैदा करनेका उद्योग करते हैं मगर, एकको पैसा मिल जाता है, जब दूसरा ठंठनपाल सा रहता है, इसका कारण क्या ? । गदहा, चूहा, विल्ली, कुत्ता, गाय,
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धर्मशिक्षा. भैंस वगैरह जानवर, जानवर क्यों हुए, आदमी ही क्यों न बने, आदमी, आदमी ही क्यों बने, जानवर क्यों न हुए ?, ईश्वरकी मौज कहोगे, तो हम पूछते हैं कि विना ही अपराध, जीवोंको ईश्वरने जानवर बनाया, या कुछ अपराध समझ कर ?, अगर विना ही अपराध, ईश्वरने जीवोंको जानवर बना दिया, तो यह बडा जुल्म, विना अपराध दुःख देना, यह किस सृष्टिका कानून ईश्वरने अपने दफतरमें आंक दिया, यह तो सिर्फ मुख पुराणकी गप्प है । कुछ अपराधसे प्राणियों को जानवर बनाया अगर कहोगे, तो साथ साथ यह भी जरा सा कह दें कि किस बातके अपराधसे?, और वह अपराध, जानवर ही जीवोंने किया, और दूसरे मनुष्य जीवोंने क्यों न किया ? । और भी अपराध करनेको बुद्धि, जीवोंको ईश्वरको तरफसे मिली थी, या जीवों में यों ही जाग उठी थी?, अव्वल तो ऐसी, अपराध अथवा पाप करनेको बुद्धिको, इश्वरको चाहिये कि वह हटाता रहे, बुरी बुद्धिका जन्म किसी प्राणीमें न होने दे, जब ईश्वर, सुख दुःख-देनेके व्यवसायमें पंडिताई चलाता रहता है, तो फिर यह ताकत ईश्वरमें नहीं है कि लोगोंकी दुर्बुद्धिको पैदा होती हुई रोक दे ?, पाप करते हुए पुरुष को, ईश्वर अगर देख ही रहा है, और अनंत शक्ति धारी है, तो फिर, उसे पाप कर्मसे क्यों न हटाता ?, क्या पाप कर्म कराके जीवोंको शिक्षा देना ईश्वर उचित समझता है ? यदि यही बात हो, तो ईश्वर महा अधम ठहरेगा, यह किसके घरका न्याय कि जानते-देखते हुए भी शक्तिमंतको, आदमीसे पापकर्म बंद न करवाना, जान बुझके उसे पाप-कर्म करने देना,
और पीछेसे उसे उसके पापका फल देना। राजा महाराजा लो. गोंको तो मालूम न रहनेसे चोरी-बदमाशी करते हुए, लोगोंसे बुरा कर्म छोडवाना नहीं हो सकता, आखिरमें मालूम पड़ने पर,
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धर्मशिक्षा. चोरोंको राजा लोग शिक्षा देते हैं। चोरीके वक्तहीमें अगर चौर, राजा वा उसके अनुचरोंकी नजरमें पड जाय तो, उसी वक्त उसे पकडेगा । मगर बडा ताज्जुब है, कि ईश्वरको तो जब त्रिलोकीकी त्रिकालकी सभी बातें मालूम हैं, और अनन्त शक्तिमान् है, तो फिर पापकर्म करनेके पहले ही पाप करने वाले को पापसे क्यों नहीं रोकता? यह तो वही बात हुई कि कुएँमें गिरनेकी तय्यारीमें प. हुँचे हुए अंधे शख्सको, उधरही खडा हुआ देखता आदमी न बचावे, तो जैसा यह आदमी अधम कहाता है, वैसा ही ईश्वर भी क्यों अधम न कहावेगा? इस लिये कर्म-राजासे फिरते हुए संसारचक्रमें, ईश्वर, अपना हाथ, जरा भी नहीं डाल सकता, यह बात आगे दूर जाके विशेष खोल देंगे । इस लिये धर्म ही से सुख ही पैदा होता है, यह निःसन्देह सिद्धान्त अपनी आत्मामें पक्का जचा कर अव्वल धर्म, अहिंसा-दया पालनी चाहिये। दुनियाकी विचित्र लीला देख बडा अचम्भा पैदा होता है कि सुखको चाहते हुए भी लोग, सुखके कारणभूत धर्मका सत्कार नहीं करते, अगर सुख पाना, हमें पूर्ण मंजूर है, तो विना ही सुखसाधनकी सेवाके, सुख मिल जायगा? कभी नहीं, कारण विना कार्य कभी नहीं हो सकता, कार्यको साधनेमें कारणको पहले अवश्य रहना पडता है, जब कारणके पेट ही में कार्य गुंज रहा है, तो विना कस्तूरी मृगके, कस्तूरीकी तरह विना कारण, कार्यकी प्राप्ति नहीं हो सकती। पेट भरनेके लिये कितनी तकलीफ उठाके बाटा पाक बनाना पडता है, मगर यह तकलीफ दुःख रूप मालूम नहीं पडती, नहीं पडनेका कारण यही है कि आखिरमें पेटकी, दे दनादन पूजा करनी है, शरीरके साढे तीन करोड रोम पर आनंदकी ज्योति जगा देनी है । संसारके विषयानन्दकी प्राप्तिके लिये कुछ कष्ट उठाने पर भी वह कष्ट
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धर्मशिक्षा. जब क्लेश सा नहीं मालूम पडता तो भला ! तीन जगत्का स्वामी धर्म--नाथने क्या अपराध किया, कि उसके सत्कार करनेमें थोडा सा भी कष्ट, असह्य मालूम पडता हुआ, नहीं उठाया जाता । जब धर्म--नाथकी तरफसे सुख सम्पत्तियाँ मिली हैं, और बेफिक्र सुखमय जीवन गुजारते हों ! तो इसकी तरफ कुछ तो खयाल करना चाहिये, समझो ! उपकारीका उपकार भूलना, इसके वाबर मूर्खता और कोई नहीं कही जा सकती।
जब हम दुःखके बड़े द्वेषी हैं-दुःखसे हजारों कोस दूर भाग जाते हैं, और सुख--अमृतकी खोजके लिये दिन रात सिर पचन करते हैं, तो हमें पहले चाहिये कि दुःखके कारणोंका तिरस्कार करें. दुःखके कारणोंसे हजारों कोप्त दूर रहें, जब तक अनिष्टके कारणोंका हटाना नहीं होता, तबतक अनिष्ट कभी नहीं हट सकता, समझो ! कि सामग्री रहते अवश्य कार्यका जन्म हो जाता है, इसलिये दुःख पैदा करने वाली सामग्रोको भी हटानेमें, तनिक सा प्रमाद अगर आ जाय, तो उससे सावधान रहना चाहिये सुखके लिये, वाहरके सुखसाधनोंकी सेवा करनी जब आवश्यक समझी जाती है, तो बडा आश्चर्य है कि सुखका मुख्य साधन, और सुखसाधनोंको इकठे करनेवाले, धर्मकी सेवा करनी आवश्यक नहीं समझी जातो; विना सेनापतिके सेनाकी तरह, प्रधान कारणके सिवाय, गौण साधन मण्डली, अपना कतव्य पूरा नहीं साध सकती। यह अनुभव सिद्ध है, कि सामग्री जूटने पर भी कुछ ही विघ्न ऐसा आके पड जाता है कि सघाता हुआ कार्य एकदम बिगड जाता, इसका कारण क्या? यही कारण है कि उद्यम मजबूत करने पर भी धर्मरूपी चन्द्रमामें किसी अधर्म-राहुका आक्रमण जव हो जाता है, तब आध बोचमें कार्यका भङ्ग हो जाता है, इस लिये महानुभावोंको पक्का विश्वास रखना
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धर्मशिक्षा. चाहिये कि धर्म ही, सुखके और (बाह्य-गौण) साधनोंका अग्रेसर अफसर है। यही, सुखको जन्म देनेवाला है, इसे छोडकर
और कोई उपाय सुखके लिये जो खोजना है, सो जलपानके लिये, स्वादु जलसे भरे हुए प्रत्यक्ष तालावको छोड मृगतृष्णाकी तरफ दौडना है।
क्या बड़ा कुतुहल है कि लोग, धर्मका फल, सुखको तो बराबर चाहते हैं, मगर धर्मको नहीं चाहते ?, इससे बढकर और क्या मूर्खता बतावे कि आमको तो बहुत चाहते हैं, मगर आमवृक्षको उखाड देते हैं। और भी देखो! पापका फल, दुःखको कोई भी नहीं चाहता, मगर पापकर्ममें तो सदा ही कमर कसे हुए रहते हैं, यह कितना अज्ञान, विषफलको तो नहीं चाहते, पर विषवृक्षको बढानेकी कोशिश करते रहते हैं।
साँप, बिच्छू, शेर वगैरहसे हमेशा हम बचनेके खयालमें रहते हैं ; हम समझते हैं कि ये जीव, हमें काटने पर बहुत तकलीफ देते हैं, इसीसे, इनके झालमें पडनेका डर हमेशा हमें रहता है, मगर समझना चाहिये कि जैसे इन्हें दुःखदायक समझ कर अपने सङ्ग में नहीं रखते, वैसे ही अधर्म भी जब सबसे बढकर दुःख देने वाला है, तो फिर उसे क्यों न छोडना चाहिये ?, अपना बड़ा शत्रु, अपना सिर काटने वाला, अपनेको अनादि कालसे दुःख-दावानल पर खूब रडाने वाला, अगर कोई है, तो वही अधर्म-पाप कर्म है। वास्तवमें अगर कहा जाय, तो यही तक्व है कि साँप, बिच्छू, कोई, स्वतन्त्र हो नहीं काट सकता, जिस. पर अधर्मका बादल धूम रहा है, उसी अधर्मी पर तरह तरहकी विपत्तियाँ बुंबारव करती हुई दौडी आती है, पुण्यात्माओंके पुण्य तेजसे तो साँपभी पुष्पमाला हो जाता है, इस लिये यह सिद्धान्त, पुष्ट श्रद्धामें लाना चाहिये कि सुख-दुःखकी बाह्य सा
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धर्मशिक्षा. मग्रीका सूत्रधार, धर्म-अधर्म ही है, और इन्हीं दो चक्रोंसे संसार रथका सदातन चलना रहता है, अतः सुखार्थी पुरुष, धमका प्रथम मर्म, दयाको अपने कण्ठका गहना बनावें, दयाको अपना कण्ठालङ्कार, नेत्रोंकी कनीनिका, और मस्तकका मुकुट (सिरताज ) समझे ।
कितने ही गवार लोग, जान बुझके मक्खी, जू वगैरहको मार देते हैं, न जाने इससे इनके हाथमें क्या आता होगा ?। आदमी जब दूध, घी, मिष्टान्न खा के अपने शरीरको सोनासा खूबसूरत बनाते हैं, तो बेचारी मक्खियाँ, अपने शरीरपर बैठ, थोडासा रस पीवें, तो इतने मात्रमें उन्हें मार देना यह कैसी अज्ञानता? क्या वह, प्राणी नहीं है, क्या उसे मारनेसे हिंसा दोष नहीं लगता। अगर उसका अपने शरीरपर बैठना असह्य मालूम पडता हो, तो बेशक! अवश्य उसे उडा देना चाहिये । शरीरको गन्दामेला-अपवित्र रखना, यह अच्छा नहीं, शरीरकी शुद्धिसे गृहस्थोंका मन भी कुछ निर्मल सा हो जाता है। साधुजन भी बहाँ तक मलिनता और गन्दाफ्न नहीं रखते हैं कि अपने बदन वा कपडेपर क्षुद्र जीव पैदा हो जायँ, परंतु कहनेका मतलब यह है कि क्षुद्र जीव, मारने क्यों चाहिये । कोई क्षुद्र जीव अपने बदन वा कपडे पर बैठ गया हो, तो उसे, धीरे धीरे मरने न पावे, इस तरह हाथमें ले कर बाहर रख देना चाहिये । महानुभावो! धर्म करनेकी मर्यादा मनके ताल्लुक है, जहाँ मनका बाबर खयाल नहीं, वह काम भी अच्छा नहीं होता ।. धर्मका कोई रूप रङ्ग नहीं है, धर्म, मनके उपयोगमें बैठा है । जो आदमी हर काममें बराबर उपयोग ( खयाल ) रखता रहता है, उसको धर्मकी योग्यता प्राप्त हो गई समझो ! सब कुछ काम करो, मगर खयालसे करोगे, अर्थात् कोई जीव मरने न पावे, ऐसा ध्यान
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धर्मशिक्षा. दे के जीव दया पूर्वक करोगे, तो कोई पापका बन्ध नहीं होगा। खूब उपयोगसे काम करते हुए पुरुषसे, अगर अशक्य परिहार कुछ हिंसा हो भी जाय, तो उससे हिंसाका पातक, उस अप्रमादी पुरुषको नहीं लग सकता। विना खयाल, उन्मत्त चेष्टा करते हुए आदमीसे, अगर जीवहिंसा न भी हो, तो भी उस प्रमादी आदमीको हिंसा लग चुकी।
जिनके हिसाबसे शरीर व जीव, एकान्त भिन्न (बिलकुल जुदे) हैं उनके मतसे, शरीर नष्ट होने पर भी जीवको हिंसा, नहीं बननेसे न लगेगी। जिनके अभिप्रायसे शरीर व जीव, बिलकुल एक ही हैं, उनके विचारसे, शरीर नष्ट होजानेसे सुतरां जीव नष्ट हो गया, तो परलोक आदि सब राखमें मिल जायँगे, इसलिये शरीरसे जीवको कथञ्चित् भिन्न, अभिन्न मानना चाहिये ता कि शरीरका नाश होने पर भी जीवको पीडा-तकलीफ आदि बन सकें, और यही हिंसा है, क्योंकि सर्वथा जीबका नाश तो होता ही नहीं, परंतु पूर्व पूर्व योनि-गतिको छोड नई नई गतिओंमें जीवका जो संचरना होता है, अर्थात् एक एक शरीरको छोड दूसरे दूसरे शरीरको जो धारण करना पडता है, उसीको, अगर जीवका नाश हुआ कहें तो कोई हर्जकी बात नहीं इसीसे अक्लमंद लोग शीघ्र समझ सकते कि जीव नित्या-नित्य है, यानी एकान्त नित्य नहीं, और एकान्त अनित्य भी नहीं, क्यों कि जीव का जीवतत्व-स्वरूप कभी नष्ट न होने के कारण, जीव नित्य है, और भिन्न भिन्न शरीरको धारण करनेसे जीवके स्वभाव में बहुत कुछ फेरफार हमेशा होता रहता है, इसीसे जीव अनित्यभी सिद्ध है। इससे यह स्फुट हुआ कि जिसके होते, दुःखकी उत्पत्ति, मनका क्लेश, और उस मनुष्यत्व आदि पर्यायका क्षय होता है, वह हिंसा, बुद्धिमानोंको प्रयत्नसे वर्जनी चाहिये ।
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धर्म शिक्षा.
कितने ही लोगोंका कहना होता है कि हिंसक प्राणियोंको मार देना चाहिये, क्योंकि उन्हें मारनेसे बहुतसे जीवों की रक्षा होनेपर पुण्य होता है, मगर यह विचार बिलकुल भद्दा है, बतलाना चाहिये, कौन ऐसे हिंसक प्राणी हैं कि जिन्हें मारनेसे बहुतों का प्रतिपालन होता हो ?, खोजने पर कौन ऐसा प्राणी न मिलेगा, जो कि हिंसा न करता हो ?, चूहा, बिल्ली, कुत्ता, साँप, मोर वगैरह सभी प्राणी, किसी न किसीके हिंसक है ही हैं, तो क्या सभी प्राणियों को मार देना मुनासिव समझते हों, यह तो लाभकी जगह मूलसे नुकशान आया। खयाल करो! कि अहिंसा से पैदा होनेवाला धर्म, किसी भी हिंसा से, क्या कभी पैदा हो सकता है? कदापि नहीं, जलसे पैदा होनेवाले कमल, आगसे हर्गिज उत्पन्न नहीं हो सकते । हिंसा कैसी भी क्यों न हो ?, मगर वह, यदि पापकी माता हो के बैठी है, तो बतलाईए ! उससे कैसे धर्म वा पुण्य हो सकता है ? वह कैसे पापको नष्ट करेगी ?, क्या मौतका हेतुभूत जहर, जीवितके लिये कभी होगा ? । कभी नहीं।
संसार मोचक लोग कहते हैं कि दुःख पाते हुए जीव, मार देने चाहिये, ता कि वे बेचारे दुःखसे फौरन छुट जायँ, मगर यह भी झूठा कथन है, दुःखी प्राणियोंको मार देनेसे, वे दुःखसे छुट जाते हैं, इसमें सबूत क्या ? आपको किस बृहस्पतिके कहनेसे यह श्रद्धा हुई है कि दुःखी प्राणी, अगर एकदम मार दिये जाय, तो वे दुःखसे छूट जाते हैं, क्या मरकर फिर और गति होगी ही नहीं, अगर होगी तो अच्छी ही होगी ?। दुःखी जीवोंको मारनेसे वे मरकरके अगर नरकमें चले जायँगे, तो बतलाईए ! उन दु:खियोंको दुःखसे हटाया, या ज्यादह
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धर्मशिक्षा. दुःखमें डाला ? इस लिये ऐसे प्रलाप, कानोसे बाहर ही रखने चाहिये, बिना सबूत जिस किसीकी कही हुई बात, सच्ची नहीं मानी जा सकती; दुःखी जीवोंको मार देनसे अगर पुण्य होता हो तो सुखी जीवोंको मारनेसे भी धर्म क्यों कर न होगा ?, क्योंकि सुखी जीवभी, सुखके उन्मादमें पाप ही किया करते हैं, इसलिये उन्हें मार देनेसे, वे पाप कर्मसे बच जायँगे; अतः एसे कुचोद्य कुतर्क, जहाँ तहाँ नहीं अडाने चाहिये। धर्मका विचार, सुस्थ हृदयसे सुशास्त्रोंके आधार पर करनेसे धर्मका सच्चा मार्ग मिलता है ।
चार्वाक (नास्तिक) लोग कहते हैं कि शरीरसे जुदा कोई जीव ही नहीं, फिर दयाकी क्या बात करनी?, मगर यह कहना बिलकुल प्रमाणसे बाधित है, किस सबूत से चार्वाक लोग जीवका निषेध करते होंगे? यह पहले बतायें, क्या प्रत्यक्ष प्रमाणसे?, नहीं, प्रत्यक्ष प्रमाण, तो उलटा शरीरसे अतिरिक्त आत्माको सिद्ध करता है, खयाल.करें कि सुख दुःखादिका "मैं सुखी, मैं दुःखो" यह जो आन्तरिक भान होता है, इसमें 'मैं' करके किसका ग्रहण होगा? क्या शरीरका? नहीं, शरीर तो भूत समूहात्मक है, समुदायमें 'मैं' ऐसी एक कर्तृक एकाकार प्रतीति नहीं हो सकती, बस! यही प्रतीति, भूत समूहात्मक शरीर, और पांच इन्द्रियोंके अतिरिक्त, ज्ञानयन, चैतन्यस्वरूप अपौलिक जीवको साबीत करती है ।
अगर चे शरीरको ज्ञान सुख वगैरहका आश्रय माना जाय, तो मृतक (लोथ) को भी इनका आश्रय मानना पडेगा, जब शरीर ही ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न वगैरहका अधिकरण है, तो फिर शरीरत्व समान रहते, मृतकको क्यों जला देना चाहिये?, कहोगे ! प्राण नहीं रहनेसे काष्ट जैसै टुंठे शरीरमें, ज्ञान ૧૦
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धर्मशिक्षा. वगैरह कुछ नहीं रह सकते, तो बतलाना चाहिये कि प्राणोंके संयोग-वियोग होनेका प्रयोजक कौन है ? भूतोंके विलक्षण संयोग ही को अगर प्रयोजक कहोगे, तो अन्यत्र भी, जहाँ पृथ्वी, जल, आग, वायु, का समुच्चय परस्पर परिणत हुआ है, ज्ञान वगैरह गुण पाने चाहिये, वहां भी जीव-चैतन्य व्यवहार, किससे हटेगा।
यदि इन्द्रियोंको आत्मा मानी जाय, तो चक्षु इन्द्रिय नष्ट होने पर भी पहले चक्षुसे जो जो चीजें देखी गई, उनका स्मरण जो होता है, वह न होगा, क्यों होना चाहिये? चक्षु तो नष्ट हो गई, देखा था चक्षु ने, फिर चक्षु के अभावमें देखी हुई चीजका स्मरण, चक्षु को तो होवे ही कहांसे ?।
दूसरी इन्द्रियाँ भी उसका स्मरण हर्गिज नहीं कर सकतीं, क्यों कि चक्षुकी देखी हुई चीजको दूसरी इन्द्रियाँ कैसे स्मरण कर सकें ? एक आदमीकी देखी हुई चीजका, उसे न देखा हुआ दूसरा आदमी क्या स्मरण कर सकता है ? कभी नहीं। मैंने देखा, मैंने सुना, मैंने छुआ, मैंने गन्ध लिया, मैंने स्वाद लिया, इन पांच इन्द्रियोंके पांचों, रूप वगैरह विषयों के ग्रहणमें, कर्ता, (विषय भोक्ता) 'मैंने' इस आकारसे जब एकही मालूम पडता है, तो फिर इन्द्रियों में जीवतत्त्व कैसे सिद्ध हो सकता है ?, अगर इन्द्रियाँ ही जीवतत्व होती, तो बतलाईए ! "जिस चीजको मैंने देखा था, उसीका इसवक्त मैं स्पर्श करता हूँ" ऐसा दर्शन, और स्पर्शन, दोनोंके एक ही कर्ता विषयक भान कैसे होता?, इस लिये भूत समूह, और इन्द्रियोंसे जुदी एक व्यक्ति, शक्ति, अवश्य माननी पडेगी, और वही आत्मा, जीव, चेतन, ज्ञानधन वगैरह पर्याय नामोंका शक्य, अभिधेय, वाच्यार्थ है ।
__ अनुमान प्रमाणसे भी आत्मा बराबर सिद्ध है, मगर अ. नुमान तो नास्तिकों को सम्मत नहीं, इसलिये अनुमानका प्रयोग
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धर्मशिक्षा. करना व्यर्थ ही समझते । हमें बडा अचम्भा होता है कि नास्तिकोंकी अक्ल, लडकोंसे भी क्या कम होगी ? कि वे धूम देखनेसे आगको मालूम नहीं कर सकते; बतलाना चाहिये, धूमके देखने से अदृष्ट आगका जो मानसिक ज्ञान होता है, अर्थात् जहाँ धूमकी अविच्छिन्न शिखा देखी कि झट यह मालूम हो जाता है, कि यहाँ आग जरूर होनी चाहिये, यह जो भान होता है, वह संशय रूप है, या निश्चय रूप ? । अगर संशय रूप कहोगे, तो संशय होनेका कारण बताना चाहिये?, जब कि आगको छोड धूम कहीं जुदा नहीं रहता, तो फिर धूमके देखनेके बाद, आगके अभाव ( नहीं होने ) का अंश, जो संशय-ज्ञान रूप तराजू की एक तुला पर झुल रहा है, वह काहेको झुलेगा ?। संशय तो तब ही जाग उठता है कि दो धर्मोमेंसे, एक धर्मकी निश्चायक पुष्ट सबूत न दिखाई दे, जैसे कि घन अंधकारसे स्पष्ट न दिखाई देती दूर वर्ति, उँची, कुछ चौडी, चीज पर यह सन्देह जरूर जाग उठता है, कि यह वृक्ष होगा, या आदमी ?, क्यों कि यहाँ पर, मनुष्य, और वृक्ष के, कुछ समान धर्म, दिखाई देने, और उसके नियमित विशेष धर्म न दिखाई देनेसे, ऐसा ज्ञान पैदा हो जाता है, जोकि दोला की तरह वृक्ष, और मनुष्य, दोनों तरफ लहरता हैं, मगर प्रकृत में धूम देखने से आगके सन्देह होने का कामही क्या ? कौन सी ऐसी आँच लगती है कि धूमकी जगह पर आगका निश्चय, अच्छी रीतिसे न हो सके । जब समझने वाले यह समझते हैं कि धूम, आगका कार्य है, और कार्य, सिवाय कारण, कभी उत्पन्न नहीं हो सकता, तो फिर, वे लोग, जिस जगह धूम को देखेंगे, वहांपर उनको अग्निका निश्चय होने में कुछ देर लगसकती है ? नहीं, तो चार्वाक लोग, यह कैसे कहते हैं, कि अनुमान कोई प्रमाण नहीं, जब धूम के दर्शन द्वारा आगका
जातावशष धर्म न मि , दिखाई
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शिक्षा. निश्चय ही होता है, न कि संशय, तो फिर वह निश्चय, सत्यरूप होने से, कुछ न कुछ प्रमाण ही सिद्ध ठहरता है, प्रमाण में भी, वह, प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, यह तो स्फुटही है, रहा, अनुमान, अनुमान वह चीजहै, कि जहाँ जिस वस्तुका प्रत्यक्ष नहीं होता, वहाँ
मरी चीज के (जो कि उसको छोड रहती ही नहीं) द्वारा उसका निश्चय करना, इसी रीतिसे, धूमके दर्शन द्वारा आगका जो सत्य निश्चय, होता है, वह अनुमान ही साबीत होता है, और ऐसा निश्चय, लडके तकभी कर लेते हैं, तो क्या चार्वाकों से नहीं हो सकेगा ?, जब ऐसा निश्चय होना, नास्तिकों को मंजूर है, तो नहीं चाहते हुए भी उनके गलेमें, अनुमान प्रमाण का फांसा बरबर आ गिरा।
इस अनुमान प्रमाणसे भी-ज्ञानादि गुणों द्वारा उनके अनुरूप आश्रयकी सिद्धि होती हुई, मूर्त पौगलिक शरीर आदि. को हटाकर जीव ही में विश्रान्ति लेती है। __आगम प्रमाणसे भी आत्मा बखूबी सिद्ध होता है, और अनुमान प्रमाणकी तरह उसे भी प्रमाण माने बिदुन चार्वाकों (नास्तिकों) और बौद्धको छुटकारा नहीं है। जब सत्य शब्दसे सत्य अर्थका संवाद होता ही है, और दुनिया भरका व्यवहार शब्दद्वारा चला ही करता है, तो फिर शब्दको अप्रमाण, नास्तिक व बौद्ध लोग,काहेको कहेंगे?, ठगनेवाले आदमीके शब्द, यद्यपि अप्रमाण होते हैं, परंतु इसीसे शब्द मात्रमें प्रमाणताका तिरस्कार नहीं हो सकता, वरना प्रत्यक्ष भी प्रमाण नहीं बचेगा, क्या प्रत्यक्ष भी झुठा नहीं होता ?, साँपमें रस्सीका, मृगणिकामें तालावका, बिजली लाइटमें चन्द्रमाका, सफेद कपडमें कागजका, धोले कागजमें कपडेका, वृक्षमें आदमीका, हल्दीमें पीले रंगका जो प्रत्यक्ष होता है, वह क्या सच्चा है ?, नहीं, तो भी जैसे और प्रत्यक्षोंमें संवा
होती हुई नाद गुणों द्वारा
हटाकर जीव
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धर्मशिक्षा. दिस्व देख प्रत्यक्षको प्रमाण, माना गया है, वैसे ही और शब्दों. में संवाद देख, शब्दको भी प्रमाण क्यों न मानना चाहिये ? अन्यथा अर्ध जरतीय न्यायकी बदबू लेनी पड़ेगी।
सब आस्तिक दर्शनोंके आगम, आत्माको जब साबीत करते हैं, तो एक ही चार्वाकका किया हुआ, आत्मवाद खंडन, किस बुद्धिमानको असरकारक होगा ? । सब विद्वानोंका, आत्मतत्त्वपर जब पुख्ता विश्वास है, तो एक चार्वाकका, आत्मवाद खंडन अमामाणिक ही सिद्ध होता है। बहुत महाजनोंकी, जिस बातपर मजबूत सम्मतियाँ छुटती हैं, तो, उस बात पर एक आ. दमी अगर विरुद्ध अभिप्राय दे देवे, मगर उसकी एक भी नहीं सुनी जाती, इसलिये आत्मवाद पर, नास्तिकोंका विरुद्ध आक्षेप, आस्तिक विद्वान् गणोंके सामने कुछभी सफल नहीं हो सकता यह विषय जितना स्फुट-स्पष्ट है, उतना ही युक्ति चर्चाके ढेरसे भरा है, मगर यहाँ इसको स्वतन्त्र स्थान नहीं दिया है. जिससे कि पूर्ण रीतिसे वाद-प्रतिवादकी कोटियाँ इस विषयपर, लहरादें।
. उक्त संक्षिप्त दलीलोंसे आत्मा जब निःगडा सिद्ध है, तो उसकी, प्राणोंके वियोग कर देनेसे, जो हिसा होती है, उसका परिहार कर दया व्रत पालना चाहिये ।।
यदि दया व्रतको अपने हृदयका आभरण न बनाया, तो कितना भी दम, देवभक्ति, गुरु सेवा, दान, अध्ययन, तप वगैरह किया करो, मगर सब निष्फलही हैं। क्या अफसोस बतायें, शम, शील, और दया है मजबूत पूल जिसका, ऐसे धर्मको छोड मन्दोंने हिंसाको भी धर्ममें शामिल रख ली, मगर तत्त्व तो यह है कि किसी भी कामके लिये कैती भी हिला नहीं करनी चाहिये, कैसा भी समझकर कैसी भी हिंसा अगर करोगे, तो वह पा
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धर्मशिक्षा पहीका मूल है, दुर्गतिको जन्म देनेवाली है। जो पुरुष, जीवोंको अभयदान देता है, उसको जीवोंसे भय नहीं रहता। अहिंसा, (दया) सब भूतोंकी माता है, अहिंसा, प्राणिओंको हित करनेवाली है, अहिंसा, संसाररूपी मारवाडमें अमृतका तालाव है, अहिंसा, दुःख दावानलको शान्त करनेका भ्रमर-श्याम घन मेघ पटल है, और अहिंसा, भवभ्रमणरुप रोगसे पीडाते हुए लोगोंकी परम औषधी है ।
ऐसा, दया देवीका वात्सल्य रहते पर भी कितने ही गँवार लोग, अपने पुत्रके पोषण के लिये, अथवा लडका पैदा करनके लिये, या अन्य किसी मतलबके लिये देवीके आगे पशुको शस्त्र प्रहारसे मार कर बलिदान चढाते है, परंतु यह महा पापी पन है, अपने पुत्रके लिये पशुके पुत्रको मार देना यह कितनी अधमता, और पागलपन? । आदमी को जानवर मारनेका हुक्म क्या ईश्वरसे मिला है? जिससे कि विना ही विचार जानवरोंके ऊपर एकदम शस्त्र फिराते हैं। क्या जगत्की माता देवी, अपने पुत्रका बलिदान चाहती है ?, देवी, जगत्की माता हो के भी जगत्के अन्तर्गत पशुको (अपने छोटे पुत्रको) मार देना, अपने नजरहीके सामने पशुका गला काटना, क्या पसंद करती है ? इनिज नहीं । देवीको भोग चढाने के लिये और मालपाक मिष्टान्न क्या नहीं मिल सकते, उन्हें क्या कौऐं बिलकुळ खा गये है ? । देवी, पशुके शिरका बलिदान अगर अन्तःकरणसे चाहती हो, तो बतलाईए! उसके पास पशु बांधकर, मन्दिरके द्वार बंदकरने पर, रातको वह, पशुको क्यों भोगमें नहीं लाती? । भक्त लोगोंकी, देवीके पास पशु चढानेकी जो इच्छा वा प्रतिज्ञा थी, वह तो इस प्रकार करनेसे बराबर पूरी हो सकती है, फिर पशुकी जान, फिजूल क्यों लेनी चाहिये, समझो! जीवोंको दुःख देना, जीवोंको मारना,
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धर्मशिक्षा.
जीवोंको कतल करना, यह किसी हालतमें धर्म नहीं हो सकता, अन्यथा सब लोग, आपस आपसमें लडाई कर, एक दुसरेको मारकर, धर्मात्मा कहे जायँगे । धर्म तो क्या? कुछ भी चाहना, कुछ भी मनोरथ, हिंसा से सिद्ध नहीं हो सकता, उलटा दुःख ही दुःख उठाना पडता है। देवी, कोई मानुषी नहीं है, कि मनुष्योंकी तरह कवल भोजन करेगी । जब, देवी हमारी तरह कुछ भी खाती-पीती नहीं, तो हम नहीं समझते कि किस विचारसे, किस मनसे, किस उद्देशसे, उसको पशुके शिरका भोग दिया जाता होगा।
हमतो वहाँतक कहते हैं कि कैसी भी आपदा, कैसा भी कष्ट, कल आता हो, तो आज ही क्यों न आवे ?, मगर धर्मको छोड अधर्मकी बगलमें क्यों घुसना चाहिये । सर्पके मुँहसे जब कुछ निकलेगा, तब विष ही, वैसे ही हिंसा-अधर्मसे कभी अच्छी बात, सुखका नाम नहीं निकल सकता, जो चीज हमारी दी हुई है, अथवा जिस चीजमें हमारा अधिकार है, उसीको हम कथंचित् उठा सकते हैं, मगर पशुओंके प्राण, हमारे दिये हुए नहीं, उनपर हमारा कुछ भी अधिकार नहीं, तो फिर प्रकृतिके ताल्लुक उनपर, हमारा आक्रमण कैसे हो सकता है ? उनको हटा देना, पशुओंकी आत्मासे जुदा करना, यह काम हमसे कैसे हो सकता है ?। दूसरेकी की हुई घटनाको तोडदेनेका शासन, हमें जब मिला ही नहीं, तो फिर हम पशुओंको मारते हुए इरादा पूर्वक बडे गुनहगार ठहरते हैं, और इस अपराधकी सजा प्रकृतिक राज्यमें अवश्य मिले बिदुन नहीं रहेगी, इसलिये, परम पवित्र, अनादि-प्रधान, दया धर्म अवश्य पालना चाहिये, वह, अगर हमसे रक्षित होगा, तब ही हमारी रक्षा करेगा, और दीर्घ आयु, खूबसूरत रूप, आरोग्य, और इज्जत, वगैरह सम्पदाओंसे भेट करावेगा। ज्यादह क्या कहें ?, पर्वतोंमें मेरु, देवता
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धर्मशिक्षा. ऑमें इंद्र, राजाओंमें चक्रवर्ती, ज्योतिषोंमें चन्छ, वृक्षोंमें कल्पवृक्ष, ग्रहोंमें सूर्य, और जलाशयों में, समुद्रकी तरह, सब व्रतोंमेंसब धर्मों में सब नियमों में-सब गुणोंमें, दया-अहिंसाही अधिपति पदवीको शोभा रही है, और यही वास्तविक मनुष्यत्व है, इसके सिवाय आदमीका जीवन, व्यवहारमें राक्षसके बराबर मशहूर है, इसलिये छोटे प्राणिओं, और विशेषतः बड़े जानवरोंको तो जरूर दया नजरसे निहालना चाहिये । गौ, भैंस, और बकरो वगैरहकी रक्षा होगी तो भारत की सन्तानकी जो शारीरिक निर्बलता, और दिमागकी कमजोरी, वर्तमानमें बढ़ रही है, वह धीरे धीरे अवश्य पलायन करती जायगी। बड़े जानवरोंकी जो रक्षा करनी है, यह सिर्फ धर्म ही न समझें, बल्कि देशकी उन्नतिका भी पःमसाधन है, जैसे गौकी रक्षा अति आवश्यक समझी जातीहै, वैसे गद हे बैल वगैरहभी अवश्य रक्षित होनेके काबिल हैं, उनसे खेत वगैरहका अत्यावश्यक काम बहुत अच्छा पूरा पडता है । यह दया धर्म कैसा उमदा है ! कि दया, कि दया, और देशका अभ्युदय। हमारे भारत वासियोंको इस बातपर जरूर ध्यान खींचनेकी अत्यावश्यकता है, और देश भक्तोंको, पशुरक्षा पर कमर कसके आहोम प्रवृत्ति करनेकी भूरिभूरि सविनय अन्यर्थना और सूचना है। ___एतावता गृहस्थोंके लिये दयावत पालनेका नियम यह निकला
निरपराधि त्रस जीवोंको संकल्प ( हननेकी बुद्धि ) से नहीं माऊँ; मगर उसमें भी, अनिवार्य कारण आ पडे, तो वह बात न्यारी है, इस प्रकार पहिला स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत पूरा हुआ ॥
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धर्मशिक्षा.
दूसरा मृषावाद विरमण व्रत
किसी भी वक्त मृषावाद-असत्य वचन नहीं बोलना चाहिये, समझो ! कि मृषावाद बोलनेका प्रयोजन ही क्या है ?, क्या सत्य वचन बोलनेसे कोई शिर काट लेता है ?, शिर भी क्यों न काट ले ?, मरना कितनी बार है ?, एकवार जब मरना ही है, तो फिर मरनेसे डरना क्यों ?, अधर्मका पल्ला पकडकर जीना अच्छा, या धर्म कर, अर्थात् धर्मके प्रतिपालनके प्रसङ्गमें मरना अच्छा ?; इस जीवनका थोडासा आराम उठानेके लिये हम जो असत्य भाषा बोलते हैं, तो वह आराम-वह जीवनकी मौज क्या कायम रहेगी ?, हर्गिज नहीं, झूठ बोलो :, या सच बोलो !, यह जीवन चला जानेवाला है, इसमें कोई शक नहीं, जब यही बात है, तो फिर सच बोलकर धर्म ही का उपार्जन क्यों न करें, ता कि परलोकमें सुख सम्पदाएँतो मिले; जो आदमी असत्य बोलता है, उस आदमीका व्यवहारमें, कोई, विश्वास नहीं करता, असत्य बचनसे लघुता, निन्दा, जगत्में पसरती है, और, " अज शब्दका अर्थ बकरा है" इतने ही मात्र असत्य वचनसे वसुराजाकी तरह नरकगति होती है। बुद्धिमानोंको चाहिये कि प्रमादसे भी मिथ्या भाषण न करें । जिससे, प्रचण्ड पवनसे, महा वृक्षोंकी तरह, कल्याणके खम्भे थी चूर्ण हो जाते हैं, वह मृषावाद, भयङ्कर वेतालकी तरह प्राणीयोंके सब पुण्योंको लुकमे बनाता हुआ, कैसे आदरणीय हो सकता है ?। असत्य वचनसे, वैर, विरोध, झबडा, अविश्वास, पश्चात्ताप, और राजासे अपमान, वगैरह बहुत दोष उत्पन्न होते हैं, यह बात, आंखोंके सामने बनती हुई सबको विदित होने पर भी, जो अज्ञानी, पद पदमें मृषावाद
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धर्मशिक्षा. का दुर्व्यसन नहीं छोडते, वे धर्मके सच्चे प्रेमी ही नहीं हैं । धर्म, धर्म, कहनेसे धर्मात्मा नहीं बन सकते, किंतु धर्मकी क्रियाका, यथा योग्य आदर करनेसे धर्मात्मा बनते हैं। जो अज्ञानी कहते हैं कि हमें धर्मात्मा नहीं बनना है, तो उन्हें पापात्मा ही रहने देना चाहिये, धर्म, कोई जबर दस्तीसे नहीं कराया जाता, जिनकी तकदीरका सितारा चमक रहा हो, वे ही सज्जन, धर्मकी सडकके मुसाफिर हो सकते हैं। जगत्में पापी लोगोंका ढेर है, पर धर्मात्मा थोडे हैं, जिनका अन्तःकरण, भीतर ही, संसारकी प्रचण्ड गर्मीके जुल्मसे संतप्त-व्याकुल होता है, वे ही, धर्मरूपी सुधाको पीनेके लिये, मुनिजनों के पास चले जाते हैं, और बड़े प्यासे होनेसे, आकण्ठ धर्म सुधाको पी कर प्रफुल्लित मुखकमल, विकस्वर रोम, और रक्त वर्णवाले बनजाते हैं । धर्मका कोई मूल्य नहीं, अगर मूल्य है भी, पर वह मूल्य, सम्राट तक महाराजाधिराजोंको नहीं मिल सकता, जब दरिद्र, कंगाल आदमी भी धर्मको खरीद कर सकता है, धर्म एक स्वमनोगम्य, अगोचर, अद्भुत, आनन्दमय, चीज है, पर उसका अनुभव--प्रकाश सबको नहीं हो सकता, इसलिये शास्त्रकारोंने, जीवों में, धर्मकी वास्तविक रोशनीको जगानेके उद्देशसे, दया, सत्यवचन वगैरह दीप शलाकाएँ प्रकाशित की है, इन्हें जो स्वीकार नहीं करते, वे, अपनी आत्मामें धर्मकी रोशनी हर्गिज नहीं जगा सकते, इसलिये दया व्रतके बाद मृषावादके परित्याग करनेका यह उपदेश चला है । तात्विक दृष्टि करने पर मृषावादके चार भेद हैं, भूतनिन्हव १, अभूतोद्भावन, अर्थान्तर ३, और गहरे ४। उनमें प्रथम भूतनिन्हव, यानी सद्भुत पदार्थका अपलाप करना (नहीं है, ऐसा कहदेना)। जैसे, आत्मा नहीं, पुण्य नहीं, पाप नहीं, परलोक नहीं, मोक्ष नहीं, वगैरह । दूसरा अभूतोद्भावन अर्थात् असद्रूपको मान लेना, जैसे,
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धशिक्षा.
आत्मा सर्वत्र व्यापक है, इत्यादि । तीसरा अर्थान्तर, यानी दूसरी चीजको दूसरी कह देना, जैसे गायको घोडा कहना। चौथा गर्दा-मृषावाद, तीन प्रकारका है-एक सावध व्यापारका प्रवर्तन कराना, जैसे, 'खेतका कर्षण करो!' दूसरा अप्रिय, जैसे 'अंधे पुरुषको अंधा कहना, तीसरा आक्रोश करना, जैसे 'अरे व्यभिचारिणीका पुत्र' इत्यादि तिरस्कार गर्भित आक्रोश करना । अगर सर्व प्रकारसे मृषावादका परित्याग करना न बन सके, तो इतनी बातोंका मृषावाद तो जरूर वर्जना चाहिये-एक कन्या विषयक गप्प, ? । गाय विषपक गप्प, २ । भूमी विषयक गप्प, ३ । अपने पास किसी आदमीकी रक्खी हुई चीज (सुवर्ण आदि) का अपहार करना, उसे वापिस नहीं देनेके लिये नाना प्रकार प्रपञ्चयुक्त कहना, ४ । और झूठी साक्षी देना, ए । इन पाँचों में और सभी प्रकारके बडे बडे मृषावाद शामिल ही समझने चाहियें । ये मृषावाद बडे भयङ्कर, और इस जन्म व परलोकमें अति दारुण दुःख विपाकसे भेटानेवाले हैं। भूखा मरना बहत्तर है, कंगाल रहना अच्छा है, यशोद्धि न होना ठीक है, बापदादोंकी कार्य प्रणालीसे नीचे उतर जाना उमदा है, व्यवहार पद्धतिका प्रतिपालन, न वन आवे तो, नहीं करना उचित है, मगर पूर्वोक्त पांच प्रकारके, और उनके अन्तर्गत और बडे मृषावाद, दृष्टि विष महा सर्पकी तरह कभी नहीं सेवने चाहियें, इनके सेवनसे अपार दुःखराशि उठाना है, और उनके नहीं सपनेसे, अगर कंगाल स्थिति हो, तो इसी जन्ममें थोडासा कर उठा कर, परलोकमें बहुत आनंद प्राप्त करना है । मगर यह तो अवश्य खयालमें रहे कि दुष्ट हालाहल मृषावादका पल्ला पकडकर यदि कोई धनी होना चाहे, तो कभी नहीं हो सकता, अगर च हो जाय, तो भी कहाँ तक? थोडे ही मुद्दत तक । भयङ्कर मृषावा
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धर्मशिक्षा.
दका अनुचर बन, चिरस्थायी, प्रासाद-रमणी-बगीचेमें एशआराम उडाना, यह कभी स्वप्नमें भी सम्भावना नहीं हो सकती ?, ऐसी सम्भावना, स्वप्नमें क्या, जागृत अवस्थामें अगर हो भी जाय, तो भी उसको फलवती होना, आकाशके फलवान् होने के बराबर है, इस लिये मृषावादका संग कदापि करना नहीं चाहिये।
यहाँ यह शङ्का उपस्थित हो सकती है, कि मृषावाद विरमण वगैरह सभी व्रते, अहिंसा-दयारूपी बागके रक्षण करनेका किला होनेसे, मृषावाद विरमण व्रत अर्थात् सत्य वचन भी, 'मृग किस तरफ चले गये ? ऐसे शिकारी लोगोंके पूछने पर वहाँ खडा रहा जानकार आदमी, अगर नहीं बोलेगा, और 'मैं नहीं जानता हूं' इत्यादि कुछ मृषा बोल देगा, तो वेशक ! उसकी तरफसे मृगोंकी हिंसा बच जायगी, मगर सत्यवतके भङ्गका दोष, वैसेका वैसा ही उसको शिरपर उठाना पडेगा, अगर चे, वह, सत्य व्रतके प्रतिपालनका मन पका रखेगा, तो वह खुद जीवहिंसाका प्रयोजक बननेसे हिंसा पापसे पातकी ठहरेगा, यह तो और भी ज्यादह नुकशान, तो ऐसे प्रसङ्गपर किस प्रकार वर्तना चाहिये, जिससे कि हिंसाका प्रयोजक न बननेके साथ सत्यवादिपन रक्षित रहे?।
ऐसे प्रसङ्गपर अगर विवेक पूर्वक मौन करनेसे काम सरजाय, तो अच्छा है, नहीं तो जानते हुए भी पुरुषको उस वक्त साफ उलटा बोल देना चाहिये कि "मुझे नहीं मालूम" । ऐसा कहनेसे मृषावादका पाप नहीं लग सकता, क्यों कि मृषावाद विरमण, यानी सत्यव्रतमें सत्य शब्दका यह तात्पर्य है कि सद अर्थात् भूतों (जीवों)को हितकारी-हित करनेवाला, अर्थात् जीवको क्लेश होनेका कारणभून नहीं, ऐसा जो वचन है, वही सत्य है, इस लिये उक्त प्रसङ्गपर, जो उलटा बोलना है, वह, सत्य श
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धर्मशिक्षा. ब्दक अर्थानुसार, सत्यत्रतका रत्तीभर भी उल्लंघन नहीं करना है, बल्कि सत्यव्रतकी मर्यादामां शामिल है ।
जो महाशय, मोक्षके मार्ग-ज्ञान, क्रियाका मूलभूत, सत्यवचनही बोलते हैं, उनके चरणोंके रेणु कोंसे पृथिवी पवित्र रहती है । सत्यव्रत रूपी धनसे संपन्न जो सज्जन, मृषावाद बिलकुल नहीं बोलते, उन्हें, भूत, प्रेत, सर्प, वगैरह कुछभी कष्ट नहीं पहुँचा सकते । वैर, विरोधका कारण भूत, मर्म भेदी, असूया जनक, शङ्कनका स्थान भूत, कर्कश, ऐसा वचन, पूछने परभी नही बोलना चाहिये । धर्मका ध्वंश होता हो, क्रियाका लोप होता हो, स्व सिद्धान्त के अर्थका अनर्थ हो जाता हो, तो, उसका प्रतीकार करनेके लिये, विना पूछेभी शक्तिमान् पुरुषको अवश्य समुचित बोलना चाहिये। समझो ! कि प्रहारका चिन्ह तो शान्त हो जाता है, परन्तु दुर्वचन-तिरस्कार वचनके चिन्ह को शान्त होना बडा ही मुश्किल है। चन्दन, चन्द्रकी रोशनी, चन्द्रमणि, मोतीकी माला वगैरह, जितना आल्हाद नहीं दे सकते, उतना आल्हाद, सत्य वाणीसे प्राप्त होता है । चाहे, शिखी हो, वा मुण्डी, जटाधारी, नग्न, अथवा प्रबल तपस्वी हो, मगर वह अगर असत्य वादी होगा, तो निन्दाका पात्र ही है । पारदारिक ( परस्त्री गमन करनेवाले) लोगोंका तो फिरभी कुछ प्रतीकार हो सकता है, म. गर असत्य वादिका कहीं निस्तार नही देखते । सत्यवचनके प्रभावसे राजा लोग, सत्यवादीकी बातको शिरपर उठा लेते है,
और देवता लागेभी सत्यवादीका पक्षपात करते हैं, तथा आग वगैरह विषम अवस्थाएँभी सत्यवादी महात्माके सत्य तेजको नही सहन करती हुई शान्त हो जाती हैं, ये सब सत्य वचनके प्रभाव देख, विना धन व्ययके सुलभ, विना परिश्रमकेभी प्राप्य, सर्व दुःखोंको निकन्दन करने वाला, इस लोक, और परलोकमें
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धर्मशिक्षा.
कीर्तिको फैलाने वाला, हरिश्चन्द्र राजाकी तरह यावच्चन्द्र दिवाकर नाम रेखाको त्रिलोकीमें स्थायी रखने वाला, सभी ब्रह्मचर्यादि नियमोंको उज्ज्वलित रखने वाला, अन्यायको रत्ती भरभी अवकाश नहीं देने वाला, सर्व सम्पत्तिओंका मूल मन्त्र, और मुक्ति वनिताका वशी करण, सत्य वचन, हमेशा अपनी जिह्वापर बिराजे रहे, ऐसी कोशिश करनी चाहिये ।
तीसरा अदत्तादान विरमण व्रत
'अदत्त नहीं दी हुई वस्तुको, ' आदान उठा लेना, यह अदत्तादान, पापस्थानक है, उससे विराम लेना, यह पाप नहीं करना, पूछकर वस्तुको उठाना, यह तीसरा, अदत्तादान विरमण नामक व्रत है।
नीचे जमीन पर गिर गई, कहीं रख छोडी हुई ( जिसका स्मरण मालिकको न होता हो ), कहीं चली गई हुई, (जो मा. लिकके खयालमें न हो) मालिकके पास रही हुई, स्थापनकी हुई, और जमीनमें गाड रख्खी हुई, दूसरेकी चीज ( द्रव्य वगैरह) को, कभी नहीं ग्रहण करना चाहिये । चोरी करनेवाला आदमी दुर्भागी, दरिद्र, नौकर, दास, वगैरह क्षुद्र हद पर पहुँचता है,
और हाथ, पैरके कटवानेके भी प्रसङ्ग में आता है, ऐसा, भयङ्कर, चोरीका फल देख, कभी चोरी करनेका मन नहीं करना चा. हिये । तत्त्वदृष्टि करते यह मालूम होता है कि चोरी करने वाला पुरुष, दूसरेकी चोरी क्या करेगा ?, अगलतो अपनेही स्वार्थकी चोरीकरताहै,क्योंकि चोर पुरुषचारीरूप आगसे,अपना यहलोक परलोक, धर्म, धैर्य, स्वस्थता, और विवेक,सवको खाक बनाता है, यह
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धर्मशिक्षा.
अपने ही स्वार्थमें नुकशान हुआ देख, जो, चोरीसे विराम लेता है, वह, फिर भी धर्मकी सडक पर वराबर पहुँच सकता है, और इस लोक, परलोकका सुधार कर सकता है । समझो ! कि एक जीवको कतल करनेमें उसको क्षणभर ही वेदना--पीडा होती है, मगर चोरी करनेसे, जिसका धन लुटाया होगा, उस अकेलेको क्या?, सारे घरको, सारे जीवन तक दुःख हुआ करेगा, इसलिये हिंसा करनेवालेसे भी चोरो करनेवाला बडा दुष्ट है, इसमें क्या कहना? । चौरीरूप पापक्षके, वध, बन्ध, वगैरह, इहलोक सम्बन्धी, और परलोकमें नरक वेदना, फल है। चोरी करनेवालेको, मित्र, पुत्र, कलत्र, (स्त्री) भ्राता, (भाई) माता, पिता वगैरह, प्रेम नजरसे नहीं देखते, और उसका सङ्ग भी नहीं करते, क्योंकि चोरको, स्थान देनेवाला, अन्न देनेवाला, और उसका सङ्गी भी, चोरकी तरह राजाकी सजाका पात्र होता है, इसलिये जो महाशय, चोरी. से दूर रहते हैं, उनको स्वयं लक्ष्मीदेवी समीप आके वरती है। संतोष रखनेवाले धर्मात्माओंके अनर्थ, दूर हटजाते हैं, और उनकी, कुन्द कुसुमकी भांति विशुद्ध उज्ज्वल कीर्ति पसरती है, तथा स्वर्गके सुख, उनके करकमलमें आके खेला करते हैं ।
बहत्तर है, अनिकी शिखाका पान करना, और अच्छा है, साँपके मुँहका चुम्बन करना, और उचित है, विषका आस्वाद लेना, मगर पुरुष होके-मनुष्य होके, परद्रव्यका हरण करना, यह बिलकुल बेशरम और अधमपनकी बात है । अन्याय करके पेट भरना, और इस शरीरको भला मनाना, इससे तो गलेपर छुरी फेरके मरजाना बहत्तर है । चोरी जैसा बडा अन्याय कर के अधर्मी जीवन गुजारना, इससे तो साधुवृत्तिसे धर्मात्मा बनके अपना पेट भरनेके साथ ही परलोक सुधारना कैप्ती हजार गुणी उमदा बात है? । मगर साधु होना बड़ी कठिन बात है, भूखा म
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धर्मशिक्षा.
रना, घर घर भटक कर भीख माँगना लोग अच्छा समझते हैं, दो चार रुपयों के दास बनके जूता उठाना, अच्छी जातिवाले लोग भी पसंद करते, मगर उन्हें दीक्षा लेनेकी बात यदि सुनाई जाय, तो झट वे मुँह मरोड देते हैं, एक भी नहीं सुनते; तरह तरहकी संसारकी दारुण आपदाएँ भोगते हुए भी आदमीका मन साधुकृत्तिकी तरफ नहीं जाता, यह कितना मोहराजाका प्र. कोप?, खैर, गृहस्थपनहीमें अगर न्यायरीतिसे चलें, यह तीसरा व्रत बराबर पालें, तो भी बहुत सौभाग्यकी बात है । जिनकी बुद्धि, सामने दिखाई देते हुए परद्रव्य-सुवर्णादिको, पत्थर समझती है, वे, संतोषरूपी अमृतके रससे तृप्त बने हुए लोग, गृहस्थ ही क्यों न हों ?, बराबर स्वर्गकी रम्भाके परमप्रिय स्वामीनाथ बन सकते हैं ।
चौथा मैथुन विरमण व्रत
eGbar मैथुन, यानी कामभोगकी चेष्टा, उससे विराम लेना, यह चौथा मैथुन विरमण व्रत कहाता है, अर्थात् ब्रह्मचर्य पालना।
गृहस्थ लोग, क्या सर्वथा ब्रह्मचर्य पाल सकते हैं?, हर्गिज नहीं, अन्यथा सभी साधु बन जायेंगे; गृहस्थ पनमें रहने, और साधु वृत्ति नहीं लेनेका मुख्य उद्देश भोगविलास है, इसी लिये दरिद्र भी आदमी संसार नहीं छोड़ सकता, साधु नहीं बन सकता। मानलो ! कि यह व्रत अगर सब पालेंगे, तो अगाडी सन्तान नहीं बढनेसे सारा संसार, क्या उच्छिन्न न होगा?। वास्तवमें तो ब्रह्मचर्य, शिरपर उठाने पर, साधुवृत्तिमें बाकी रहा क्या?, अर्थात् सब लोग अगर ब्रह्मचारी बन जायँगे, तो साधु भी हो
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धर्मशिक्षा
जायेंगे, तो साधुओंसे जगत् जब अटूट भर जायगा, तो साधुमय संसारमें साधुओंको अन्न, पान, वस्त्र वगैरह कौन देगा?, ।
संसारमें ऐसा कभी न हुआ, और न होगा कि सारे संसारके मनुष्य, साधु हो जायँ । क्या धर्मका रास्ता बतानेसे, धर्मका उपदेश देनेसे, सब लोग धर्मात्मा बन जाते हैं ?, नहीं, तो फिर ब्रह्मचर्यका उपदेश देनेसे, सब लोग कैसे ब्रह्मचारी बन सकते हैं ? । यह तो शास्त्रकारों वा उपदेशकों को मालूम ही रहता है, कि हमारे उपदेशका असर सबों पर नहीं पडेगा, और नहीं पड सकता, तब भी सामान्य तया जो उपदेश करते हैं, वह इसी लिये, कि कोई कोई भद्र परिणामी-अच्छे लोगोंको यह उपदेश रुच जाय, और तदनुसार प्रवृत्ति बन जाय । दुनियाँ अच्छा काम करें, या बुरा काम करें, इससे, उपदेशक महाशयोंको कुछ लाभ वा क्षति नहीं है, तहाँ भी उपदेशक महाशयोंका जो उप. देश परिश्रम होता है, वह, सिर्फ परोपकार करनेके लिये, संसारमें, जिन किन्हीं, थोडे बहुतोंको धर्मका उपदेश रुच जाय, और धर्म प्रवृत्ति बन सके, एवं, बेचारे अज्ञान-मोह वशसे दुर्गतिमें गिरते रुक जाँय, इसी उद्देशसे, दूसरेकी भलाई में अपनी भलाई समझते हुए उपदेशक महाशय, उपदेश कार्यमें प्रवर्त्तते हैं, यही बात हमारी न्याय कुसुमाञ्जलिमें न्याय कुसुमाञ्जलिमें, चौथे स्तबक के २६ वें श्लोकमें भी बताई गई है“सत्याऽसत्यपथाह्यनादि समयादायान्तिनित्यस्थितास्तिर्यक्-श्वभ्र-मनुष्य-देवगतयोऽप्युद्घाटिताः सर्वदा।
अस्माकं पुनरैति गच्छति नवा स्वच्छन्दवृत्तौ नृणां । भव्यान्तःकरणप्रबोधविधये त्वेता गिरः साम्प्रतम्"।१।
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धशिक्षा. . अर्थ-सत्य और असत्यमार्ग, अनादिकालसे चले आते हैं, ऐसा कोई समय न आया, न आवेगा कि संसारमें सिर्फ सत्य ही धर्मका आदर हो, और असत्य धर्मका सर्वत्र अभाव हो, अ
र्थात् सत्य, असत्य धर्म, नित्य, सदा-हमेशा स्थायी है । और तिर्यञ्च, नरक, मानव, और स्वर्ग, ये चार गतियाँ नित्य-हमेशा खुली हैं । और संसारमें प्राणोवर्ग, कैसी भी स्वच्छन्द प्रवृत्ति करें, एतावता हमको कुछ विशेष नहीं, अर्थात् हमारा कुछ जाता नहीं, और हमको कुछ मिलता नहीं, तहाँ भी यह जो हमारा उपदेश परिश्रम है, वह सिर्फ भव्य-सजनों के अन्तःकरणोंको धर्मकी तरफ खींचने के लिये । _ अच्छी चीजके गुणोंकी जरूर तारीफ करनी चाहिये, अच्छी चीजको लोगोंसे ग्रहण करानेका उपदेश करना, यह कोई अन्याय नहीं, जब यही बात है, तो ब्रह्मचर्यका उपदेश भी सामान्यतया सबपर अगर किया जाय तो क्या हर्ज है?। वादी-ब्रह्मचर्यका उपदेश सब लोगों पर करते हों, या जिन
किन्हीं को ?। ज्ञानी-सामान्य रूपसे सबों पर । वादी-सब क्या ब्रह्मचर्य स्वीकार करेंगे? । ज्ञानी-नहीं। वादी-तो फिर सबों पर क्यों उपदेश छोडना? । ज्ञानी-तो किनको उपदेश देना? । वादी-जो ब्रह्मचर्य पालनेवाले हों, उन्हींको । ज्ञानी-यह पहले कैसे मालूम पडे ? । वादी-बात तो ठीक है, मगर सबको उपदेश तब ही दिया जाता
है, जब कि सभी, उपदेशको स्वीकारनेवाले हों।।
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गृहस्थधर्म. ज्ञानी-मगर यह तो बताओ! कि पहले कैसे मालूम पड सके कि
इतने ही उपदेशके ग्राहक होंगे?. वादी-सबको उपदेश देनेसे सब अगर ब्रह्मचारी हो जायँगे तो। ज्ञानी-हो जायँ तो हो जाने दो, अच्छा ही है, तुम इस बातकी
चिंता काहेको करते हों?। वादी-सबको ब्रह्मचारी होने पर संसारका सत्यानाश हो जायगा,
यही बड़ी भारी चिंता लग रही है। ज्ञानी-संसारका सत्तानाश होता हो, तो होने दो, इसमें फिजूल
तुम चिंतासे क्यों मरते हों ? । वादी-संसारका नाश हो तो साथ साथ हमारा भी नाश हो ही
___ जाय, तो अपनेकी चिंता किसको न होवे ? । ज्ञानी-तुम्हारा नाश होगा, तो क्या तुम्हारी आत्माका भी नाश
होगा ? हर्गिज नहीं।
ब्रह्मचर्य-साधुवृत्ति पालनेसे, अगर सभी मोक्षमें चले जाय, संसारी जीव कोई भी न रहे, अर्थात् संसारमें कोई भी जीव न भटके, तो वहुत ही अच्छी बात है। सब जीव मोक्ष आनन्दमें अगर मग्न हो जाये तो इससे बढकर और क्या अच्छा चाहिये। सभी प्राणिओंके मोक्षमें जाने से, अगर संसार शून्य हो जाता हो, संसारका सत्तानाश हो जाता हो, तो भले हो जाय, होना ही चाहिये, विना, संसार शून्य हुए, सभी जीव परमानन्दी नहीं बन सकते, अतः सभी प्राणिओंको परमानन्दी होनेके लिये सं. सारका उच्छेद होना बहुत उमदा है, कल संसारका उच्छेद होता हो, तो आज ही क्यों न होता, मगर हो नहीं सकता, जब, सब जीव, भिन्न भिन्न प्रकृतिवाले हैं, तो सब धर्मात्मा हर्गिन नहीं बन सकते, मगर उपदेश तो सबको देना चाहिये, जैसे व्यापारी
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धर्मशिक्षा लोग, दुकान पर बैठे बैठे माल बेचते हैं, वैसे ही उपदेशक महाशय, धर्मका माल बेचते हैं, जिनकी ईच्छा होगी, जो माल देख खुश होंगे, वे ही माल को स्वीकारेंगे, मगर मालके यथायोग्य गुणोंकी तारीफ तो अवश्य करनी चाहिये, और लोकमें करते भी हैं। धर्मरूपी माल सबके लिये ग्रहण करनेके योग्य है, इसलिये सबके आगे सामान्य तया धर्म ग्रहण करनेका ढंढोरा पिटवाते हैं, किंतु धर्म प्राप्त करना, सबको शक्य नहीं, इसलिये सब प्राणी, धर्म नहीं स्वीकार सकते । दुकान, यदि की जाय, तो ग्राहक लोग आ सकते, अन्यथा नहीं, उसी तरह धर्मका उपदेश अगर किया जाय, तो अलबत्ते किन्हीं लोगोंको कुछ न कुछ फायदा जरूर हो सकता है, इसीलिये, गृहस्थ धर्म-समकीत मूल बारह व्रतोंमें, इस चौथे ब्रह्मचर्य व्रतके उपदेश करनेका प्रसङ्ग आया है। अगर सब, ब्रह्मचारी-साधु हो जाय, तो उनके लिये तालाव, धी, और वृक्षके पत्र, पुडी होने को तय्यार ही बैठे हैं, यदि संसारका अभ्युदय, ऐसी पराकाष्ठापर आ जाय, तो क्या ही अच्छा हो ?, मगर ऐसी सम्भावनाएँ-ऐसी कल्पनाएँ जो करनी हैं, वे, मानो ! अफीमके नशेमें आके ठंढे पहरमें ठंढी ठंढी बातें मारनी हैं।
अगर सर्वथा ब्रह्मचर्यका पालना न हो सके, तो अपनी स्त्री में सन्तोप बुद्धि रखकर, दूसरी स्त्रियों के साथ विषय चेष्टासे विराम लेना--दूर रहना भी देशतः ब्रह्मचर्य ही है। जो लोग, सब जगह अपने वीर्यको वरसाते रहते हैं, वे आखिरमें नपुंसक माय बन जाते हैं, जिस आधारपर, हमारा दिमाग, हमारी मनोतिका प्रसार, और हमारा शारीरिक बल ठहरा है, उसी को मूलसे उखाड देना, यह कितनी मूर्खता, और कितना आत्मघात ?। हमारी वार्त्तमानिक भारतदशा पर जब खयाल
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धर्मशिक्षा
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करते हैं, तब छाती के धडकनेके साथ गरम २ श्वास छुटता है, अहा ! वह भारतका निष्कण्टक आराम कहाँ ?, वह आराम, कहाँ किधर चलागया ? ऐसे तेजोहीन, प्रज्ञाहीन, बलहीन पुत्रोंको भारतदेवी कबसे जन्म देने लगी?; सचमुच हमारे भारतवासी लोग, विषय लम्पट हो के रमणी रमणमें अत्यासक्त हो के शोध खोल विद्या-विज्ञान के उद्यमसे जबसे प्रमादी हुए, तब. से उत्तरोत्तर सन्तान, ऐसी बलहीन उत्पन्न हुआ करती हैं कि यौवनही अवस्था में, वीर्य वृष्टि कर हतवीर्य वनती हुई शरद् ऋतु के जल रहित मेघकी तरह ऊपरका सूखा घनाटोप करती हैं।
इस ब्रह्मचर्य देवता का, भारतमें, जबसे सत्कार, कम होने लगा, तबसे उसके प्रकोपित सरापसे भारतमजा विद्या विज्ञान, इस्मसे इतनी पीछे रह गई, कि जिन पर, यह सिरताजका वैभव भोगती थी, उहींके जूतों के चमडे पर हाथ फिराने तक अधम अवस्थामें आ गई। हा ! वह सिरताजका वैभव, भारत को वापिस कैसे मिले ?, वही उच्चदशा, भारतको कब प्राप्त हो ?, वह, भारतकी लक्ष्मीदेवी, भारत सन्तानों को कब दर्शन दे ?, वे अकलङ्क, भारत साम्राज्य रूपी दिनकरके प्रखर-तरुण किरण गण, अपना प्रताप, चारों तरफ कब फैलावें ?, वे, निता. न्त भासुर, विद्या कमल, जो कि अब्रह्मचर्य रूपी हिमसे भस्म प्राय बन गये हैं, फिर कब पुनरुज्जीवित बनें, भारतकी सूखी दौलतकी नदीके खोदनेका प्रतीक्ष्ण कुठार-वह ब्रह्मचर्य, भारत प्रजाके कर कमलमें फिर कब अलङ्कत हो ? ।
___ भारतमें ब्रह्मचर्य देवताका, पूर्वकी तरह अगर अच्छा सस्कार होने लगजाय, तो सन्देहही क्या है कि भारत प्रजा, अपनी सिरताज वैभव की गद्दीपर, फिर आरोहण करे, और, उच्चदशा में पहुँचे । लक्ष्मीदेवीका पिता, ब्रह्मचर्य, अगर तुष्ट हो जाय,तो
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धर्माशिक्षा. फिर लक्ष्मीदेवी का कहना ही क्या ? लक्ष्मी देवी का दर्शन क्या, लक्ष्मीदेवी ही भारत प्रजा की गोदमें लेटती रहेगी। अब्रह्मचर्यरूपी घनघोर बादल यदि हट जाय, तो, भारत साम्राज्य रूपी सूर्यके सहस्त्र किरणोंके चारों तरफ प्रसरनेका पूछना ही क्या ?। अब्रह्मचर्य रूपी हिमका विध्वंस हो जाने पर, विवेक रूपी निर्मल जलके अभिषेककी निरन्तर धारासे, विद्या कमलवन, देखिये ! फिर कैसा पुनरुज्जीवित होता है, इतना ही क्यों ?, वह ब्रह्मचर्य रूपी भास्कर भी, अपने हजार किरणोंसे उस विद्या-कमलवनको नितान्त प्रफुल्लित-विकसित करनेमें प्रयत्नशील रहेगा। भारतकी सूखी दौलतकी नदीके खोदनेका ब्रह्मचर्य रूपी कुठार, सन्त महान्तों ही के पाससे मिल सकता है, वहीं जानेसे, वहीं प्रार्थना करनेसे, उनकी तरफ परमपूज्य बुद्धि रखनसे, वे सन्त लोग, उस कुठारको, कानोंके मार्गसे, उपदेश रूपी मान्त्रिक प्रयोगद्वारा धीरे धीरे प्रवेश कराते हैं । मुनिजनोंसे कानोंके मार्गसे पैठाता हुआ, वह कुठार, भीतर घुस करके एकदम दिमागकी भूमी पर अवस्थित रहता है, बस! इसी दिमाग रूपी हस्तकमलमें जब ब्रह्मचर्यकुठार स्थिर रहेगा, फिर देख लीजिये ! मजा, भारतकी सूखी दौलतकी नदी, उस कुठारके, दे दनादन, प्रहारसे ऐसी उत्तम खोदाई जायगी कि उसी दम, शनैः शनैः दौलतरूप जलका प्रवाह छुटेगा, और क्रम क्रमसे बढता हुआ द्रव्यका पूर, भारतमें इतना फैल जायगा, कि मानो :, भारतका स्थल-भूमी भी दू. सरा रत्नाकर, प्रतीत होने लगेगा।
ये सब प्रभाव, ब्रह्मचर्य देवताके समझ, इसीका मन्त्र जपना पहिले परमावश्यक है । यह देवता, रुष्ट हुआ जो अनर्थ करता है, वह अनर्थ, भूत, पिशाच, राक्षस, यक्ष, यम वगैरह से भी नहीं हो सकता। यह देवता, तुष्ट हुआ जो प्रसाद करता है,
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पशिक्षा
वह प्रसाद, इन्द्रोंको भी देना मुश्किल है। मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र सा. धनेकी प्रथम प्रस्तावना-प्रथम भूमिका यही ब्रह्मचर्य है। इसी ब्रह्मचर्यके अनुचर बने हुए लोग, त्रिलोकीके अग्रगण्य हो गये हैं।
यह पक्की बात है कि जिसका ब्रह्मचर्य धन लूटा गया, वह, अपने मनोरथोंकी सिद्धि करनेमें बहुत स्खलनाएँ पाता है। ब्रह्मचर्य व्रत रूपी एक ही चिन्तामणि, यदि प्राप्त हो जाय, तो फिर औरों के लिये कोई मुश्किली नहीं है । सूर्य के विना दिवस, चन्द्र के विना रात्रि, गन्ध के विना पुष्प, देवता के विना मन्दिर, पुत्र के विना घर, नेत्रों के बिना मुँह, कवित्व विना विद्या, निमक विना भोजन, पानी विना तालाव, नायक विना सैन्य, वृक्षों के विना जंगल, मनुष्य के विना घर, विद्या विना गहने, दातृत्व गुणके विना धनी और विना श्रोतगणके सभा, जैसे नहीं शोभती, वैसे ही आदमी भी ब्रह्मचर्यके विना नहीं शोभता । सब गुणोंका शिरोमणि, सब नियमोंका अफसर, सब धर्मोंका अधिपति, सब सुकृतोंका नायक, सब मन्त्रोंका मुकुट, सब तपोंका राजा, सब कष्टोंका अग्रेसर, सब क्रियाओंका मुख्य प्राण, सब विद्याओंका पिता, सब लक्ष्मीका खजाना, सब इज्जतका निधान, सब पुण्योंका ब्रह्मा, सब सुखोंका बीज, सब अभ्युदयोंका मेघ, सब देवताओंका वशीकरण, सब दुःखोंका घातक, सब पातकोंका पातक, सब इच्छाओंका पूरक, सब अनिष्टोंका चूरक, सब भोगोंका कारक, सव रोगोंका वारक, सब विघ्नोंका मारक, सब अशुभोंका हारक, सब शत्रुओंका छेदक, सब दुर्जनोंका भे. दक, सब चिन्ताओंका शोषक, सब आशाओंका पोषक, चतुर्दिगन्त विजयका मोषक, ज्यादह क्या कहें ?, त्रिलोकीका मालिक, तीन जगत्का साम्राज्य दाता, और तत्सब्रह्म-सनातन परमपदके द्वारकी भी कुंजी (ताली) रखनेवाला, ब्रह्मचर्य, साक्षात्
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धशिक्षा. ईश्वरी शक्ति है, इसे पाले हुए लोग, और दोषोंसे भरे हुए भी परमपदके द्वारकी कुंजी बडे मजेसे पालेते थे, यह, इतिहास दृष्टिसे सबोंको विदितही होगा।
___ जो विषय सुख, आपात मात्रमें, अर्थात् शुरू शुरूमें, रमणीय, आनंददायक मालूम पड़ने पर भी अन्तमें किंपाक फल. की तरह बडा भयङ्कर होता है, उसे कौन महात्मा, आदरमें ला सके ? । जिस मैथुनसे कम्प, बाम, परिश्रम, मूच्छो, भ्रम, ग्लानि, बलका क्षय, और क्षयरोग वगैरह बड़ी आपदाएँ जाग उठती है, यह मैथुन, धर्मात्माको पसन्द नहीं पडता । मैथुनके प्रसङ्गसे, स्त्रीके योनि यन्त्रमें पैदा हुए, बहुत सूक्ष्म जन्तुओंके ढेर, पीडाते हुए मरजाते हैं, यह, वात्स्यायन वगैरह काम शास्त्रकार भी जब मंजूर करते हैं, तब भी उसमें, जो अत्यासक्ति करनी है, वह साफ पुरुषपदसे नीचे उतरजाना है । स्त्रीके सम्भोगसे, जो पुरुष, अपने कामज्वरको शान्त करना चाहता है, वह गँवार, सचमुच घृत (घी) के होमसे आगको ठंढी करना चाहता है।
यह पक्का समझें कि भोग भोगनेसे कभी इच्छाकी वृप्ति होने वाली नहीं, जो मनुष्य भोगोंमें बावला बन जाता है, और अपने शरीर को भी नहीं गिनता, उसकी आयु कम हो जाती है, उसकी मौत शीघ्र होती है । हम नहीं समझते कि विषयभोगमें इतना क्या देखा, और क्या इतना मिलता होगा? कि उसमें लोग, अत्यासक्त हो के अपने जीवनपर कीचड फेंकते हैं। जिस वक्त मनमें कामका आवेग बढ जाय, उस वक्त बावला न बनके पांच ही मिनट तक यदि स्थिरता की जाय, तो फिर वह, आपही आप शान्त हो जायगा, और अपनेको, अपनेही उन्मादकी हंसी आवेगी, ऐसी ही स्थिरता करनेका अभ्यास अगर हो जाय, तो . जरूर कामका आवेग ढीला पड़ जाता है, इसमें कोई शक नहीं।
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धर्मशिक्षा. मगर मनको समझानेके लिये पहले विवेककी बड़ी जरूरत है;मनको धीरे धीरे समझानेसे जरूर उन्माद शिथिल पड जाता है। यह प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं कि कामभोगकी सामग्री मौजूद रहते, अथवा पारदारिक कर्म करनेके प्रसङ्गपर, थोडे समयको, सद्विचार पूर्वक, प्रतीक्षा की जाय, तो धीरे धीरे मन ठंढा पडेहीगा, मगर, थोडे समय तक धीरज पाना बडा मुश्किल है, विषयान्ध आदमी, एक मिनिट तक स्थिर नहीं रह सकता, वह तो अपने दिमागके सत्वको तोडनेमें ही कमर कसे रहता है । उल्लू, दिनमें, और कौआ, रातको, अन्धा रहता है, पर कामो पुरुष, रातदिन, कामान्ध रहता है । उस आदमीने हाथमें आया चिंतामणि न सम्हाला, जिसने मनुष्यत्व पाके, कामभोगमें सारा जीवन बिताया।
गृहस्थ लोग, सर्वथा ब्रह्मचर्य न पालें, तो नहीं सही, मगर परदार गमन, कभी न करें। एक नहीं तो दो त्रिओंके साथ विवाह करो!, मगर परस्त्रीगमन कभी नहीं करना चाहिय । अपनी स्त्रीके साथ भी अत्यंत आसक्तिसे भोगविलास करना मना है, तो सर्व पापोंकी खानि, परस्त्रीके सेवनकी तो बात ही क्या करनी ?। अपने पतिको छोड, दूसरे पुरुषके साथ रमण करती हुई, क्षणिक चित्तवाली चञ्चल परस्त्रीमें कौन अक्लमंद विश्वास कर सकता है? परस्त्रीके साथ रमण करनेवाला मनुष्य, अव्वळ तो, उस स्त्रीके पति, और राजा वगैरहसे डरता रहता है, और, "इसने मुझे देख लिया, इसने मुझे जान लिया, इस लिये यह आ रहा है" इस प्रकार व्याकुल चित्तसे कंपता रहता है, अत:, प्राणका सन्देह करनेवाला, बडा, वैर-विरोधका कारण और इस लोक व परलोकसे विरुद्ध, परस्त्रीगमन, दूरसे वर्जना चाहिये । परस्त्रीगमन करनेवाले को, इस जन्ममें, सब द्रव्यका ह૧૩
लिये यह अक्सन मुझे देख लिार राजा वगैरहवाल
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धर्माशक्षा. रण, जेलमें पकडा जाना, और इन्द्रियका छेद वगैरह, भयङ्कर आपदाएँ उठानेके साथ परलोकमें घोर नरकका अतिथि होना पडता है। अपनी स्त्रीके रक्षण करनेमें निरन्तर प्रयत्न करता हुआ पुरुष, अपनी आत्मामें अपनी स्त्रीपर शंकाके मारे हमेशा क्लेश पाता रहता है, तो ऐसा ही दुःख, सबको समझकर किसीकी स्त्रीके साथ बदमाशी नहीं करनी चाहिये । समझो! कि परस्त्री गमनका दुरन्त फल तो दूर रहा, मगर परस्त्रीकी तरफ रमण करनेका मनोरथ करनेसे भी रावण की तरह इस जन्ममें बडी बुरी हालतसे मरना पडता है, इतनाहो क्यों ?, परलोकमें भी नरककी कुम्भीमें जलना पडता है। रावण जैसे महा पराक्रमी, त्रिलोकीके कण्टक राजे भी, परनारीके गमन करनेकी इच्छामात्रसे अपने कुलका क्षय कर गये, तो पामरोंकी क्या बात?।
लावण्यकी लहरिओंसे लहरती, सौन्दर्यकी काञ्चनसी किरणोंसे दमकती, महा विदुषी, और बडी कलावन्ती ही परस्त्री क्यों न हो ?, मगर उसका सङ्ग शेठ सुदर्शनकी तरह कोई अक्लमंद नहीं करता। परस्त्रीका आलिङ्गन करना मूखों ही का काम है। जिसके हृदय भवनसे विवेक-चोपदारका देशनिकाल हो गया हो, जिसके मनोमंदिरमें विवेक-प्रदीप शान्त हो गया हो, जिसकी आत्मभूमीमें विवेक-द्वारपाल निद्रामें फँस गया हो, वही दुभर्भाग्य आदमी, परनारीका षण्ड बनता है । समझ लो ! कि उसकी किस्मतको पाप-बादलने घेर ली, जो परस्त्रीके गमन करनेसे विराम नहीं लेता | उसकी तकदीरके बारह बज गये, जिसका शरीर परनारीसे मलिन हुआ। उसके बुरे दिन आ गये, जिसने परदारागमनमें फँस, राजकीय, और ईश्वरीय कानूनों पर आग दी।
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धर्मशिक्षा.
पुरोहितकी स्त्री कपिला, राजेकी रानी अभया और देव. दत्ता वेश्याके साथ, एकान्तमें समागम होने पर, इतना ही नहीं, बल्कि उनकी तरफसे बहुत बहुत करुणा पूर्वक प्रार्थनासे भोग करनेका आग्रह, तथा आखिरमें उनकी तरफसे प्रतिकूल उपद्रव भी होनेपर, जिसके शरीरका एक भी रोम न चला-न कम्पा न कामार्त हुआ, उस महात्मा शेठ सुदर्शन की क्या तारीफ करें ?, धन्य है इसके मात पिताको, जिन्होंने पहाडकी तरह धीर हृदयवाला, न्यायप्रिय ऐसा महात्मा प्रकट किया। गृहस्थ होके भी ऐसी पराकाष्ठा पर ब्रह्मचर्यको चढ़ा देना, यह छोटीसी बात नहीं। इसके हृदयङ्गम धर्म-वैराग्य-विवेकका ढेर कितना चमकता होगा, कि जिसके हृदयपर कामदेवके कुल शस्त्रोंका प्रहार पड़ने पर भी कुछ भी असर न पड़ा । अपनी मनोरमा स्त्री पर पूर्ण सं. तोषी, छः पुत्रोंका बाप शेठ सुदर्शन, ऐसी अद्भुत निश्चल मनो. वृत्तिसे किसके हृदयका आकर्षण नहीं करता है ? । महात्मा हो तो सचमुच ऐसा ही हो।
धन्य हो! धन्य हो! विजय शेठ और विजया शेठानी को, जो कि दोनों-दम्पति, विवाह ही से, एक पलंगमे सोते सोते निर्मल-निष्कलंक ब्रह्मचर्य पाला करते थे। यह बात किसे चमकारमें नहीं डूबाती, कि नवोन तरुण-दमकती उम्र में स्त्री-पतिको, संसार भोगसे बिलकुल हट जाना, और ब्रह्मचर्य पालना । इसका मूल सारांश यह है कि छोटी उम्रमें विजया कुंवरीने एक साध्वीके पास कृष्णपक्षमें ब्रह्मचर्य पालनेका कसम लिया, जब विजयकुमार, एक मुनिराजके पास शुक्लपक्षमें ब्रह्मचर्यका नियम ले ही बैठा था । अव भवितव्यतावशात् उन दोनोंका परस्पर विवाह हुआ । विवाहित होके रातको पलंगपर ज्यों दोनों सो
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धर्मशिक्षा.
नेकी तय्यारी करते हैं, त्यों ही विजया स्त्री बोल उठी कि स्वामिनाथ ! इस कृष्णपक्षमें ब्रह्मचर्य पालनेका मुझे नियम है इसलिये इसपक्षके जानेके बाद शुक्लपक्षमें कामक्रीडा मेरेसे होगी, तब विजयशेठ भी बोले-" तब तो अपने दोनोंको हमेशा ही ब्रह्मचर्य व्रत पालना पडेगा, क्योंकि मुझे भी शुक्लपक्षमें ब्रह्मचर्य पालनेका सौगन्द है; खैर!, यह तो अच्छा ही हुआ। प्राणांत कष्टमें भी नियमका घात नहीं करना चाहिये । वास्तवमें तो भोगोंमें रक्खा ही है क्या ?; गँवार आदमी ही भोगों में बावले बनते हैं। शाणे, दाने, उदार हृदयके पुरुष तो, भोगोंको दुःख ही समझते हैं, अच्छा हुआ, अमूल्य चिंतामणि-ब्रह्मचर्य धर्म, हाथमें आया, बस ! अब हमेशा अपने ब्रह्मचारी रहेंगे"। (यह भावना, विजया स्त्रीमें भी प्रतिरोम रम गई)।
देखिए ! सज्जनो! दम्पतीकी मनोभावना; विवाहके पहले वे ब्रह्मचारी थे, इसमें तो कहनाही क्या? । मगर, नवीन तरुणयौवनकी प्रसरती रोशनीमें भी, विगह करके जिन्होंने कुछ भी अपना मन कलंकित न किया, सर्वथा ब्रह्मचर्य पाला, यह अद्भुत चमत्कार, किसके नेत्रोंको स्थिर नहीं कर सकता । स्त्रीके साथ सो जाना, एक ही पलंगपर दोनों, भत्ता-प्रियाको सो रहना, और ब्रह्मचर्य पालना, यह कितनी ईश्वरी शक्ति ? कितना महात्मापन? और कितनी, उनके मनोमन्दिरमें अध्यात्मयोगकी मुसलधारा वरस रही होगी?, जभी कोका क्षय हो सकता है, और मोक्ष प्राप्त हानेमें विलम्ब नहीं होता । खाते, पीते, संसारके भोग भोगते अगर मोक्ष मिल जाता, तो सब कोई मोक्षमें चले जाते । खाना, पीना, अच्छे अच्छे कपडे पहिनना, और तरुण सुन्दरीके सुवर्ण कलश जैसे पयोधरोंका मर्दन करना, चन्द्रवदनाके चन्द्रसे-मुँहसे अमृत पीना, कमललोचनाके कमलसे बड खुशबूदार
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धर्मशिक्षा. मुँहकी खुशबू लेना, हरिणनेत्राके प्रवाल सरीखे अधर बिम्बका चुम्बन करना, कृशोदरीके कुश उदरको हाथमें पकडना, प्राणप्रिया रमणीके पतली कमरको मूठीमें धर लेना, सुमुखीके केलवृक्षके स्तम्भ जैसे उरु स्थलपर हाथ फैलाना, और अर्धाङ्गनाके कुल अङ्गाके साथ अपने अङ्गोंको बिलकुल मिला देना-एक कर देना, इससे क्या हुआ?, यह बात तबही रुचे, यदि, जीव मात्रपर गर्जना करता यमराजा, प्राणीगणोंको लुकमे बनाता रुक जाय ।
जब हमारे शिरपर मौतका डा बज रहा है, सब जीवोंकी जीवन स्थिति स्थिर नहीं रहती, सब प्राणी, भिन्न भिन्न प्रकृतिसे प्रतिक्षण नये नये परिणाममें पलटते रहते हैं, तो उचित नहींहै कि कर भोग-रसोंमें फंस कर अपनी आत्माकी दौलतको खाक की जाय । इस संसारमें रहना कितना, अर्थात् एक भवकी स्थिति कितनी ? , अव्वल तो यही शरीर, अनेक प्रकारके रोगोंका भण्डार है, तो फिर इसपर किस बुद्धिमानका मोह बढ सके ?। घुन कीडोंसे काष्टकी तरह, व्याधिओंसे, यह शरीर हमेशा सडता रहता है । ऐसा कोई समय न था, न आया, न है, न आयगा-न होगा, कि कोई प्राणी, काल-मौतको ठग कर, मरनेसे बच जाय ; क्या राजा, महाराजा, बलदेव, वासुदेव, और क्या चक्रवर्ती, और तीर्थकरभी क्या, सबके लिये सारे संसारके लिये, हमेशा मृत्युकी पुकार चला करती है, किसी न किसी पर हमेशा काल-राजाकी चिट्ठि आया करती है । संसारमें किसीको क्या ? , किन्हीं को, थोडेको क्या ? , बहुतोंको, परिमितको क्या ? , अपरिमित प्राणिको लुकमे बनाता हुआ कालराक्षस, कभी, किसीदिन, किसी समय, किसी वक्त और किसी मिनट भी विराम नहीं पाता । रूप, लावण्य, कान्ति, शरीर, धन, सभी, तृणके अग्रभागपर रहे जल बिन्दुकी तरह चपल-विनाशी
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पशिक्षा. हैं। आज कलमें नष्ट होने वाले इस असार शरीरसे, उत्तम तपस्या यदि निकाली जाय, तो क्या उमदा बात है ? । वेही महास्मा सची तारीफके पात्र हैं, और उन्होंने इस अनित्य-असार शरीरसे आलादर्जेका फल निकाल लिया, जिनने मोक्ष-फलको देनेवाली तपस्या द्वारा भोग-पिशाचोंका देश निकाल कर दिया।
वे लोग, जगत्के सिरताज बन गये, जिन्होंने अदृष्ट क. ल्याण-कामिनीका संग छोड, योग रसका आनन्द लूटा । धन्य हो ? स्थूलभद्रजी को धन्य हो ?, जिस महर्षि ने ऐसा तो आत्मिक पुरुषार्थ फैलाया, आजतक सज्जन वर्ग जिसकी परलोक गत आत्माकी तरफ बढे अचम्भेके साथ स्थिर आँखोंसे खयाल कर रहे हैं, वाह ! कलिजुग ! वाह ! तेरे को भी थप्पड लगाके स्थूलभद्र महर्षिजीने आत्मिक योगका जो प्रकाश फैलाया है, आज भी वह, जन समाजकी नजरोंको शीतलता दिये बिना नहीं रहता। क्या बतावे ?, जो स्थूलभद्र, बारह वर्षतक वेश्याके घर पर रह कर, तरह तरहके भोग भोगते रहे, बाद साधु-मुनि-योगी--महर्षिश्रमण बने, इतना ही नहीं बल्कि महर्षि हो कर, उसी वेश्याके भवनपर आके चतुर्मासा रहे; देखिए ! महाशयो !, इधर, वेश्या, तरह तरहकी इन्द्रियपोषक, हृदयोत्तेजक, कामोद्दीपक रसोई बनाके साधुजीको भिक्षा देती है, और साथ साथ अनेक प्रकारके हाव भाव-काम कटाक्ष, मदनलीला वगैरह बहुत उपाय, साधुजीको भोगमें फंसानेको किया करती है, और उधर षड् (छः) रसोंसे सुन्दर गरिष्ठ माल उडानेके साथ, सब प्रकारकी वेश्याकी काम चेष्टाएँ, स्थूलभद्रजी नजरमें ले रहे हैं, तो भी मजाल है कि - पिजीका मन, अणुमात्र भी फरके ! । बारह वर्ष तक सेवी हुई वेश्याके घरमें, साधु हो के रहना, और कामोद्दीपक भोजनको प
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वर्मशिक्षा. चाना, तथा वेश्याकी-तरह तरहकी मदन लीलोंको लात मारना, इत्यादि लोकोत्तर बहादुरी करनेवाला कोई हुआ है, तो यह मान स्थूलभद्रजीको घटता है, जो कि आगके कुंडमें गिरने पर भी तनिक भी न जले । काजलकी कोठरीमें रहने पर भी काला पनसे बच गये । यह काम जैसा तैसा नहीं, बहुतसे योगीजनोंसे भी नहीं हो सकनेवाला, यह, कामराजेके किलेके जीतनेका काम, जो स्थूलभद्रजीने कर दिया है और इसीसे जो, इनकी तारीफकी सडक पक्की बधाई गयी है, वह, वर्षोंके वर्ष करोडों वर्ष जाने पर भी क्या टूट सकती है ?, कभी नहीं । और ऐसे ही महर्षिओंसे तो भारतवर्ष, आध्यात्मिक विद्याकी तारीफ पर अब भी सबसे बढकर चढा है, यह सबको विदित है।
मानव कर्तव्योंमें आलादर्जेका कर्तव्य-ब्रह्मचर्य, जिस आदमीसे रुष्ट हो गया, उसका सर्वस्व, नष्ट हो गया । उसकी तकदीरसे देवता लोग रुष्ट हो जाते हैं, जो ब्रह्मचर्यसे रुष्ट हो जाता है । गृहस्थके जितने धर्मके कानून हैं, अर्थात् ये जो बारह व्रत गृहस्थोंके लिये बताये जाते हैं, वे सब, सिवाय ब्रह्मचर्य, नदीको उपमावाले हैं, और वे सब नदियां ब्रह्मचर्य रूपी समुद्र में शुका करती हैं।
यह तो पहले कहही चुके हैं कि सर्वथा ब्रह्मचर्य अगर न पाला जाय, तो अपनी स्त्री (एक क्यों?, अनेक ही क्यों न हों?) के साथ भोग करनेमें संतोष रखें, मगर परस्त्रीकी तरफ तो कदापि नजर न करें, इतनाही नहीं, बल्कि जिसका कोई स्वामी नहीं है, उस साधारण स्त्री-वेश्याके साथ भी गमन करते रुकें । जिस के मनमें कुछ, वचन-बोलनेमें कुछ, और करनेमें कुछ, ऐसी, चंचल द्रव्यकी दासी, वेश्या, एकान्त आपदाओंका जन्म देनेवाली है। मांस मिश्र, शराबकी बदबूसे भरा, और अनेक शुद्रोंके दु
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धर्मशिक्षा. गन्धी मुँहोंसे चुम्बित किया गया, वेश्याका मुँह, किस शाणे आदमीके मुँहके चुम्बनमें आसकता है ? । उच्छिष्ट-जूठा भोजन खानेसे परहेज करना अगर लाजिम समझा जाता है, तो बडा ताज्जुब है कि गणिकेके जूठे मुँहके चुम्बनसे परहेज करना नहीं मुनासिब समझा जाता । वेश्याका नाम ही जब साधारण स्त्री है, तो यह पक्का समझो! कि वेश्या, किसीकी कदापि नहीं होनेवाली, वह तो सिर्फ द्रव्यकी दासी है। जिसके पास द्रव्य है, और वह यदि वेश्याके चरणों में गिरनेको आया, फिर पूछना ही क्या?, वह कोढी-महारोगी, और हजारों मरिकओंसे सेवाता हुआ ही क्यों न हो?, वेश्याके लिये तो दौलतरूपी लावण्यका पूर ही होगा, और इसीसे, वेश्या, उसे कामदेवकी तरह कृत्रिम, बाहरके-झूठे प्रेमसे-भरे नेत्रोंसे देखती है । मगर खयाल करें, वह कोढी-रोगी आदमी तो क्या ? , किंतु वास्तनमें खूब सूरत रूप-लावण्य-कान्ति वालाही आदमी क्यों न हो ? , जब वेश्याका पेट भरते हुए उसकी दौलत खतम हो जायगी, और वेश्याको मालूम पडेगा कि ' यह भीख मँगा हो गया' फिर देख लीजिए ? उस बेचारे कामी पु. रुषकी दशा, क्रूर स्वभाववाली गणिका, घरसे निकलते हुए उस पुरुषका कपडा तकभी खींच लेगी । वेश्याके मोहमें बावला बना आदमी, न देव, न गुरु, न बान्धवों, और न तो मित्रोंको मानता है। सच पूछिए तो गणिकाएँ, कूट कर्म करनेमें राक्षसिओंसेभी आगे निकलनेवाली हैं, और छल-प्रपञ्चोंमें,शाकिनियोंसे भी बढने वाली हैं, तथा चपलता स्वभावमें तो बिजलीकाभी अतिक्रमण करने वाली हैं। इस लिये जिसको धर्मकी गरज है, वह, अव्वल तो यह गुण जरूर हांसिल करे कि परस्त्री तथा साधारण स्त्रीका परित्याग करे । अपना वीर्य इधर उधर यदि वरसाते
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धनिया रहोगे, तो भारत की प्रजा को कैसे बढासकोगे ? । देखा है इतिहासमें, पहले भारतभूमीमें कितनी बस्ती थी, और आज है कितनी ? । ऐसी ही दुष्ट आदत, अगर अपना पद मजबूत करेंगी, तो भारतवर्षमें आज जितनी आबादी है, उससे भी क्षीण होती हुई कितने हिस्सेमें जाके ठहरेगी, यह कहनेकी कोई जरूरत नहीं। जिसने अपना धर्म न पाला, अपने धर्मका संरक्षण न किया, वह आदमी, अपनेका रक्षण नहीं कर सकता । धर्मका रक्षण क्या है ? मानो ! अपने जीवन ही का रक्षण है-अपने जीवनका सुधार है। जिसने ब्रह्मचर्य-धर्मको धारण न किया, अपनी आत्मामें स्वदार संतोष रूपी अमृतको गोपन न कर रक्खा-अथवा तो परदारगमन रूपी विष (जहर ) का सेवन करना बन्द न किया, उसका, चारों ओरसे सौ मुंहका विनिपात (पडना) होता है। इसमें कोई संदेह नहीं।
पुरुष की तरह, स्त्री भी, बराबर धर्मके काबिल होनेसे, पर पुरुषका संग जरूर छोड दे । जभी तो, ऐश्वर्य करके कुबेरके समान, और रूप करके कामदेवके सरीखे, प्रति वासुदेव रावण जैसे पुरुषका तिरस्कार करके सीताने अपना शीलवत ऐसा तो अकलङ्क-निर्मल रक्खा, कि आजतक उस अबलाकी गुण श्लाघा जगत्में मशहूर है। दूसरी स्त्रियोंमें आसक्त हुए पुरुष और दूसरे पुरुषोंमें आसक्त हुई स्त्रियाँ, भव भवमें नपुंसक तिर्यञ्च, और बडे दुर्भाग्यवालो होती हैं । चारित्रका मुख्य प्राण
और परब्रह्मका अद्वितीय-असाधारण कारण-ब्रह्मचर्यको निष्कलङ्कः पालता हुआ पुरुष, देवताओंसेभी बराबर पूजाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं । ब्रह्मचर्यके प्रभावसे लोग, दीर्घआयुवाले, सुसंस्थानवाले, मजबूत संघननवाले, और बडेही तेज तथा पराकम १४
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१.६
धशिक्षा. वाले होते हैं। दीवारको साफ किये सिवाय, उसपर जो चित्र बनाया जाता है, उसीकी उपमा, ब्रह्मचर्यके विना मन्त्र, तन्त्र वगैरहकी उपासनाभी समझनी चाहिए।
और व्रतोंका,-जीव, ईश्वर, पुण्य, पाप, परलोक, मोक्ष वगैरहको नहीं मानता हुआ नास्तिक, बराबर अनादर कर स. कता है, मगर ब्रह्मचर्यके विषयमें तो उसकी भी पूर्ण सम्मति है। नास्तिक लोग तकभी ब्रह्मचर्यका जब बडा सत्कार करते हैं तो फिर आस्तिकपनका अभिमान रखनेवाले महाशय, उसे अगर न पालें, तो कितना शर्मिन्दा पन ? | नास्तिक लोगभी, अपने शरीर, दिमाग, और मनोबलकी मजबूताई करनेके लिये अर्थात् अपनी अलकी किरणोंको प्रदीप्त करने के लिये, अपने शरीरको कलियुगका भीमसेन बनानेके लिये, और अपने दिमागसे बृहस्पति, और वाग्बलसे वाचस्पतिको भी परास्त करनेके लिये, ब्रह्मचर्य रूपी मुख्य प्राणकी पूर्ण रक्षा करते हैं-ब्रह्मचर्य-मन्त्रकी उ. त्तम उपासना करते हैं, तो अफसोस है कि आस्तिक हो के आस्तिकोंसे आस्तिक्य गुणका अब्बल रास्ता ब्रह्मचर्य न पाला जाय।
उसने, जगत्में अकीर्तिका ढंढोरा पिटवाया, उसने, अपने गोत्रमें स्याहीकी कूची फेर दी, उसने, चारित्र धर्मको जलांजलि दे दी, उसने, गुणगण रूप बगीचेमें आग उठा दी, उसने सकल विपदाओंको, मिलनेके लिये संकेत दिया, और उसने मुक्ति मंदिर के द्वार मजबूत बंद करदिये, जिसने, त्रिलोकीका चिंतामणि भूत निर्मल शीलवत खंडित किया।
उनकी, शेर, सांप, जल, आग वगैरहकी विपदाएं नष्ट होजाती हैं, उनका कल्याण वैभव, पुष्ट होता है, उनके कार्योंमें
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धर्मशिक्षा देवता तकभी सहायक बनते हैं, उनका यश स्फुरायमान होता है, उनके धर्मको उत्तेजन मिलती है, उनके पाप नष्ट होजाते हैं, और उनके लिये स्वर्ग व मोक्षकी सम्पदाएं दूर नहीं, जो पुण्यात्मा, शील रत्नको अखंडित पाला करते हैं।
निर्मल शील, कुल कलंकको हटा देता है, पाप कीचडकालोप करता है, सुकृत का पोषण करता है, प्रशंसा, इज्जतको फैलाता है, कहांतक कहें, देवता लोगोंको भी नमाता है, और कठिन उपद्रवोंको देशनिकाल देने पूर्वक स्वर्ग व मोक्षको लीलामात्रमें संपादन कराता है । शीलका प्रभाव इस कदर चमत्कारी है कि शीलवंत पुरुषके लिये, आग-पानी, सांप-पुष्पमाला, शेर-मृग, पर्वत-पत्थर, जहर-अमृत, विघ्न-उत्सव, शत्रु-मित्र, ममुद्रतालाव, और जंगल-घर, बनजाता है।
धन्य है उन महात्माओंको, जिन्होंने स्फुरायमान विवेक रूपी वज्रसे काम, राग, मोह वगैरह पहाडौंको चूर्ण बना दिया । धन्य है उन ऋषियोंको, जिन्होंने अपनी प्राण प्रियाको शाकिनी समझ छोड दी, और परम वल्लभ लक्ष्मी देवीका भी सांपनीकी तरह तिरस्कार करदिया, और तरह तरहकी रमणीयताओंसे पूर्ण-प्रासादको बिलकी तरह छोडदिया । वही महापुरुष है, जो, परनारीके मुँह देखने ही में अंधा है। सौन्दर्यका एक खजाना, कलाओं करके कलाधर समान, लावण्यकी तरंगिणी, पुष्ट और उंचे स्तनोंसे अलस गतिवाली-गजगामिनी, पाताल कन्याकी आकृतिवाली और नवीन यौवनकी झलकती किरणोंसे मनुष्यों के हृदयों पर आक्षेप करने वाली औरतका संग, जिनने छोडदिया, उन महा पुरुषोंके हृदयगोचरमें, हताशवना हुआ कामदेव, क्या अवकाश पा सकता है ? , नहीं। श्रृंगार रूपी पेडके लिये मेह समान, रसिक क्रीडाका प्रवाहमय, कामदेवका प्रियबन्धु, चतुर
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धर्मशिक्षा.
वचन रूपी मोतिओंका समुद्र, सौभाग्य लक्ष्मीका निधिभूत, और औरतोंके नेत्ररूपी चकोरोंको खुश करनेमें पूर्णचन्द्र, ऐसे नवीन यौवनको प्राप्त किया हुआ महात्मा, अगर मनोविकारकी मलिनतासे कलंकित न बने, तो उसके लिये कितनी तारीफकी हद्द बांधी जाय, यह नहीं कह सकते ।।
अधीरज वालोंको स्त्रीका दर्शन हुआ, फिर कहनाही क्या ? उसीदम शरमका देश निकाल हो जाता है, ब्रह्मचर्य व्रतका विध्वंस हो जाता है, ज्ञानका संकोच हो जाता है, विवेक बँक जाता है । समझ गये होंगे, ये सब किसकी बदौलत ? , औरतके मुख चन्द्रमाके दर्शनसे जागरित हुए कामदेवकी । एकान्त वाससे लब्धावकाश बना हुआ कामदेव, विरक्त मुनिजनोंकेभी चारित्र धर्मको फौरन लंगडा बना देता है-साधु-धर्मका सिर काट लेता है-संयमका भर पेट खून पी लेता है ।
विचार करनेपर बुद्धिमानोंकी बुद्धिमें यह स्फुरण होना स्वाभाविक है-कामदेवको कथा, किसके लिये आनन्ददायक नहीं है ? , औरत, किसको, प्रिय नहीं है ? , लक्ष्मी, किसको बदम नहीं है ?, किसके मनमें पुत्र न रमता होगा?, गरम गरम स्वादिष्ट भोजन, तथा शीतल पानी, किसको रुचिकर न होगा ?, परंतु ये सब इच्छाएँ तबही करनी उचित हैं-यह सब दुनियाकी मौन तबही लेनी उचित है, अगर प्राणिओंके ऊपर, आशारूपी पेंडके काटनेमें कुठारभूत मृत्यु, ( मौत ) गुंजता हुआ रुक जाय । मोही पुरुष, मोह सागरमें डुबकी मारता हुआ यही मिथ्या अ. भिमान करता रहता है कि " यह मधुर आकृतिवाली मेरी औरत है, यह मेरा प्रेमालु पुत्र है, यह मेरा खजाना है, यह मेरा विनीत सहोदर ( भाई ) है, यह मेरा आलिशान मंदिर है, परंतु मूर्ख,
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धर्मशिक्षा यह नहीं विचारता कि " शरीरकी छायाका रूप लिया हुआकाल, मेरे पास हमेशा फिरता रहता है"।
इस संसार वृक्षका मुख्य बीज कामभोग है, वही मोक्षका परम दुश्मन है। उसे हटानेके लिये मनोभवनमें वैराग्य रसका प्रवाह सतत रखना अत्यावश्यक है । मन, अगर वैराग्य रंगसे तरंगित न हुआ, तो समझ लो ! दान तप वगैरहका प्रयास निष्फल है। समस्त कलाएँ पायीं, तो इससे क्या हुआ ? , उग्र तपस्याएँ की, इससेभी क्या हुआ ? , विश्व व्यापि-रजत सम्पदाका उदय जाग उठा, इससेभी क्या हुआ ? , यदि आत्मघटमें विवेक प्रदीपकी किरणें स्फुरित न हुई, अतः मनको पाक रखने के लिये विवेककी बडी आवश्यकता है, विवेकही धीरजका जन्म दाता है, और धीरजका यही प्रभाव है कि मनुष्य, अकृत्य कर्म तरफ एकदम नहीं कूद सकता।
कामी लोग, औरतोंके काले व कुटिल केशपाशकी तर्फ नजर लगाते हैं, मगर स्त्रीके संगसे-स्त्रीके आलिंगनसे पेदा होने वाली दुष्कर्म संततिको नहीं देखते । कामी जन, स्त्रियोंकी 5वद्वरी ( भौहवेल) का वर्णन करते हैं, पर यह नहीं जानते कि यह सचमुच मोक्ष मागके मुसाफिरोंके लिये सामने खडी रही हुईप्रबल अन्तरायभूत काली सांपनी है । रमणियोंके भंगुर स्वभाववाले नेत्र विक्षेप, देख, गँवार खुश होते हैं, परंतु यह नहीं जानते कि हमारा ही जीवन क्षणभंगुर है । कामिनिओंकी नाककी डांडीकी, लोग, तारीफ करते हैं कि यह कैसी सरल है ?, कैसी उन्नत है ?, परंतु यह खयाल आवेही कहांसे ? यह कामकी डांडी, हमारे कुलकी इज्जतको चूर्ण करनेवाला एक मुसल है । पुलहिनोंके कपोल (गाल ) में प्रतिबिम्बित हुए अपनेको, कामी जन, देख आनन्द पाते हैं, परन्तु संसार नदीके कीचडमें चिपकनेका कष्ट नहीं
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धर्माशेक्षा
देखते । स्त्रियोंके अधर ( नीचेका होठ ) को, रतिका कुंड समझ कर कामी लोग पीते हैं, मगर इस बातका खयाल नहीं होता कि काल पिशाच, दिनरात हमारा आयु पीता रहता है । कामी जन,
औरतोंके दांतोंको, कुंद पुष्पके भाई समझते हैं, पर यह विचार नहीं आता कि जरा-राक्षसी हमारे दांतोंके तोडनेकी तय्यारीमें है । रागी लोग, स्त्रियोंके कानोंको कामदेवका दोला (हिंडोला) समझते हैं, पर कण्ठपर लगे हुए काल पाशको नहीं देखते । गँवार लोग, स्त्रियोंके मुख चन्द्रकी किरणोंका दर्शन बार बार करते हैं, मगर यमराजेकी तर्फ एक भी क्षण देखना नहीं होता । कामके पराधीन-कामवशी पुरुष, स्त्रीका कंठ पकडता है-स्त्रीके कंठका आलंबन करता है, पर कंठका अवलम्बन कर रहे हुए-आज कलमें चले जानेवाले प्राणोंको नहीं जानता। स्त्रियोंकी भुजलता ( हाथ वेल ) देख, मोही आदमी प्रसन्न होता है, पर यह नहीं सोचता-" यह भुज लता नहीं, किंतु मेरेको जकडनेकी मजबूत जंजीर ( संकल ) है । स्त्रीके हाथोंसे आलिं. गित हुआ पुरुष, रोमांच कंटकोंको जगा देता है, पर आश्चर्य तो यही है-"वे रोमांच कंटक, समर वृक्षके कंटकोंको नहीं स्मरण कराता । स्त्रियोंके, सुवर्ण कलशका अनुकरण करनेवाले, स्तन कलशोंको, आलिंगन करके-हस्तकमलमें पकड करके-उन्हींको, कोमल हाथसे मर्दन करता हुआ-नखोंसे दाबता हुआ-मूठीमें भरता हुआ-अंगुलीसे ठकठकाता हुआ-गालोसे स्पर्श करता हुआ, कामी जन, सुखसे सोता है, मगर उसवक्त उस मूर्खको नरककी भयंकर वेदनाएँ याद नहीं आतीं । काममें अंधे बनेहुए आदमीको सोचना चाहिए कि "गरम गरम तपे हुए खम्भेका आलिंगन करना अच्छा है, मगर नरकका द्वार भूत, रामा (रमणी) का जघन सेवना अच्छा नहीं, जो कि दुरंत, अतिकटुक, दारुण
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এলাহী, कर्म विपाकको जन्म देता है । नरककी भयानक वेदनाके आगे, रमणीके स्तन स्पर्शका सुख रत्ती भरभी नहीं है। कहां, मेरु पर्वत जितनी नरककी अपार वेदना, और कहां संसारका अणुमात्र विषय सुख?। मुग्ध लोग, मुग्धाक्षियों (औरतों) के मध्यभाग पर लेट जाते हैं, पर यह नहीं समझते-" यह मध्यभाग, सचमुच संसार महासागरका मध्यभाग है। स्त्रियोंकी तीन वलियों के तरंगोंसे आदमीका मन खींचा जाता है, मगर तत्त्वविद्या यह है की तीन वलियां क्या हैं, ? सचमुच तीन वैतरणी नदियां हैं। स्त्रीकी नाभि रूपी बावलीमें, कामीका कामात हृदय, डुबकी मारता हैं, परंतु समता-शांति जलमें, प्रमादसे भी नहीं घुसता । " स्त्रियोंकी रामलता, कामदेवके चढनेकी सीढी है " ऐसा समझते हुए लोगोंको, यह तत्व ज्ञान आवश्यकीय है-" संसार रूपी कैदमें लोहेके संकलकी बराबर स्त्रियोंकी रोमलता है " । जघन्य लोग, स्त्रीके विपुल जघनको भजते हैं, मगर यह नहीं जानते-" यह जघन, संसार सिंधुका किनारा है"। स्त्रियोंकी जंघाके साथ अपनी जंघाको घसडता हुआ कामी जन, यह नहीं देखता कि " यह जंघा, सचमुच पुण्य पेडको तोडने वाला प्रतीक्ष्ण कुठार है"। स्त्रीके पाँवोंसे हनाता हुआ पुरुष, अपनी आत्माको धन्य समझता है, पर यह नहीं समझता-" मैं स्त्रीके पांवोंसे हनाता हुआ सचमुच अधोगतिमें जा रहा हूँ"।
दर्शनसे, स्पर्शनसे, और आलिंगनसे, स्त्री जाति, शम जी. वितको हननेवाली, है, इसलिये उग्रविषसे भरी हुई सांपनीकी तरह वह, विवेकवंतोंको, काबिल परित्याग करनेके है । चन्द्रकी रेखाकी तरह टेढी, सन्ध्याकी तरह क्षण रागवाली, नदीकी तरह नीच गति वाली, वनिता, (औरत) विरक्तोंके हृदयों में प्रवेश नहीं पा सकती । मदन के आवेगमें अंधी बनी हुई स्त्री, न, प्रतिष्ठाको देखती
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૧૧૨
धशिक्षा. हैन सज्जनता, न दान न गौरव, और न स्वपरका हित देखती है। निरंकुश कामिनी, पुरुष पर इतना असमंजस आचरती है, कि जो क्रुद्ध हुए शेर, सिंह, सॉप वगैरहसे भी न बन सके । प्रकट किया है दुर्मद जिन्होंने, ऐसी वनिताएं, हथनीकी तरह संतापको पैदा करने वाली हैं, इसमें कोई संदेह नहीं।
वह कोई मंत्र, स्मरणमें लाओ!, वह कोई देव, उपासना से प्रसन्न करो ! जिससे स्त्री पिशाची, अपने शील जीवितको ग्रस्त न करे। जो जो दुःशील, स्त्री संबंधी, शास्त्रोमें सुनते हैं, और लोकमें प्रख्यात है, वे, काम विव्हल-वनिताओंकी तर्फसे बराबर संवादित होते है।
बिजली अगर स्थिर हो जाय, पवन अगर कहीं बैठ जाय, तौभी स्त्रियों के हृदयोंमें स्थिरताका अवकाश होना बडा संदिग्ध है, वगैर मंत्र तंत्रोंके भी स्त्रियोंसे चतुर लोग ठगाये जाते हैं, यह कैसी स्त्रियोंकी चतुराई !, ऐसी विद्या, जहांसे औरतें पढी होंगी, वह, ब्रह्माका भी गुरु हो, तो ना नहीं । स्त्रियोंकी मृषावाल्की बैदुषी, चतुराई, कोई अलौकिक ही मालूम पडती है कि प्रत्यक्ष भी अकृत्यों को, वे, क्षण वारमें छिपादेती हैं।
पागल आदमी, लोष्ट (ढेले) को जैसे सुवर्ण समझ लेता है, वैसे मोहान्ध आदमी, स्त्री के संगसे पैदा हुए दुःखको सुख समझता है । जटी, ( जटा धारी) मुंडी, शिखी, मौनी, नग्न, वल्की, तपस्वी, और ब्रह्मा भी क्यों न हो ? , यदि वह स्त्री भोगी है-अब्रह्मचारी है, तो हमें पसंद है ही नहीं। खुजली (खाज) को शान्त करनेके इरादेसे खुजलता हुआ मनुष्य, सुख समझता है, पर वास्तवमें वह दुःखही है, उसी तरह कामके दुवार आवेशके वशीभूत हुए लोग, मैथुन क्रीडाको मुख समझते हैं, पर दर
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धर्मशिक्षा
૧૧૩ अस्लमें वह दुःखही है, इसमें कोई सन्देह नहीं । जो कवि लोग, नारियोंको सुवर्ण प्रतिमासे उपमा देते हैं, वे, छोड स्त्रियोंको, सुवर्ण प्रतिमाहीको आलिंगन करके क्यों तृप्त नहीं होते ? । स्त्रीका जो अंग निन्दनीय है, और गोपनीय ( काबिल ढांकनेक ) है, उसीमें लोग यदि अनुरागी बनें, तो और किससे वैराग्य पावेंगे? । चन्द्रमा, पुंडरीक कमल, कुन्द पुष्प वगैरह दिव्य चीजोंको, मांस व हड्डीसे बने हुए स्त्रियोंके अङ्गोकें उपमान ( उपमा ) बनाकर मोही कवियोंने फिजूल कम कीमतकी करदी। कहां प्रभावशाली तेजोमय, आल्हाद जनक चन्द्र वगैरह दिव्य पदार्य, और कहां बदबूका खजाना, अशुचिका ढेर, हड्डीकी पुतली औरत ? । चूतड, छाती, थनका, बोझवाली-औरतको, उरस्थल ( छाती) पर चढाकर मन्दमति लोग, रतिमें मग्न हो जाते हैं, परंतु उसवक्त यह विवेक नहीं आता कि-" संसार महासागरके मध्य भागमें डुबानेवाली शिलाको, मैं कंठमें बांध रहा हूं"। स्त्रीको छातीपर चढाना क्या है, मानो ! बडी शिलाही गलपर बांधनी है । जैसे शिलाको गलेमें बांधनेपर, जलाशय नहीं तैरा जाता, वैसे स्त्रीरुपी शिलाको गलेमें बांधनेपर संसार महासागरका पार पाना नहीं हो सकता, उलटा संसारमें डुबना ही होता है।
स्त्री, भव समुद्रकी वेला है। स्त्री, काम देवकी राजधानी है। स्त्री, मदोन्माद करनेवाली मदिरा है । स्त्री, विषय रूपी मृग तृष्णाका मरु स्थल है। स्त्री, महामोह अंधकारको फैलाने वाली कृष्णपक्षी रात है। स्त्री, विपदाओंकी खान है, इसलिये, हे सज्जनो! दुलहिनमें अंधे मत बनो ! । यद्यपि काम राजाका प्राबल्य चारों ओर छा गया है, और हरि, हर, ब्रह्मा, पुरन्दर वगैरह माहास्मा लोगोंकी भी हज्जामपट्टी, कामदेवने अच्छो की है, इसीलिये तो भर्तृहरिशतकमें भर्तृहरि फरमा रहे हैं कि
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૧૧૪
धर्मशिक्षा “शम्भु स्वयम्भु हरयो हरिणेक्षणानां येनाऽक्रियन्त सततंगहकर्मदासाः। वाचामगोचर चरित्रविचित्रिताय तस्मै नमो भगवते कुसुमध्वजाय" ॥ १॥ अर्थः___ " भगवान् कामदेवको नमस्कार हो, जिसने, सारी दुनियाको वश करनेके साथ दुनियाके नायक-शम्भु, (शंकर) स्वयम्भु, (ब्रह्मा) और हरि, (कृष्ण) कोभी औरतोंके घर कामके गुलाम-खिदमतगार बनाये, इसीसे कामदेवकी शक्तिका प्रभाव, वचनोंके गोचरमें नहीं सकता, जभी तो कामदेव, भगवान् शब्दसे व्यवहृत हुआ"।
तथापि काम, क्रोध, लोभ, मोह राग द्वेषको चूर्ण बनानेवाले, निष्कलंक, निरंजन निर्लेप, ज्योतिः स्वरूप, परमात्मा वीत. रागदेवके परमविशुद्ध, शांति संपादक, स्थिरता उत्पादक और भवरोगका अद्वितीय औषध, भूत-शासनके सेवक-भक्त-उपासक बने हुए श्रमणोपासकों का, कामदेव, सर्वथा नहीं तो देशतः जरूर, ढीला पडजाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं ।
यह पक्की बात है कि सद्विवेक रुपी रत्नोंकी पैदायश, सिवाय वीतराग शासनके, और कहीं नहीं है, जभी तो अन्यत्र कषायोंको उत्तेजन मिलताहै, जब शांतिका विशुद्ध आनन्द, वीतराग भक्त पा रहे हैं।
कामदेव अफसर, इन्द्रियों पर सवार होके जगद् विजयकी यात्रा करनेको निकलता है । इन्द्रियाँही कामदेवके विजय होनेमें
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धर्मशिक्षा.
૧૧૫ पूर्ण सहायता देती हैं। इन्द्रियाँ मजबूत तो कामदेव मजबूत, इन्द्रियाँ ढीली, तो कामदेव भी ढीला । अन्वय व्यतिरेक न्यायसे इन्द्रियों के अनुसार कामदेवकी गति है, इसलिये काम को दुश्मन समझने वालों को चाहिए कि पहले इन्द्रियाँ ही ढीली करदें, इन्द्रियोंसे, उच्छृखलता वृत्ति को छुडवादें, तबही आत्मतत्त्वका ज्ञान जाग उठेगा और धार्मिक प्रवृत्ति बन सकेगी । जो इन्द्रियाँ, आत्माको कुमार्गसे लेजाने के लिये, उन्मत्त घोडेका आचरण करती हैं, जो इन्द्रियाँ, कृत्याकृत्यका विवेक रुपी अभ्यंतर जीवनको नष्ट करनेमें काले सांपकी तरह आचरण करती हैं, जो इन्द्रियाँ, पुण्यपेडको उखाडनेमें प्रतीक्ष्ण कुठारकी चेष्टा करती हैं, वे इन्द्रियाँ, अगर न जीताई, तो पुरुषने क्या जीता ?, इसलिये पुरुषार्थ का अव्वल उपयोग, इन्द्रियों के जीतने में होना चाहिए । जो इन्द्रियां, प्रतिष्ठाको, निष्ठा (समाप्ति) में लेजाती हैं, जो इन्द्रियाँ, नय निष्ठाको कतल करदेती हैं, जो इन्द्रियां, अ. कृत्योंमें बुद्धिको स्थापन करती हैं, जो इन्द्रियाँ, विषय रसमें प्रेमको फैलाती हैं, जो इन्द्रियाँ, विवेकका खून पीनेमें कमर कस. ती रहती हैं, और जो इन्द्रियाँ, विपदाओंकी जननी होके बैठी हैं, उन्हें, वशमें लाके अनुभव रसका तात्विक आनन्द उठाना चाहिए । मौन करो!, घर छोडो!, क्रियाकांडका अभ्यास करो !, वनमें वास करो! , स्वाध्याय करो!, तप तपो, परंतु जहांतक श्रेय-कल्याणके पुंजके निकुंजको भंजन करनेमें महावायुके बराबर इन्द्रिय गणको न जीती, वहां तक सब अनुष्ठान, भस्ममें घी के होमनेके बराबर हैं, इसलिये उच्छृङ्खल इन्द्रियोंको वशकरनेमें जरूर प्रयत्न करना चाहिए, तबही धर्मकी सडक पायी जायगी, और ब्रह्मचर्य चिन्तामणि, हाथ आयगी । ब्रह्मचर्य चिन्तामणि हाथ आयी, फिर कहनाही क्या?,
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૧૧૬
धशिक्षा. जो आप चाहेंगे, वह, चाहनाके उत्तर काल भावी ही समझ लीजिए, इष्टवस्तुके सम्पादनमें इच्छा ही कारण होगी-इच्छा ही, इच्छाके विषयको प्रकट करनेमें कारण बनेगी, इतनाही क्यों? , इच्छाकी विषयतामें नहीं आया हुआ भी स्वर्गादि वैभव, ब्रह्म चारीके पास उपस्थित होजाता है, और मुक्ति देवी भी, ब्रह्मचारीकी तरफ प्रेम पूर्वक नजरोंको टकटकाती रहती है, वस! पूरा हुआ सकल गुणोंका आधार-ब्रह्मचर्य व्रत ।
curria पांचवाँ स्थूल परिग्रह विरमण व्रत.
अर्थात्
परिग्रहका परिमाण
असंतोष, अविश्वास, और आरम्भ, इन तीनोंको दुखके देनेवाले, और मूछ से पैदा होनेवाले समझकर मूछोंके कारणभूत परिग्रहका परिमाण करना चाहिए । बेशक ! गृहस्थोंको धन विना नहीं चल सकता । सारे संसारका मुख्य स्तम्भ जैसे स्त्री है, वैसे द्रव्य-दौलतभी है। तौभी, लक्ष्मीदेवी हमारे आधीन नहीं होनेसे, दौलतकी एकदम गुलामी करना अच्छा नहीं । हमारी इच्छाके मुताबिक जव लक्ष्मी नहीं मिलती तो फिर आशातरंगोसे फिजूल क्यों बहना चाहिये । प्राणिओंकी आकाश जितनी चौडी आशाकी परिसमाप्ति होनी बहुत कठिन है । यह पक्की बात है कि जितना जितना लाभ बढेगा, उतना उतना लोभ अपना पद जरूर जमावेगा । ज्यों ज्यों दौलतकी पैदायश बढती जाती है, त्यों त्यों मनुष्योंका हृदय चक्र, तृष्णा कल्लोलोंसे ज्यादह घूमा करता है ।
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धर्माशक्षा
૧૧૭ ज्ञानदृष्टिसे सोचनेपर यही स्फुरण होता है कि किसके लिये लोभान्ध होकर लक्ष्मीकी क्षुद्र गुलामी करना ?। जितनेसे अपना काम, चलजाता हो-पार पडजाता हो, उससे अधिक तृष्णामें क्यों फँसना चाहिये । बाहरकी दौलतसे, बाहरका मतलब सिद्ध होने परभी आत्माकी गरज न सरे, तो बाहरकी दोलत किस कामकी ?। दर अस्लमें अपनी आत्मिक गरज सरनेका उद्यम पहिले करना मुनासिब हैं, जब दौलतरूपी शराबका नशा, आत्मिक सम्पदा साधनेमें कट्टी शत्रुता रक्खा करता है, इसलिये सब दौलतका परिमाण करना चाहिये, नहीं तो दौलतरूपी शराबका मूर्छारूपी नशा, दुःखदायक-असंतोष, अविश्वास, और आरंभका जन्म दिये सिवाय नहीं रहता । क्यों कि जहाँ दौलत रुपी शराबके पान करनेकी मर्यादा नहीं रही, वहाँ मूछी रूपी नशेके वढनेका वेग क्यों कर रोका जायगा ?। और मूर्छा रूपी नशेके वेगसे आदमी जब बेचैन पडेंगा, तो फिर असंतोष, अविश्वास, और आरंभकी आपदाओं के जुल्मका पूछना ही क्या ?। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मूीवान् आदमी धनसे तृप्त नहीं होता। और उत्तरोत्तर आशा-पिशाचीस पिटाता हुआ मनुष्य दुःख ही को पाता रहता है। यह जुल्म असंतोषका है, इस जुल्मको हटानेके लिये असंतोषकी माँ- मूर्छाकी नाक काटलेनी चाहिये-मूर्छा राक्षसी का संहार करना चाहिये । मूर्छाका शिकार करने पर असंतोषही क्यों ? पूर्वोक्त-अविश्वास और आरम्भ भी पतला पड जाता है ।
और मूछ की मजबूताई होने पर असंतोषकी तरह अविश्वास भी दुःखका खैरात करने लग जाता है । जहाँ मूछोंने अपना पाँव जमाया, वह मनुष्य, इतना तो शंकाशील रहता है कि नहीं शंका करनेके योग्य-सज्जन महाशयोंसे भी धन हरणकी शंका के
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૧૧૮
धर्मशिक्षा. मारे सब जगह चौंकता रहता अपने धनकी रक्षाके उपद्रव हीमें गटपट किया करता है । मूच्छावान् मनुष्य, सबपर शंकाशील रहता-किसीपर भी विश्वास न करता हुआ रातको निश्चल नींद लेनेको भी भाग्यशाली नहीं बन सकता, यह भला किसकी बदमाशी ?, मूर्छाके लडके अविश्वास ही की । इसीके प्रभावसे तो आदमी किसीका मित्र-प्रेमी नहीं बन सकता। अविश्वासी पुरुषके साथ, उसके स्वजन वर्ग भी, नाराज-नाखुश होके, उसे नादान-नालायक समझकर सम्बन्ध तोडदेते हैं । जैसे असंतोषी पुरुष, भरपेट सुखसे नहीं खाता, अच्छे-उमदे कपडे नहीं पहिनता, वैसे ही अविश्वासी आदमी भी पलंगपर निश्चित निद्राकी सुधा दृष्टिकी अपूर्व मजा नहीं ले सकता।
वास्तवमें असंतोषी व अविश्वासी आदमीको धर्मकी प्राप्ति नहीं होती, कारण यह है कि देव व धर्मको प्रकाश करनेवाले गुरुदेव-गुरु महाराज ही पर अव्वल तो असंतोषी व अविश्वासी आदमीकी पूज्य बुद्धि नहीं रहती, वह तो यही मनमें शंकाता रहता है कि "कहीं मेरेसे गुरु महाराज पैसा न खर्चावें, अथवा मे. रेसे पैसा खर्चनेको न कहें ? " । सज्जनो ! जहां इस शंकाने अपना स्थान बनालियां, उस आदमी में, गुरु पर, पूज्य बुद्धि रही कहोगे ?, कभी नहीं; और गुरु पर पूज्य बुद्धि न रही, तो देव, व धर्मकी भी आराधना न बन आवे, इसमें कहना ही क्या ? । असंतोषी आदमी तो अपना भंडार ही भरना रातदिन चाहता रहता है, तो उस आदमीकी चमडी टूटने पर भी दमडी न टूटे, इसमें कोई ताज्जुब नहीं । अविश्वासी आदमी भी, स्त्रीके शरीरपर नपुंसककी तरह द्रव्यपर हाथ ही फिराता रहता है, रातदिन शंकाकी गरमीके मारे उसके दिलको तसल्ली नहीं मिल स. कती । ये दो ( असंतोष व अविश्वास ) मूछ के फल बता
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धर्मशिक्षा.
૧૧૯
दिये । अब तोसरा फल आरम्भ भी बड़ा कष्टदायक है। इसमें सन्देह ही क्या है कि मूर्छावाला मनुष्य, प्राणातिपात-जीवहत्या वगैरह ऐसे आरम्भोंमे फँस जाता है-जिनका विपाक परिणाम, बडा कडवा होता है । लडका बापको, बाप लडकेको, भाई भा
ईको, और भतीजा चचेको. द्रव्यकी मूर्छाके वेगमें आके ऐसी • हद्दपर ला छोडता है, कि दूसरे शत्रुसे भी यह काम न बन आवे । धनलोभी पुरुष, धनकी मूच्छोसे झूठी साक्षी देता हुआ महा मिथ्या वचन बोलता है। रास्ते मुसाफिरोंको लूटनेका काम करता है । धनवानोंके घरोंकी दीवारोंको तोडनेमें कमर कसता है। तथा अनेक प्रकारके ऐसे कष्ट कार्योंको उठाता है कि उससे चौथे भागका भी कष्ट अगर धर्मके लिये उठाया जाय तो मुक्ति स्त्रीका भी थोडा कुछ आकर्षण जरूर हो सके, इसमें क्या सन्देह, मगरबडीताज्जुबकी बात है कि धर्मकी तरफ लोगोंकी नजरें नहीं जाती, जब विषयों तरफ अनायास ही मनकी चपलता चला करती है । हम खूब समझते हैं कि संसारके सब विषय अनित्य, एवं बड़े दुःख देनेवाले हैं, फिर भी हमारा नालायक मन, उनकी तरफ दौडा करता है, यह कितनी कमजोरी ? । मनुष्योंकी चंचळ चित्तवृत्ति, लोभ समुद्र में तृष्णा कल्लोलोंसे चक्कर खाती हुई गोतोंसे भवरमें ऐसी डुबकी मारा करती है कि मानो ! त्रिलोकीका मालिक होनेको न चाहती हो ?, परन्तु यह बडी मूर्खता है कि फिजूल तृष्णा-आगसे जलते रहना । बेशक ! धनार्जनके लिये उद्यम करना चाहिये, मगर नीतिकी सडकसे-विशुद्ध हृदयसे उद्यम करना मुनासिब है, ता कि धन पैदा करनेका मुख्य मतलब भी पार पड जाय, और आत्मवृत्तिमें तामसिक-प्रकृतिके चक्रसे पुण्य रूपी पेड न कटे जायँ । यह स्पष्ट है कि परिग्रह (धन धान्य आदि) का बहुत भार उठाता हुआ प्राणी, नावकी तरह संसार-समुद्रमें डूब जाता हे।
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धर्मशिक्षा.
तथा च जैनेन्द्र आगम“महारंभयाए, महा परिग्गयाए, कुणिमाहारेणं, पंचिंदियवहेणंजीवा नरयाउयं अजंति"
इस आगमसे, नरककी आयुके उपार्जनके रास्ते बतलाते हुए भगवान् , महा आरम्भ और महा परिग्रहसे भी अधोगतिमें गिरना फरमाते हैं । तात्त्विक नजरसे विचार करने पर परिग्रहमें त्रप्त रेणु मात्र भी कोई गुण नहीं है । और दोष तो बडे बडे पहाड जितने प्रकट दिखाई देते हैं । अलबत्ते द्रव्यसे परमात्माका मन्दिर, प्रतिमा, ज्ञान-पुस्तके वगैरह बहुत धमके कार्य अच्छी तरह बन सकते हैं-परमात्माका मन्दिर, द्रव्यसे बनवाया जाता है, जीर्ण मन्दिरका पुनरुद्धार, द्रव्य से कराया जाता है, शास्त्रजी लिखवाना, छपवाना, तथा शास्त्रजीका चैत्य वनवाना यह भी द्रव्यसे होता है, पाठशाला, गुरुकुल, दानशाला, वगैरह भी पैसेसे बनते हैं, एवं साधु-साध्वोजीको अन्न, वस्त्र, पात्र, वगैरहका दान देना यह भी द्रव्यके ताल्लुक है, और इन कामोंसे पु. ण्यानुवन्धी पुण्य-महा पुण्यका जन्म होता है, और कर कोंकी निर्जरा होनेका भी सम्भव रहता है तो भी यह पक्की बात है। कि परिग्रहमें त्रस रेणुमात्र भी गुणका सम्भव नहीं है, और दोष पहाड जितने बड़े हैं।
बड़े अचम्भेकी बात है कि परिग्रहसे जिनालय-मूर्ति वगैरह पूर्वोक्त धार्मिक कार्योंकी पैदायशद्वारा पुण्य प्राप्ति बतलाते हुए भी पीछेसे जाके त्रसरेणुमात्र भी गुण, परिग्रहसे निकाल देते हो ?।
इसमें कोई अचम्भेकी बात नहीं, अचम्भा मात्र नहीं । समझनेका है। वस्तुदृष्टि यह है कि पूर्वोक्त धार्मिक कामोंका
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धर्मशिक्षा.
૨૨૧ द्रव्यसे जो होना है, सो आरम्भसे पैदा किये दौलतका सदुपयोग करना है । पापसे पैसा पैदा किया, तो उसे अच्छी जगहमें खर्च करनेसे पैसेका सदुपयोग होता है। पाप किये बिना पैसा पैदा नहीं हो सकता, इसलिये पैसेको संसारके कामोंमें खर्च करनेके साथ, धर्ममें भी अवश्य खर्च करना चाहिये । इससे परिग्रहमें कोई स्वतंत्र गुण सिद्ध नहीं हुआ। पापोंसे बचनेके लिये पापजन्य दौलतको धर्ममें खर्च करनेसे बतलाईए ! क्या नया गुण हुआ ? कीचडमें पाँव बिगाडके जलसे धोनेमें क्या कोई नया गुण मिल सकता है, कभी नहीं । अगर गुण ही के लिये द्रव्यकी पैदायश करना अभिप्रेत हो, तो यही शास्त्रकारोंका फरमाना है कि द्रव्यको मत पैदा करो ! वरन् अपरिग्रही साधु बन जाओ!, इसीसे नया गुण पैदा होगा। मगर धर्मके लिये जो दौलतको चाहता है, उसको द्रव्यकी इच्छा न करना ही अच्छा है, वही परम धर्म है । धनकी इच्छामें धर्मका जन्म देनेकी ताकत है ही नहीं, जिसमें, जिसके पैदा करनेकी ताकत न होगी, उससे उसका जन्म कभी न होगा, वीतराग ही दशा सर्वोत्कृष्ट धर्मकी अव्वल माता है, अगर मोक्ष मिलनेकी आशा रखते हो, मोक्ष पानेकी उत्कट आकांक्षा धरते हो, तो समझो ! कि कहीं पर धूमा करो! मगर फिर फिर के वीतरागही दशा पर आना पडेगा, और तव ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र, इन तीनोंकी समष्टि-समुच्चयावस्था बनेगी। यही समष्टि-समुच्चयावस्था, मोक्षका एक अद्वितीय-असाधारण मार्ग है, इसी सिद्धि-मुक्तिकी शिलापर आके सबने सिद्धिशिलापर आरोहण किया है, करते है,
और करेंगे, । यह समष्टि, द्रव्यके साथ बडी शत्रुता रखती है, द्रव्यकी चाहना होते तक इस समष्टिका उदय हर्गिज नहीं होता ।
संग (परिग्रह ) से, उदयावस्थाको प्राप्त नहीं हुएमी-राग
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धशिक्षा. द्वेष आदि दूषणगण, प्रगट हो जाते हैं, यहांतक परिग्रहकी गर्भीका जुल्म है, कि मुनिजनोंके भी चित्त चंचल होते हैं। संसारका मूल आरम्भ है, और आरम्भोंका हेतु-परिग्रह है, इसलिये उपा. सक (श्रावक) को चाहिए कि परिग्रहका परिमाण करे-नियम रक्खे । परिग्रहरूपी ग्रहसे आविष्ट हुए पुरुषको, विषयरूपी चौर लुटते हैं, और कामदेवरूपी आम, संताप देती है, तथा स्त्रीरूपी व्याधगण (शिकारी लोग) रोक लेते है। बहुत परिग्रहसे भी तृष्णावन्तोंको तृप्ति नहीं होती, उलटा असंतोष ही बढता जाता है, कहा है
“ सुवण्णरुप्पस्स य पव्वया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि
इच्छा हु आगाससमा अणंतिया” ॥१॥ अर्थ
संसारमें, सोने रूपेके, कैलासजितने असंख्य पहाड, प्राप्त हो जाय, तो भी लुब्ध आदमीको उनसे कुछ नहीं होता (संतोष नहीं होता)। सचमुच इच्छा-आशा, आकाश जितनी अनंत परिमाणवाली है। स्वयम्भूरमण समुद्रका पार पाना सम्भवित है, मगर आशा महोदधिका थाह पाना अति कठिन है । सौ रूपयेवालेको हजार पर मन जाता है । हजार पानेपर लक्षाधिपति होना चाहता है । लक्षाधिपति होनेपर कोटीश्वर होना चाहता है । कोटीश्वर होनेपर राजा, महाराजा बनना चाहता है । महाराजा हुआ, " समाट्-चक्रवर्ती कव बनूँ " इस इच्छासे घेरा जाता है। चक्रवर्ती हुआ, तो देवताकी संपदा तरफ दिल दौडाता है। देव.
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धर्मशिक्षा.
१२३ ताभी हुआ, मगर " जहां तक इन्द्रका लोकोत्तर ऐश्वर्य न मिला वहांतक कुछ नहीं," इस तृष्णामें गोतें मारता है, बस ! आशा. का कोई थाह नहीं।
सगरचक्रवर्ती, साठहजार पुत्रोंसे तृप्त न हुआ। कुचिकणे ग्रामनेता गायोंसे तृप्त न हुआ। तितकशेठ, धान्यसे तृप्त न हुआ। और नन्दराजा, सोनेकी राशिसे संतुष्ट न हुआ। परि. ग्रहरूपी ग्रहका जोर यहांतक है कि उसके फंदेमें आये साधु जन भी, तप श्रुतपरिवार युक्त-शम साम्राज्य संपदासे रहित हो जाते हैं। असंतोषी, चक्रवर्तीको उतना सुख नहीं, असंतोषी इन्द्रको भी उतना आराम नहीं, जो सुख, जो आराम, निरभिमानी संतोषी महात्माको है । उसके सनिधि (पास ही) में महा पद्म वगैरह निधियाँ हैं, उसका पल्ला कामधेनु नहीं छोडती, और देवता लोग भी उसके किंकर बन जाते हैं जिसको संतोषरूपी गहना अलंकृत कर रहा है। क्या सन्देह है कि संतुष्ट साधु लोग, शमके प्रभावसे, तृणके अग्र भागसे भी रत्नोंकी दृष्टि कर देते हैं, और सुरपतियोंसे भी अहमहमिकासे (मैं पहला मैं पहिला इस रीतिसे) पूजाते हैं ।
संतोष, संसारमें आलादर्जेका वशीकरण मन्त्र है । संतोष, शरीरकी तंदुरस्तीका अद्वितीय-असाधारण औषध है। संतोष दारिद्रयका कट्टा दुश्मन है । संतोष, धर्मराजेके प्रासादमें प्रवेश करनेका अव्वल दरवाजा है । संतोष मोहराजेके सेनावलको चूर्ण करनेवाला है। संतोष, रागरूपी केसरीका भी शिकार करनेवाला है। संतोष, द्वेषरूपी उन्मत्त मातंगका भक्षण करनेवाला है। संतोष, सब तपस्याओंका अग्रेसर है। संतोष मिला, तो समझो ! त्रिलोकीका साम्राज्य मिल गया । जो अभिलाषाएँ, असंतोषी-मूर्छावा
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१२४
धर्माशेक्षा नको कोटी उपायोंसे सिद्ध नहीं होतीं, वे संतोषी महात्माको अनायास-अप्रयास ही सिद्ध होजाती है, इसमें कोई सन्देह नहीं।
धन्य है पुनिया श्रावकको, जो, दो आनेकी पूंजीमें, " एक दिन वह श्रावक उपवास करे, एक दिन उसकी औरत उपवास करे " इस रीतिसे, घरमें एक जनका बचाव करके उसकी जगह महात्मा धर्मात्माके पात्रमें भोजन देता था, कितनी आश्चर्यकी बात है कि इतनी भयंकर दरिद्रताकी गर्मी में भी इतना संतोष, इतना धर्मकी ओर खयाल रहना । हमारे कितने ही दौलत मंद साहब तो पेट देवताकी खबर लेते हुए " धर्मका क्या हो रहा है, जातिकी दुर्दशा कैसे दूर हो, " इस बातकी तर्फ नजर भी नहीं झुकाते। कितने ही लोगोंके लिये “ चमडी टूटे, मगर दमडी न टूटे" यही बात है । हा ! ऐसी दशा, जातिमें कहांतक ठहरेगी? , ऐसे मख्खी चूस लोग, कब धर्म चूस होंगे ?।।
खयाल रहे कि धर्मका अभ्युदय, खास करके जैसे विद्याके ऊपर आधार रखता है, वैसे लक्ष्मी पर भी आधार रखता है । बेशक! विद्या असाधारण कारण है, तो विद्याके सहायकोंमें लक्ष्मी भी प्रधान कारण है । लक्ष्मीकी सहायता रहित केवल विद्यासे कार्य सिद्धि कठिन देखते हैं, इसलिये धनि लोगोंको थोडीसी तृष्णा हटाकर धर्मकी खबर लेनी चाहिए-धर्ममें पैसेका सदुपयोग करना चाहिए।
धन, धान्य, सोना, रूपा, कुष्य, खेत, इमारत, दो पैरवाले मनुष्य-पंखी वगैरह, और चार पांववाले पशु जानवर आदि, यह नव प्रकारका बाह्य परिग्रह है।
राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, शोक, हास, रति, अरति, भय जुगुप्सा, वेद और मिथ्यात्व, ये चौदह अभ्यन्तर परिग्रह हैं।
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धर्माशक्षा
૧૨૬ ये बाह्य व आभ्यन्तर परिग्रह, संसाररूपी महलको टिकाने वाले बडे थंभे हैं । परिग्रहका प्रचंड बल, वैराग्य शम दम वगैरह मजबूत मूलवाले पेडों को भी मूलसे उखाड डालता है। परिग्रहमें बैठकर जो पुरुष मोक्ष पदकी अभिलाषा रखता है, वह लोहेके नाव से सागरका पार पाना चाहता है। इसमें क्या शक है कि धर्मसे पैदा होते हुए भी बाह्य परिग्रह, धर्मका ध्वस कर डालते हैं ?, क्योंकि अरणि लकडीसे पैदा होने वाली आग, लकडीको वराबर भस्मसात् करदेती है।
जो आदमी, बाह्य परिग्रहोंको जीतनेमें समर्थ नहीं है, वह नामर्द, राग द्वेष आदि भीतरके दुश्मनोंको कैसे जीत सकेगा। अविद्या-~अज्ञानताको क्रीडा करनेका बाग, व्यसन-क्लेशोंका समुद्र, और तृष्णा रूपी बडी वल्लीका कन्द है, तो वह परिग्रहही समझना चाहिए । बडी ताज्जुबकी बात है कि लोभान्ध-दौलत मंद लोग, निःसंग मुनिओंको धनार्थी समझकर उनसे भी बहत शंकाशील रहते हैं।
राजा, चोर, भाग माँगनेवाले, आग, और जलोपद्रव वगैरहसे डरते हुए धनी लोग, दौलतपर इतनी फिक्र रक्खा करते हैं कि रातको भी पूरी नींद नहीं ले सकते । दुष्काल हो, या सुकाल हो, वन हो, वा शहर हो, सभी जगह धनी पुरुष शंकापिशाचसे पीडाता हुआ दुःखी ही रहता है। वास्तवमें कहने दो तो निर्दोष हों, वा दोषित ही हों, मगर निर्धन आदमी जितने दुःखी नहीं, उतने दुःखी, दोषके खजाने-धन लोभमें फंसे हुए धनी आदमी हैं, । अव्वल तो धन पैदा करनेमें दुःख, धनके रक्षण करनेमें, क्लेश, धनके खर्च करनेमें तकलीफ, और अन्तमें धनका हरण होनेपर बड़ी ही आपदा धनी आदमीको उठानी पड़ती है । धनी
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૧૨
- धर्मशिक्षा. पुरुष, दिनरात " इस प्रकार धनको पाऊँ, इस रीतिसे धनको रकतु, इस तरीकेसे धनको बढाऊँ" इसी चिंताके मारे खूनको पानी बनाता है, मगर इस विचारका उदय होवे ही कहाँसे-“मैं जमके दांतोकी बीचमें बैठा हूँ, पीसानेकी तय्यारीमें हूं" ? । धनके लोभमें अंधा बना हुआ आदमी, भीतर ही लेश्यासे कृष्ण (काला) बनता है, इतना ही क्यों ?, बल्कि उसका मुँह और हाथ भी धनके जाने आनेसे काले हो जाते हैं। धनकी आशा, उच्छंखल-संकलसे न जकडाई हुई, इस कदर बिडम्बनाएँ वरसाती है कि पिशाचनी क्या वरसायगी । मनुष्योंके आत्मजीवनका भक्षण करनेवाली, मनुष्योंकी चेतनाको फिरानेवाली चीज आशाको छोड दूसरी कौन होगी ?। तात्त्विक विद्यासे आशा ही समस्त दोषोंकी माँ है, । धिक्कार है आशाकी दुष्टाको, और उससे जकडाए हुएको । धन्य है उन लोगोंको, जिनने आशाकी नाक काट डाली, यही काम करनेवाले, पुण्यशाली सच्चे ऋषि-महात्मा हैं, और इन्हीं ने संसार समुद्र तैर लिया समझिये ! । पापकी वेल, दुःखकी खान, सुखके जलानेकी आग, और भवरूपी पेडका अञ्चल बीज भूत आशा, जिसने परास्त करडाली, वह महात्मा, परमात्मा के ओहदेसे कोई दूर नहीं है । आशा दावानलकी ज्वालाका भय, कहाँतक बतावें-धमेमेघसमाधि कोभी वह ज्वाला उसीदम शान्त कर डालती है । आशा भूतनी के आवेशमें आके आदमी, क्या क्या नहीं करता, दीन दयाजनक विलाप करने लगजाता है, गाने. को बैठ जाता है, नाचनेमें मच जाता है, और विविध अभिनय करनेमें वावला बन जाता है। क्या बतावें, आशाकी गहन गति? जहाँपर वायु नहीं फूंकता, जहाँ मूर्य के किरणोंका प्रताप नहीं दमकता, और जहाँ चन्द्रकी सुधाका वरसना नहीं होता, वहां भी आशाकी लहरिएँ अस्खलित बह जाती है। इसमें कोई सन्देह नहीं
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धर्मशिक्षा. कि जिन्होंने आशाको अपनी महारानी-मालिकनी बनायी, उनने त्रिलोकी के लोगोंकी गुलामी करना मंजूर किया, और जिनने आशाको अपनी दासी बना ली, फिर उन महात्माओंके लिये कहना ही क्या, सभी लोग, उनके दास हो गये, तीनों जगत्का साम्राज्य, उनके करयुगलमें आ ही बैठा। यह पक्की बात है कि जो अर्थ, आशासे नहीं जकडाये गये, वे अर्थ, पाई वस्तुओंसे भी अधिक दर्जेवाले है, और जिन अर्थोंको आशाने अपनी गोदमें बैठालिया, वे स्वप्नमेंभी दर्शन नहीं देते । मनुष्य, जिन अर्थोको बहुत प्रयत्नसे साधना चाहता है, वे ही अर्थ, आशाका देशनिकाल करने पर, अनायास सिद्ध हो जाते है।
अगर पुण्यकी रोशनी, तकदीरका सितारा चमकता होगा, तो आशासे खून गरम किये बिना भी, मन कामना पूरी होनेमें संदेह ही नहीं है। अगरचे दुर्भाग्यका बादल आदमीके सिरपर धूम रहा होगा, तो मजाल है कि सैकडो दफे आशा नदीमें डुबकी मारने पर भी मनोरथ पूरा होवे?।
दरअस्लमें वही पण्डित है, वहीं प्राज्ञ है, वही तपस्वी महात्मा है, जिसने आशाका पल्ला छोडकर संतोषवृत्ति धारण कर ली। संतोष रूपी अमृतसे संतृप्त बने सज्जनोंको, वे, भले दरिद्र ही क्यों न हों?, जो सुख है, वह, इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र चक्रवर्ती, कोई भी सम्राटू क्यों न हो?, मगर उन असंतोषिओंको नहीं है। संतोष रूपी बख्तर जिनने पहिन लिया, उनपर, आशा बाणोंकी धारा नहीं पड सकती। संसारमें हजारों उपदेशक महाशय हैं,
और लाखों क्या? , करोडों पुस्तकें पडी हैं, उनसे अल्प मतियोंको यदि धर्मका सारांश, अथवा मुक्ति पदके साधने
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धर्मशिक्षा. की रीति मालूम न पड सकती हो, तो कुल पुस्तकोंका सार, सब धर्मशास्त्रोंका परमरहस्य यही अपनी आत्मामें जचा देना चाहिये कि आशा दावानल, शान्त हुआकि मुक्ति पद मिल गया । बस ! आशा ही संसार रूपी वृक्षका प्रधान बीज है, और आशा ही मोक्ष पदके पानेमें बड़ा विघ्न है। आत्माके उपर प्रतिप्रदेश नितनी कर्मवर्गणाएँ लग रही हैं, उन सबका प्रेरक-प्रयोजक, स्वतन्त्र कर्ता, आशाको छोड, और कोई नहीं है । संसाररूपी अजायब ढंगका रथ, एक ही आशारूपी पहियेसे चलता है । आशाको जिनने मार डाला, उनने मोह राजाको मार ही डाला । आशा ही मोह राजाका सर्वस्व परिग्रह है, उसे हटानेसे मोह राजाका जोर कुछ नहीं रहता । क्रोध, लोभ, काम, मद, मान, ईया, वगैरह सभी सुभट आशा देवीके पीछे हैं, आशासे जन्म पानेवाले हैं। आशाहीका पेट यदि फोड दिया जाय, तो फिर क्रोध काम वगैरहका जन्म होना नहीं बनेगा। राग, द्वेष, ये दो पहिये, यद्यपि संसार रथके चलानेवाले कहे जाते हैं, मगर तत्वदृष्टिसे देखनेपर ये कोई स्वतन्त्र नहीं हैं, अर्थात् ये, आशा भूतनी ही के रूप हैं । इन दो रूपोंमें अपनी आत्माको पलटती हुई, अथवा यो कहिए ! ये दो मुख बनाकर द्विमुखी बनती हुई आशा जगत्का-सारे संसारका ग्रास करती है, कुल जीवोंको लुकमे बनाती रहती है।
हजारों मिथ्यात्वियोंमें एक सम्यग् दृष्टि, अधिक पुण्यशाली है। और सम्यग्दर्शनियोंमें भी परिमित आरम्भ परिग्रहवाले-देशविरति श्रावक ज्यादह विशेष हैं । तीव्र तपस्या करते' हुए भी अन्य तीर्थक मिथ्या दृष्टि लोग, जिस गतिको नहीं
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धर्म शिक्षा पा सकते, वह गति, विराधकभाव वाले भी गृहस्थ-श्रावकको, सोमितकी तरह कोई दुर्लभ नहीं होती। मास मासतक निरन्तर उग्रतप करनेवाले, और पारणेमें, अंगुलीपर रहे, उतनाही खानेवाले भी मिथ्यात्वि तपस्वि लोग, संतुष्ट श्रावकों की सोलहवीं कलातक भी नहीं पहुँच सकते । हजारों वर्षतक अद्भुत-गहन तपस्या करनेपर भी तामलीतापस, सुश्रावकके पाने योग्य गतिसे भी हीन गतिमें चला गया, इसलिये श्रावक धर्मकी भी बलिहारी है। संतोषी श्रावक, आधा साधु ही है । साधुपन न बन आवे, तो नहीं सही, पर श्रावक धर्मपर तो जरूर आरूढ होना चाहिये । श्रावक धर्म इस कदर पालना चाहिये, कि आशा भुजंगीका पोषण न होने पावे। आशा भुजंगी यदि कोपाविष्ट हो गई, तो फिर देख लो ! कैसा उसका फूत्कार छुटेगा, और अपनी आत्मवृत्तिपर उसकी विषाग्निज्वालाका असर कितना पडेगा। संतोष रूपी नागदमनी औषधी अगर पास रखोगे !, तो मनाल नहीं है कि आशा-सांपनी, तुम्हारे पास फटकने लगे । इसलिये आशा पिशाचनोके पराधीन नहीं, बनना चाहिये और परिग्रहका निग्रह कर संतोष धरना चाहिये। इस प्रकार संतोषत्ति रखनेके साथ मुनिधर्मके ऊपर अनुराग रक्खा जाय, तो फिर कहना ही क्या ? श्रावकगृहस्थ भी, आठ भवोंकी भीतर बराबर मोक्ष पा सकता है। जिन श्रावकोंको, साधु होने पर प्रीति नहीं-साधु धर्म ग्रहण करनेकी अभिलाषा नहीं, उनको, समझो कि श्रावक पन ही बराबर नहीं फरसा । बेशक ! अंतरायके जोरसे साधुपन लेना नहीं बन सके, मगर उसपर प्रीति तो रखनी चाहिये-उसपर खयाल तो रहना चाहिये । दीक्षा लेना, नहीं लेना दूसरी बात है, मगर साधु धर्म पानेकी प्यास-उत्कंठा तो जरूर रखनी चाहिये कि-" में कब अणगार साधु श्रमण निर्गन्थ हो जाऊँ ?"। जहाँवक
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धर्मशिक्षा ऐसी भावना घटमें न जागी, वहाँतक श्रावक धर्म भी आकाशमें उड रहा समझिये ! । जैसे कैदमें पड़ा हुआ आदमी चाहता रहता है कि कब मैं इधरसे छुहूँ ? ", उसी तरह श्रावकोंका भी यही फर्ज है-" कब मैं संसारके फंदेसे फौरन छूट जाउँ ?" ऐसी प्रबल भावना, अपनी मनो भूमीपर आलेखा करें । जिनको, दिनरात संसारके फंदेमें परिश्रम मालूम न हुआ, संसारकी अश्लील वृत्तियों पर नाखुशी न जागी, वे धर्मकी सच्ची सडक पर नहीं आये, समझिये ! । सच्चे धर्मात्मा गृहस्थोंको तो संसारकी गरम गरम आग नहीं सहन हो सकती, मगर क्या करें नहीं चले तब दुःखसे उन्हें संसारमें रहना पड़ता है। कितने भी सोनेके खूबसूरत पिंजरेमें तोतेको रक्खो, मगर वह हर्गिज सुख नहीं मानेगा, उसी तरह धर्मात्मा गृहस्थ भी, कितनी ही बडी भारी दौलतसे लदा हुआ क्यों न हो ?, मगर हर्गिज संसारमें सुख नहीं मान सकता। धर्मात्मा गृहस्थके हृदयमें हमेशा संसारकी दुर्गुणतापर, संताप छुटता रहता है कि
"संसारमें सब लोग स्वार्थी, कौन किसका हो सका ? सम्बन्ध मतलब, प्रेम मतलव, मन्त्र ही वह विश्वका । सम्बन्ध तबतक चमकता, जब स्वार्थ पूरा नहि भया सम्बन्ध पूरा हो गया, जब स्वार्थ पूरा हो गया " ॥
"प्रेमी जिसे हम मान बैठे, जिस विना दुःखी रहे उस शख्सका तो भटकता जी दूसरे ही में रमे । हा! हा! हमारा कौन?, हम भी हो सके किसके कहां . यों ही सदा मोही बने रहते हमें क्या मुख यहां।।
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धर्मशिक्षा
धमाबदा.
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यों ही हमारा जम्म यह यदि खतम ही हो जायगा, तोक्या कभी आशा बने, जी सुख जगह को पायगा?। क्या धर्म से सुख, पाप से दुख शास्त्रमें न सुना गया, * तो दुःखकारण पाप करना, उचित क्यों समझा गया |
अपार पुण्यकी राशिका उदय हो, तो साधु होने की भा. वना बनी रहती है । साधु होना, लडकोंका खेल नहीं है, सारे संसारके जबरदस्त किले को तोड देना है । साधु होने की उत्कट भावना रखते हुए ही क्यों?, साधु धर्मके पानेकी तय्यारीपर आये हुए भी कितने ही महाशय, बजरिये अन्तरायके ऐसे पीछे हट गये, कि फिर उन्हें दीक्षा लेनेका नाम ही नहीं रहा । कितने ही तो, साधु हो के भी दुर्भाग्यके पिएसे ऐसे भ्रष्ट बन गये कि पगडी पहिनके गृहस्थ बन गये । कई तो कपटी-प्रपंची, ढोंगी-धूर्त बनके झूठा-साधुपनका दावा करते हुए अपने पेट भरने लगे । इसी लीये कहा गया है कि साधुधर्म क्या है, मानो! सिंहनीका दूध है, बड़े सत्वशाली ही लोग उसे पी सकते हैं, कमजोरोंको वह नहीं पच सकता, उलटी आत्मजीवनकी खराबी हो जाती है । साधुपन लेना तो उतना कठिन नहीं, मगर लेके निबाहना बडा कठिन है । दीक्षा लेनेवाले लोग. लेतो लेते हैं, मगर पीछेसे इस कदर हीजडे बन जाते हैं, कि चारित्रधर्मको मट्टीमें मिला देते हैं। इतनेसे भी शांत न होके झूठे घमंड-झूठी चतुराई से अपने चौपट किये चारित्रकी भी टांग ऊँची रखकर पापको इस कदर रगडते हैं, कि फिर चारित्रधर्म मिले या नहीं मिले, इस का बडा संदेह रह जाता है । अब्बल अपनी आत्माकी शक्तिका इम्तिहान करके साधु बनना चाहिये, साधु बनके अच्छी तरह
* ये श्लोक स्व रचित "सूक्ति-सुधा" मेंसे उद्धृत किये गये हैं।
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धर्मशिक्षा.
૧૨૨ चारित्र धर्मका पालन करना चाहिये । आवरण वशसे अगर दुनिवार-शिथिलताका आक्रमण हो जाय, तो लोगोंके सामने साफ व्यवहार रखना चाहिये कि "मैं शिथिल हूँ, मन्द क्रिया करता हूँ, मेरेसे, जैसा चाहिये, वैसा चारित्रधर्म, नहीं बन आता, इसीसे पूर्ण वन्दना करानेको योग्य नहीं हूं" मगर माया-मृषावाद कभी नहीं सेवना। प्राण क्यों न चले जायँ, मगर अपनी आत्मामें असत् (अविद्यमान) चारित्रधर्मको सत् (विद्यमान) रूपसे कभी प्रकाश नहीं करना चाहिये । शरम आती हो, तो अच्छा चारित्र पालके साधुपनकी सच्ची ख्याति पा लो!, मगर आचारोंसे भ्रष्ट हो के भी झूठा-साधुपनका दावा करना, किसी हालतमें अच्छा नहीं । लोकमें शरम आती है, इस लिये साधु धर्मका, ऊपरका सूखा बनावट ढोंग रखना अच्छा समझा जाता है, तो भला ! भीतर-आत्माकी शरम नहीं आती, तीर्थकर परमात्माकी भी शरम नहीं आती ?, इनकी शरम तो पहिले रखनी चाहिये । लोग तो हजारों मुखवाले हैं, उनका क्या ठिकाना है ? वे तो सदाही खुले मुंहसे ज्यों आवे, त्यों ही भसड देते हैं, साधु आदमीको भी, कहनेवाले लोग दुरात्मा कह डालते हैं, और दुर्जन-बदमाशको भी सत्पुरुष समझ लेते हैं, कहिये ! अब लोककी मर्यादा कहाँ रही ?, इसलिये वास्तवमें अपनी आत्माकी शरम रखनी चाहिये, और भयङ्कर काँसे डर कर यथाशक्तिमुताबिक-जमाने चारित्र धर्म पालना चाहिये। किसी पेडमें ह. जारों शाखाएँ होती हैं, जब दूसरे वृक्षोंमें उनसे कम होती हैं, मगर खयाल रहे, पचास पचीस भी शाखाएँ रहेंगी, तब भी वृक्ष बराबर कहा जायगा, वैसे ही, कोई साधु, बडा तपस्वी हो, कोई उत्कृष्ट क्रियापात्र हो, जब कोई, मौनी, योगी, ध्यानी, ज्ञानी हो, कोई ज्यादह क्रिया-तपस्या करनेवाला हो, कोई कम क्रिया तप
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धर्मशिक्ष.
१४३ स्या करता हो, इस प्रकार भले ही क्रिया वगैरहमें तरतमता रहो, तो भी साधुपन बराबर कायम रहता है। हकीकतमें मूल बातें नष्ट न होनी चाहिये, यथोचित क्रिया प्रवृत्त, और कंचन-कामिनीके संगसे दूर हटा हुआ शुद्ध उपदेशक साधु, बराबर साधु है, मगर कंचन कामिनीमें फसाँ हुआ, उत्कृष्ट तपस्वी, प्रबल क्रिया कांडी ही क्यों न हो ?, साधु नहीं है ।
इस जमानेमें जैन मुनियोंकी संख्या बहुत थोडी है। दूसरे साधुओंके आगे हमारे जैन साधु वर्ग, आटेमें निमककी बराबर मालूम पडते हैं । यह पक्का समझें कि साधुओंके बिना शासनका उदय, हर्गिज न होगा। अचल तो गृहस्थोंमें, इंग्लीशमें बडे बडे प्रोफेसर बने हुए भी लोग, धर्मकी तालीमसे बहुत कुछ बाह र हैं, भाषाज्ञान मात्रसे विद्याका परिपाक हुआ नहीं कहाता, विद्याका परिपाक दूसरी चीज है। जहां दिनरात संसारके फंदेमें, अथवा रूपचंदजीकी गुलामी करनेमें चित्तका दाह होता हो, वहाँ विद्याका परिपाक होनेकी क्या बात । जैन शास्त्र जैसे गहन शास्त्र, संसारमें कोई नहीं, उनका निष्कलंक रहस्य प्राप्त करना, निश्चिन्त बुद्धिमानोंके सिवाय, औरोंसे नहीं हो सकता। और निश्चिन्तपन, प्रायः साधुपन विना नहीं मिल सकता । परमपुरुषार्थ फैलानेका मैदान साधुवृत्ति ही है । साधुवृत्तिमें आया हुआ पुरुष ही, बेधडक जैन धर्मकी पताका फरका सकता है । साधु लोग, राजाके राजे महाराजा हैं, उन्हें किसीकी कुछ पर्वाह नहीं रहती, और इसीसे नीडर दिलसे सबकी सामने सब प्रकारका उचित व्यवहार साधुओंसे हो सकता है, और तबही जैन शासनकी रोशनी, प्रसरनेके हदपर आसकती है । जैन शासनके खास प्रभावक, जैनशासनको सिंगार देनेवाले महात्मा मुनिजन ही हैं, इसमें कौन क्या कहेगा ? । इसी लिये ह
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धौशिक्षा मारा यह वक्तव्य है कि जैन जातिमें, साधुओंको बढानेकी परम आवश्यकता है । जैन जातिमें साधुलोग बहुत थोडे हैं, इस लिये जैन साधु जातिकी बढती करने के लिये साधुओंकी तर्फसे अगर प्रयत्न होवे, तो उसमें गृहस्थोंका फर्ज है, कि सहारा देते रहें। साधुओंके पकनेका कोई पेड नहीं है कि जल्द जल्द साधु बढते जायँ । साधुकी वृद्धि पहले जमानेमें किस तरीकेसे होती थी? इस तरफ खयाल करनेपर, किसी सज्जनको, खेद हुए सिवाय नहीं रहता कि वर्तमानमें, साधुओंका कितना भयंकर दुर्भिक्ष हैं ? जैन मुनिजनोंका कैसा भयानक दुष्काल है ? । इस दुष्कालको शांत करनेके लिये प्रयत्न करते हुए मुनिवरोंको, गृहस्थ लोग सहायता दें, कोई विरुद्धपक्षी न होवे ।
जडमें कालुष्यको पैदा करता, धर्मरूपी पेडका उन्मूलन करता, नीति, क्षमा, दया, विवेकरूपी कर्मलिनियोंको बिगाडता, लोभ सागरको बढाता, मर्यादा रूपी तटको तोडता, और शुभ भावनारूपी हंसको प्रवास देता हुआ-परिग्रहरूपी नदीके पूरका जोर, कितना क्लेशदायक है, यह खयालमें रहे । अत्यंत धनकी लोलुपता, सचमुच कलहरूपी हाथीके लिये विन्ध्याचल है। कोपरूपी गृध्र (गिद्ध) के लिये स्मशान (मरघट) है । व्यसनरूपी सांपके लिये रन्ध्र (बिल) है । द्वेषरूपी चोरके लिये रातका प्रारम्भ समय है । पुण्यवनके लिये दावानल है । मृदुतारूपी मेहके लिये प्रचंड पवन है । और नय (नीति रूपी कमलके लिये हिम है। प्रशमका दुश्मन, अधैर्यका मित्र, मोहकी विश्रामभूमी, पापों की खान, आपदाओंका स्थान, दुध्यानका लीला वन, व्याक्षेपका खजाना, मदका मंत्री, शोकका जनक और कलहका क्रीडाघर कौन है ?, परिग्रह है, इसलिये विवेकी महानुभावोंको परिग्रहके मदमें उन्मत्त नहीं होना चाहिए । जैसे आग, इन्धनोंसे तृप्त नहीं
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धर्मशिक्षा होती, समुद्र नदीके जलोंसे तृप्त नहीं होता, वैसे प्राणी धनके ढेरसे भी तृप्त नहीं होता; परंतु यह नहीं समझता कि "यह सब धन दौलत माल छोडकर परलोकमें मैं अकेला जाऊँगा, फिर किस लिये फिजूल पाप करके पापी बनूँ"।
संसारमें लोग भयंकर अटवी (जंगल) में भ्रमण करते हैं, विकट देशान्तरोमें पर्यटन करते हैं, गहन समुद्रकी मुसाफिरी करते हैं, कृषिकर्मका बेहद्द कष्ट उठाते हैं, कंजूस-मक्खीचूसकी गुलामी करते हैं, और लडाईमें शामिल होते हैं, ये सब किसके प्रभाव हैं?, लोभ राक्षसके । लोभ ही परिग्रह परिमाणवतका कट्टा दुश्मन है, लोभ ही मुक्ति नगरीके पथ (मार्ग) के मुसाफिर हुए लोगोंको उपद्रव करनेवाला चोर है, लोभ, मोहरूपी जहरपेडका मूल है, लोभ, सुकृत सागरको पीनेवाला अगस्त्य है, लोभ, क्रोधानिका अरणी ( काष्ठ विशेष ) है, लोभ, प्रताप रूपी सूर्यको ढांकनेवाला मेह है, लोभ, कलहका क्रीडा घर है, लोभ विवेक चन्द्रके लिये राहु है, लोभ, विपदा रूपी नदीका समुद्र है, और लोभ, कीर्तिरूपी लता संततिका उच्छेदन करनेवाला हाथी है । धर्मवनके दाहसे विशेष प्रज्वलित हुए, दुःख रूपी भस्मका जन्म देनेवाले, अकीर्ति-बदनामी रूपी धूमको फैलानेवाले, और धन रूपी इन्धनोंसे उत्तेजित बने हुए-लोभ रूपी अ. नल ( आग) में, गुणोंका समूह, सचमुच शलभ (टिड्डी) का आचरण करते है । महर्षियोंका यह उपदेश है-उनके घरमें कामधेनुका प्रवेश हुआ। उनके सामने कल्पवृक्षका जन्म हुआ। उनके करतलमें चिन्तामणी उपस्थित हुई। उनके समीपमें निधि प्राप्त हुआ । जगद, उनके वशमें हुआ। और स्वर्ग-मोक्ष लक्ष्मीकी माप्ति, उनके लिये निःसंदिग्ध हुई, जिन्होंने, सकल दोषानलको शान्त करनेमें मेह समान-संतोषका पल्ला पकडा ।
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धशिक्षा. जिस लक्ष्मीके लोभमें अंधे बने हुए लोग, धर्मका तिरस्कार करते हैं, वह लक्ष्मी, नदीकी तरह नीच गामिनी है, निद्राकी तरह. चैतन्यको शिथिल करनेवाली है, शराबकी तरह मदका पोषण करनेवाली है, धुवांकी तरह अन्धा बनानेवाली है, बिजलीकी तरह चपलता स्वभावको लिये बैठी है, दावानलकी ज्वालाकी तरह तृष्णाको उल्लसित करनेवाली है, और कुलटा-व्यभिवारिणीकी तरह स्वतन्त्र मतिसे-स्वच्छन्द रीतिसे जहां तहां नया नया चूल्हा बनानेवाली है, इधर उधर भागा भाग करनेवाली है। धिकार है बहुतोंके आधीन धनको, जिसको, दायाद लोग ( भाग लेनेवाले) चाहते हैं, चोर लोग चोरी कर ले जाते हैं, राजा लोक खींच लेते हैं, आग, छल पाके भस्मसात् बना देती है, पा. नीका जोर स्वाहा कर देता है, दुर्विनीत कुपुत्र, फिजूल उडा देते हैं, और जमीनमें गाड दिये हुए धनको, यक्ष वगैरह हरण करलेते हैं । अक्लमंद-बडे मनवाले भी लोग, धनकी इच्छासे विव्हल बने हुए क्या क्या नहीं करते?,-नीच आदमीके आगे भी मीठे मीठे वचन बोलते हैं, सिर झुकाते हैं, दुर्गुणीको भी, शत्रुको भी, उंचे उंचे गुणोंके कीर्तनसे रंजन करते हैं, और कृतघ्न-बेअक्लकी सेवा करनेमें कुछ भी नहीं हिचकते ।
यह जो लक्ष्मी, नीचकी तर्फ दौडी जाती है, तो क्या समुद्रके पानीके संगसे?; और कमलिनी के संगसे लक्ष्मीके पाँवमें क्या कंटक लगा है, कि जिससे वह कहीं पांव नहीं ठहराती। लक्ष्मीके उन्मादसे लोगोंकी चैतन्यशक्ति जो छिप जाती है, इसका कारण शायद लक्ष्मीको विषका संसर्ग ही हो तो ना नहीं, जो कुछ हो, तत्वज्ञान यही कहता है कि लक्ष्मीपर तृष्णाको स्वतन्त्रता नहीं देनी चाहिए, और द्रव्यका परिमाण कर धर्मस्थानपर लक्ष्मीका सदुपयोग करना चाहिए, लक्ष्मीका सदुपयोग सात जगह
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धर्मशिक्षा
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पर करना शास्त्रकार भावान् फरमाते हैं-जिन बिम्ब १, जैन मंदिर ३, जैन आगम ३, साधु ४, साध्वी ५, श्रावक ६, और श्राविका ७ । इन सात क्षेत्रोंमें द्रव्यको सफल करता हुआ व्रतधारी दयालु गृहस्थ, महाश्रावक कहाता है । सम्पति राजा, सवा लाख मंदिरों, व सवा करोड जिन बिम्बों को प्रतिष्ठित कर बेहद्द पुण्य लक्ष्मीकी गठडी उठा ले गया । कुमारपालराजा, १४४४ जिनालय, बंधवाकर इस कदर कर्मोंको ढीला कर गया, कि आगामी चौवीसीमें प्रथम तीर्थकर पद्मनाभका गणधर होगा। एवं और भी वस्तुपाल तेजपाल, विमलशाह वगैरह महानुभावोंने चंचल लक्ष्मीसे अचल सुख पानेकी सडक हांसिल की।
साधुजनोंकी निष्कारण भक्ति करनेमें द्रव्य खर्चना, श्रावकोंका अब्बल धर्म है । मान लिया कि निर्ग्रन्थ मुनिजनोंको फूटी पाईकी भी जरूरत नहीं होती, मगर यह बात क्यों भूलनी चाहिए कि मुनि वर्ग, परमात्मा-धर्म सार्वभौमके चपरासी हैं, इस. लिये उन्हें, शासनकी रक्षाके लिये-शासनको उदयकी राहपर सं. चरानेके लिये श्रावकोंसे द्रव्य खर्चानेकी अति आवश्यकता है। शासनकी रक्षाका-शासनके अभ्युदयका काम अव्वल मुनिजनोंके सिर पर जब है, तो फिर इस काममें वे लोग प्रमाद नहीं कर सकते । दयालु-धर्मात्मा गृहस्थ वर्ग, फिर भी संसारी हैं, इसलिये शासनकी उन्नतिकी ओर उनकी नजर जितनी जाती होगी, उतनी ही जायगी, साधुवर्गकी तरह वे, धर्मध्वज, कैसे उठा सकते हैं ?, इसलिये साधुओंको, शासनकी अभ्युन्नतिके लिये जितनी सहायता-जितनी मदद चाहिए, उतनी, श्रावकोंका फर्ज है कि
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धर्मशिक्षा.
जरूर देते रहें, कृपणता न करें। कुलटा लक्ष्मी, साथ नहीं आयगी। धनसे जो कुछ मतलब, धर्मका, या भोगका निकाला, वही निकल गया समझो ? बाकी मरने बाद क्या साथ आयगा?, समझो ध्यान दो ! मोहमें बावले मत बनो! किसके लिये-किस धास्ते इतना सिर पटकना ? कपाल फोडना ? । लोहीका पानी कर जो धन इकट्ठा करते हों ! वह धन तुम्हारा नहीं, उसके मालिक तुम नहीं, तुम्हारे लिये तो सिर्फ सेरभर आटकी रोटी ही काफी है, बाकीका माल, तुम्हारे पापसे पैदा हुआ भी तुम्हारे भोगमें नहीं आवेगा, आवेगा, गुलामोंके भोगमें, आवेगा तुम्हारे दुश्मनोंके भोगमें, आवेगा, जल आग वा राजेके भोगमें, आवेगा तकदीर सीधी होगी तो तुम्हारे संतानोंके भोगमें, मगर तुम तो मूंछ मरोडो ही मत !, तुम तो खुद अपने पर पापका बोझ उठाकर-पहिलेसे नरकके नायकोंको वहां जानेका संदेशा दे कर कूट, कपट, छल, प्रपंच, दगाबाजीसे भोले लोगोंका सिर काटकर पैसा इकठा दूसरेके लिये करते हों, और पापका फल तुम अकेले ही भोगोंगे, पापसे पैदा हुए द्रव्यमेंसे भाग लेनेवाले सम्बन्धिवर्ग, कुछ भी पापका फल लेनेको नहीं आवेंगे। समझो !, धर्म करो !, धर्म धनका संचय करो ! ताकि मरने बाद भव भव मुख सम्पदा मिलें । जो कुछ दान दिया, वही पैदायश हुई समझो!, धर्मके कानूनोंको खयालमें लो, धर्मकी सडकका भान करो! धर्म पर प्रेम करो, धर्मको हृदयका गहना-हार समझो !, दुःखी । अवस्था धर्मको मत भूलो!। संसार सागरमेंसे बाहर निकालनेवाले
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धर्मशिक्षा.
૧૩૨ धर्मको प्रतिक्षण सम्हालो, घरकी रंडीको सम्हालते हों, बच्चोंके गाल पर चुम्बन करते हों, स्वजन वर्गकी खबर लिया करते हों!, दिन रात रूपचंदनीकी फिक्रमें मरते हों, तो इस सब वैभवके जन्म देनेवाले-धर्मको भूल जाओगे क्या ? छी! छी ! छी:, कितनी कृतघ्नता ?, नहीं चाहिए कि धर्मसे निश्चित सुख भोगने हुएको धर्मकी ओर न निहालना ।
धर्मसे धनवान् बने हो, तो फिर धर्म करो ! कि ज्यादह वैभव प्राप्त होवे, लक्ष्मीपर लोभ समुद्रका बढाव अगर न रोकोगे, तो समझ लो ! कि मूलसे तुम्हारी सत्ता उखड जायगी, इस लिये परिग्रहका परिमाण करो ! लाख, दोलाख, दस लाख, पचास लाख, करोडका भी परिमाण-नियम करो । धर्म, आत्माकी शुद्ध परिणति पर है, धर्ममें कपट नहीं चलता, कोई दरिद्रकंगाल, मोह तृष्णाकी प्रबल प्रेरणासे करोड रूपयोंका नियम रक्खे, और धर्मकी तर्फ हाथ पसारे, धर्मकी टांग ऊँची रक्खे, तो ऐसी अशुद्ध परिणतिसे धर्मको फोसलाना नहीं होसकता, कपट करके धर्मका वशीकरण कभी न हुआ, न होगा, शुद्ध आम परिणतिही जब धर्मका मूल बीज है, तो वहां वणिक विद्याका बल कुछ भी नहीं चलता।
जितना परिमाण, द्रव्यका किया है, उससे ज्यादह द्रव्य बढ जाय, तो पूर्वोक्त सात क्षेत्रोंमें खर्च दो, सुपात्र दानमें दे दो, अभयदानमें दे दो!, अनुकम्पा दानमें दे दो!, मतलब कि अपने सांसारिक मतलवमें मत रक्खो। परिमाणसे अधिक द्रव्य बढा, तो फिर उसे धर्मकी राहपर खर्चनेकी देर नहीं लगानी चाहिए,
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धर्मविका. धर्मके लिये जो कुछ पैसा खर्चना बोल दिया हो, उसे देर नहीं लगाकर जल्दीसे खर्च देना चाहिए। दूसरेके पैसे अपने पास हो, उनपर भी हमारा इख्तिार नहीं, है, जिस वक्त मालिक मांगनेको आवे उसी वक्त उसे वापिस दे देना न्याय्य है, तो फिर धर्मराजा तो कहां मांगनेको आता है, कि उस निमित्त खर्चनेके लिये विलम्ब किया जाय ? इस लिये धर्म संबंधी खर्च फौरन कर देना चाहिए, धर्मका पैसा जहरके समान है, धर्मका पैसा खानेसे लक्ष्मीका सत्तानाश होजाता है, और परलोकमें दुरन्त नरकका अतिथि ( मिहमान ) होना पडता है, कहा है"भक्खणे देवदव्वस्स परत्थीगमणेण वा । सत्तमं नरयं जंति सत्तवारा य गोयमा!" ॥१॥ अर्थ:
जीव, देवद्रव्यके खाने और परदार गमन करनेसे, सातवार सातवीं नरककी बडी भयानक वेदनाएँ पाता है।
किसी भी धर्म संबंधी टीपमें जितना देनेका लिखा हो, उतना दे ही देना चाहिये, भले पीछे टीप टूट ही क्यों न जाय, मगर धर्मका कानून तो यह है कि टीप टूटने पर भी लिखने अनुसार, निप बातकी टीप हो, उसमें खर्च करदेना चाहिए।
प्रर्वोक्त सात क्षेत्रोंमें, वर्तमान जमानेके अनुसार 'ज्ञान' क्षेत्रकी पुष्टि करनी अति जरूरकी समझते हैं। ज्ञानकी कमीसे ही जैन शासनकी कीमत कम हो गई। हीरेको, लोग काच समझने
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धर्मशिक्षा.
૧૪૧ लगे। जना लोग, लइ उडानेमें जितना खर्च करते हैं, उतना खर्च ज्ञानकी तरक्कीके लिये करें, तो क्या बाकी रहे ?।
जैनो ! खयाल करो!, जागो, समझो! अब वह वक्त नहीं रहा, कि नये नये मंदिर बंधवाये जाय, और साधर्मिक वात्सल्यमें नहीं नहीं मोतीचूरके जिमनमें खर्च किया जाय। जमाना पलटा है, बाप दादाओंकी बदौलत मंदिरोंकी कमी नहीं है, कमी ज्ञानकी है, कमी विवेककी है, इसीसे जैन जाति, दिन प्रतिदिन क्षीण होती चली जा रही है, नजर करो! भाइयोंको सम्हालो !, गुरु महाराजको सुखशाता पूछनेके साथ ही भाइयोंको भी सुखशाता पूछो ?। भरती हो, वहां मत भरो! न हो वहां भरो !, कम हो; वहां भरो!, आवश्यक हो, वहां भरो!, विवेक रक्खो ! जातिके जन, बेचैन क्यों रहने चाहिएँ ?, उन्हें सुखी करनेमें मदद क्यों न देनी चाहिये ?। “ पेट भरा भंडार भरा" ऐसी मुर्खता मत रक्खो !, दो रोटी खाते हों, तो एक रोटी, आधी रोटी भी तु. म्हारे भाईको दो । भाइयोंको भूखे रखकर, भाइयोंकी दरिद्रतादुःखावस्थापर उपेक्षा कर, अकेले उदरम्भरि, कुशिम्भरि आमम्भरि होना अधमोंका काम है । व्यापारमें धर्मका भी कुछ हि. स्सा रक्खो, और जो कुछ धर्म संबन्धी द्रव्य पैदा हो, उसे, जातिकी कंगाल दशाके दर करनेके काममें खर्चा !। जातिकी दरिद्रता जबतक नहीं हटेगी, वहांतक सामाजिक-सामुदायिक बलकी आशा हर्गिज नहीं रक्खी जा सकती, और सामाजिक बलके अ. भावमें धर्मकी भी दुर्दशा होनी सुसंभवित है, इसलिये, “ जातिका दारिद्य कैसे दूर हो ? " इसपर अत्यंत ध्यान देनेकी जरूरत है। हरएक काममें ऐसी प्रवृत्ति करनी चाहिए, कि भाईयोंको भी
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धर्मशिक्षा. कुछ मिला करे, समझ सको तो समझ लो !-" जातिका उद्धार कैसे हो, " यहां इस विषयको कोई प्रधानता नहीं दी गई है कि लंबा चौडा विवेचन करे, किन्तु प्रसंगोपात्त बातें बताई जाती हैं। शासन प्रेमियोंपर ऐसा वात्सल्य करो कि उनकी जिन्दगी, चैनसे चल सके, और यही वास्तवमें साधर्मिक वात्सल्य है । एक दिन भर पेट लड्ड जिमानेसे साधर्मिक वात्सल्य नहीं होता, वक्त देखो ! समय देखो !, जहां खर्चनेकी अत्यावश्यकता है, वहां दृष्टि न लगाकर साहमीवच्छलके बहानेसे पेट पूजामें फिजूल द्रव्य बरबाद कर देते हो, यह कितनी अविवेक चेष्टा ? । एक दिनके लिये भरपेट, तरह तरहके दिव्य भोजन जिमानेके बनिस्बत गरीबोंकी-दरिद्र श्रावकोंकी जिन्दगीके लिये रोटी शाकहीका बंदोबस्त करना उमदा साहमिवच्छल है। खजानेमें पैसा न रहता हो, कदने लगता हो, तो जगह जगह छोटी मोटी पाठशालाएँ स्थापो !, बडे बडे गुरुकुलोंको प्रकट करो !, ज्ञान चैत्यके आलिशान मकानात बंधवाओ!, जीर्ण जिनालयोंका उद्धार करो!, प्राचीन शास्त्रोंको मुद्रणमें लाके पबलिकमें प्रकाशित करो !, प्रत्येक शास्त्रकी-प्रत्येक ग्रन्थकी, अनेक प्रतियाँ लिखवा कर नये भंडारोंको स्थापन करो !, पुस्तकें सडे नहीं, प्रतियाँ कीट भक्ष्य होवे नहीं, इसकी फिक्र रक्खो !, अपने अपने लडकोंको इल्म पढाओ !, इल्मके लिये द्रव्यके व्ययकी ओर खयाल मत करो !, व्यवहारिक शिक्षणके साथ धार्मिक शिक्षण दि. लावो !, धार्मिक शिक्षालयमें भेजकर लडकोंको धर्मज्ञानी बनाओ!, संस्कृतमें, व्याकरण, न्याय, साहित्याचार्य बनाओ !, इंग्लीशमें एम-एसे भी आगे बढादो, हिन्दी, बंगाली, जर्मनी, वगैरह भाषाओंके
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धर्मशिक्षा.
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भाषाशास्त्री बनाओ !, अपनेको लडका न हो, कमअक्लका हो, न पढता हो, तो दूसरोंके लडकोंको आलिमफाजिल बनानेकी सतत कोशिश करते रहो !, देश बन्धुओंके पर पवित्र प्रेम रक्खो !, मुनि जनोंकी वृद्धि होवे-साधु बढे, ऐसी कोशिश करो, श्री संघपर पूज्य बुद्धि रक्खो !, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, इस चतुर्विध संघकी सेवा भक्ति करते रहो इत्यादि कर्तव्योंमें द्रव्यका सदुपयोग कर मानव जीवनका लाभ लो:, पुस्तकें छपवानेमें खर्च दो!, अच्छे अच्छे मासिक, पाक्षिक, साप्ताहिक अखबारोंके प्रगट करनेमें खर्च दो, कंजूस मत हो !, खर्च करना सिखो ! फूटी पाई भी साथ नहीं ले जाओगे!, लोभ करके धन बचाते हो, मगर याद रक्खो ! एक दिन लोभ पिशाचकी बदौलत सब धनका नाश देखोगे ! नखकी तरह लक्ष्मीके बहावको छेदते रहो, नहीं तो प्रमादसे स्खलना आनेपर जीते नखकी तरह मूलसे लक्ष्मी विनष्ट हो जायगी, त्रिलोकीमें समुद्र के पार कीर्तिको फैलानेका मन है, धर्मराजाको प्रसन्न करनेका दिल है, देवताओंका प्रसाद लेनेकी अभिलाषा है, भव भव, दारिद्यको धूल फकानेकी इच्छा है, विना तपस्या भी स्वर्ग गतिको प्राप्त करनेका मनोरथ है, ओर मुक्ति नगरीके मार्गका मुसाफिर बननेकी चाहना है, तो दान व्रतका स्वीकार करो!, लोभको तिलाञ्जलि दे दो, मक्खी चूस मत हो :, मगर यह बात. सिवाय संतोष पकडे नहीं होगी और संतोष पकडनासंतोषी होना-अमुक नियमित पूंजीमें दिलकी मर्यादा बांधना, यही इस व्रतका मतलब है। बस ! पाँचवा व्रत-बयान संतोष रखनेका पूरा हुआ।
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१४४
धर्मशिक्षा.
छठवां दिग्विरति-गुणवत.
पांच अणुव्रत बता दिये, अब इनके गुण-यानी उपकार करनेवाले तीन गुणवतों के प्रकाश करनेका अवसर है
दिग्विरति, भोगोपभोग परिमाण, और अनर्थदण्ड, ये, गुणवतके तीन भेद हैं । इनमें पहिला दिविरति व्रत, दिशा
ओंकी मर्यादा बांधनेका नाम है । उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, ईशान, आग्नेय, नैत और वायव्य, इन दश दिशाओं, अथवा एक, दो, तीन दिशाओंमें गमन करनेकी मर्यादा करनी चाहिये । यह व्रत, पूर्वोक्त पांचों अणुव्रतोंका अच्छा उपकार करता है, जैसे कि दिशाओंमें अमुक हद तक जानेकी प्रतिज्ञा कर ली, तो हद्दसे बाहर, गमनागमनके अभाव हो जानेसे अपनी तर्फसे वहां के जीवोंकी हिंसा होनी बंद हो गई, यही प्राणातिपात विरमण व्रतकी पुष्टि हुई । तथा नियमित क्षेत्रके बाहरके मनुष्यों के साथ मृषा भाषण करना मिट गया, यह मृषावाद विरमण व्रतको दृढता मिली। और प्रतिज्ञात हद्दके बाहरकी चीजकी चोरी करना भी रुक गया, यह अदत्तादान विरमण व्रतको उत्ते. जन मिला । नथा सौगन्दसे बाहरकी भूमीकी औरतोंके साथ वि. षय भोगका भी लोप हो गया, इससे मैथुन विरमण व्रतका उपकार हुआ । एवं नियमसे बाहर देशमें क्रय-विक्रय (खरीदना व बेचना) भी शान्त हो गया, इससे परिग्रह परिमाण व्रतका भी उत्कर्ष हुआ, इस प्रकार, दिगविरति व्रत, बडा उपकारी होनेसे श्रावकोंको खास आदरणीय है ।
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भशिया
शास्त्रोंमें गृहस्थ लोग गरम लोहेके गोले समान कहे हैं, इसीसे तो जहां तहां उनके सिर पर आरम्भ का ढेर लदा ही रहता है, इस लिये गृहस्थाको धर्मके मार्गमें पहुंचाने के लिये यह व्रत क्या अच्छा बताया कि जिससे सब क्षेत्रोंके आरम्भ रुक जायँ । प्रतिज्ञात क्षेत्रमें यद्यपि निरंतर आरम्भ होते ही रहेंगे, तौभी प्रतिज्ञाके बाहरके जीवोंको तो अभयदान मिल गया, नहीं तो सर्वत्र आरम्भ-हिंसाका प्रसरता पूर कितना बढ़ जाता । खयाल करना चाहिये कि सामान्य तौरसे यह कहनेपर कि "अमुक देशको लूट लेंगे-चौपट कर डालेंगे, " उस देशके लोगोंको कितनी बडी भारी फिक्र जाग उठेगी ? भले ही पीछे सारे देशको न लूटे, किन्तु अमुक ही शहरोंको चौपट कर डालें । उसी तरह नियम रहित आदमी की तर्फसे सब क्षेत्रों में आरम्भादि पापस्थानकोंके दरवाजे खुले रहनेसे, (भले ही पीछे सब देशोंमें जाना न बन आवे, और हिंसा वगैरह न हों) उसके शिरपर पापस्थानक आ ही चुके । नियम करनेसे तो नियमके बाहर वालोंको क्लेशकष्ट नहीं मिलनेसे बराबर धर्मकी पुष्टि होती है, इसमें किसीका कुछ कहना नहीं हो सकता ।
जगत्को आक्रमण करता हुआ-लोभ रूपी समुद्रका वेग दिगविरति वाले आदमी से ढीला पड़ जाता है-इसमें क्या सन्देह ?।
दिशाका परिमाण दो प्रकारका होता है, जल मार्ग और स्थल मार्गका । जल मार्गका इस तरह-नाव स्टीमर वगैरह जल वाहन के जरिए इतने योजन अमुक दिशामें अमुक बंदर अमुक द्वीपतक चला जाऊँ । यदि पवनके उन्माद अथवा मेहके जोरसे उलटे चले हुए जल वाहनसे कहांका कहीं चला जाऊँ, ૧૯
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धर्मशिक्षातो आगार है, अर्थात् प्रतका भङ्ग न होवे । एवं अनजानपनभूल चूकसे किधरका कहीं चला जाऊँ, तौभी छुट्टी। उसी प्रकार स्थल मार्गका भी समझ लें। नियमसे बाहर देशकी चिट्ठी पत्री अखबार आवें, तो उन्हें पढनेकी बुट्टी रक्खें, और नियमसे बाहर देश वाले पर चिठी पत्री लिखना, कारणसे स्वीकार रक्खें । जितना निबह सके उतना बोझ उठाना, मगर ज्यादह बोझ उठा कर नीचे पटकना-गिरा देना नहीं ।
देव यात्रा गुरु यात्रा वगैरह धर्म क्रियाके लिये चारों दि. शाएँ खुली रक्खी जाय, तो कोई हर्ज नहीं । अव्वल तो सारो जिन्दगी तक यह व्रत पालना चाहिये, जिन्दगीभरके लिये अगर न बन आवे तो वर्षाऋतु-चतुर्मासमें तो जरूर यह व्रत धारण करना चाहिये । चतुर्मासमें पर्युषणा पर्व ऊपर हद्द बाहर प्रदेशमें, गुरु महाराजको वन्दना करने या कल्पसूत्र वगैरह सुननेको जाना हो तो बेशक ! जावें, कोई हर्ज नहीं, इसीसे तो इस व्रतके लेनेके शुरूमें धर्म क्रियाके लिये छुट्टी रक्खी जाती है।
सदा सामायिक वाले जितेन्द्रिय मुनि महाराजोंके लिये तो यह व्रत है ही नहीं। उन्हें किसी दिशामें जाने का प्रतिबन्ध नहीं है, वजह इसकी यह है कि साधु लोग सर्वथा निग्रन्थ-निपरिग्रही और आरम्भोंसे मुक्त हैं, इस लिये उनका कहीं पर जाना पाप पोषक नहीं बजता। जैसे अमुक हद्दमें विहार करना है, उसी तरह सर्वत्र विहार करें तो कोई हर्ज नहीं है, उलटा सा. धुओंसें (जहाँ पधारेंगे, वहां) उपकार ही होगा, अतएव तो चारण मुनियोंका ऊर्ध्व गमन मेरु पर्वतके शिखरतक और तिर्यग्गमन रुचकशैल तक होता है। जो सज्जन सब दिशाओंमें जानेकी मर्या
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धमाक्षा.
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दा करता है, उस गृहस्थको भी स्वर्गमें निरवधि सम्पदाएँ मिलती हैं, इस लिये इधर उधर लोभान्ध बनकर भागाभाग नहीं करना अच्छा है । संतोष रक्खो ! जो तुम्हारी तकदीर का होगा, वह किसी हालतमें दूसरेके हाथ नहीं आ सकता । जो तुम्हारा है, वह तुम्हारा ही है, कभी न कभी तुम्हींको मिल जायगा, धीरज रक्खो ! चपलता मत करो ! स्थिरतासे सोचोगे तो नौ निधियाँ तुम्हारे पास ही हैं मगर चापलसे अंधे बने हुए की नजरमें नहीं आती, इस लिये चपलता प्रकृतिको छोड, धर्मको हृदय कमलमें बैठाओ !, और स्थिर वृत्तिसे संतोष वृत्ति पूर्वक यथोचित व्यापार-धंधेका प्रबन्ध करो और इसीसे आनन्द पूर्वक जिन्दगीको इस कदर गुजारो कि परलोकमें भी निर्मल सम्पदाएँ मिलती रहें ।
सातवाँ भोगोपभोग परिमाण गुणवत.
भोग व उपभोग वस्तुओंका परिमाण करना, उसे भो. गोपभोग परिमाण व्रत कहते हैं। भोग, एक ही बार भोगने योग्य-अनाज ताम्बुल तेल अत्तर वगैरह चीजोंको कहते हैं । उपभोग, बार बार भोगने योग्य-वस्त्र गहने घर बाग औरत वगैरह चीजें हैं। इन दोनों का परिमाण करना यह सातवां गुणव्रत है । जो जो चीजें काबिल भोगने के हैं, उनका परिमाण करने और भोगने अयोग्य-अभक्ष्य चीजोंका परित्याग करने से इस व्रत का प्रतिपालन होता है। सचित्त वस्तुएँ यद्यपि अभक्ष्य जितनी अधम नहीं हैं. तो भी जीव संयुक्त होनेसे धर्मात्मा लोग उन्हें नहीं खाते । अगर सर्वथा सचित्तों का छोडना न बन सके तो सचित्त वस्तुओं का परिमाण करना चाहिए कि इतनी सचित्त
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धर्मशिक्षा. चीजें खाउँगा, ज्यादह नहीं । पंचमी अष्टमी एकादशी चतुर्दशी वगैरह तिथि दिनों पर सचित्त का बिल्कुल त्याग करना जरूरी है। महोने भरमें बार दिन दश दिन आखिरमें पांच दिन तक भी सचित्त का त्याग न हो, तो कितनी निर्बलता ? खैर ! मगर अभक्ष्य चीजें हर्गिज नहीं खानी चाहिएँ ।
सुनिए ! बाईस अभक्ष्योंके नाम
१ वड के पीपल के ३ पिलखण के ४ कठंबर के ५ और गूलर के फल ये पांच प्रकारके फल अभक्ष्य हैं । इनमें बहुत सूक्ष्म कीडे-त्रसजीव भरे हुए रहते हैं, इसलिये इन्हें धर्मात्मा पुरुष नहीं खा सकते ।
६ मदिरा ७ मांस ८ मधु ९ मक्खन । इन चार अभक्ष्यों में तद्वर्ण असंख्य जीव उत्पन्न होते हैं । ये चार महा विगय कहलाती हैं । इन महा विगयोंसे काम विकार को उत्तेजन मिलता है।
दखिए ! शराब की दुर्दशामदिरा के पीने मात्र से बुद्धि नष्ट हो जाती है, जैसे दुभांगी पुरुषको सुन्दर औरत छोड दे । मदिरा पान के परतंत्र दिल वाले पापात्मा लोग, अपनी माता को औरत समझते हैं,
और अपनी औरतको माता के समान जान लेते हैं । मद्य पीनेवाले मृढ पुरुष को स्व-परका भान नहीं रहता, यहां तक कि अपने को स्वामी समझ बैठता है, और स्वामी को किंकर समझ लेता है। शराबी आदमी, शराबके जरिये से इसकदर बेभान बन जाता है कि बाजार के बीचमें मुडदे की भांति लेट जाता है, और उसके मुँहमें कुने आके मूत जाते हैं। मद्यका व्यसनी मनुष्य
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धर्ममिक्षा.
२४९ चौतरे पर नंगा हो के सो जाता है, और अपना गूढ अभिप्राय भी फौरन प्रकाश कर देता है । शराबके पीनेसे कान्ति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी वगैरह नष्ट हो जाती हैं । मद्यका पान किया हुआ मनुष्य भूताविष्ट जन की तरह नाचने लग जाता है, और शोकार्त आदमी की तरह रटने लगता है, तथा दाहज्वरात पुरुष की भांति जमीनपर लोटने लग जाता है। शराब, शरीरकी नसों को ढीली कर देती है, और इन्दियों में ग्लानि पहुँचाती है, तथा मूर्छा को जन्म देती है, इसीलिये तो मदिरा को हालाहल (जहर) की उपमा देनेमें आई है। आग के कणसे घास के ढेर की तरह विवेक संयम ज्ञान सत्य शौच दया क्षमा वगैरह गुण शराबसे दग्ध हो जाते हैं । दोषोंका कारण और आपदाओंकी जन्मभूमी-मद्य, रोगातुरके लिये अपथ्य की तरह धर्मात्मा के लिये वर्जने योग्य है । अब
मांस के दोष बताते हैंजो शख्स मांस खाना चाहता है, वह धर्म वृक्षके खास मूल -दयाके उखाड डालने को कमर कसता है, क्योंकि मांसचीज ही ऐसी है कि जीवोंके मारने बिना पैदा नहीं होती, और जीवोंके मारनेसे हिंसा राक्षसीका पांव मजबूत होता है, तथा दया नष्ट होजाती है । दया नष्ट हुई तो धर्मका मूल रहा ही कहां ?, और धर्मका मल नहीं रहनेसे धर्मकी सत्ता किस कदर रहेगी यह कहनेकी कोई जरूरत नहीं। मांस खाता हुआ जो मनुष्य दयाका पालन करना चाहता है, वह सचमुच जलती आगमें वेलको रोपना चाहता है । जो आदमी मांस भक्षण करनेवाला है, वह भी बराबर घातक ही है, इस विषयमें मनु की भी देख लीजिये ! राय" अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रय विक्रय। संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः" ॥१॥
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१५.
धर्माशिक्षा अर्थ--सम्मति (अनुमोदन) देनेवाला, हन दिये प्राणीके अङ्गोंका विभाग करनेवाला, प्राणीको हनने वाला, मांसको खरीद करनेवाला, मांस बेचनेवाला, मांसको पकानेवाला, मांस परोसनेवाला, और मांसको खानेवाला,ये सब घातकके शुमारमें हैं।
मांस निषेधक और भी श्लोक मनुका देख लीजिए !"नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान् मांसं विवर्जयेत्॥१॥
प्राणिओं की हिंसा किये बिदुन किसी हालतमें मांस पैदा नहीं हो सकता, और प्राणी वध किसी सूरतसे स्वर्गजनक है ही नहीं, इस लिये सुख-दुःखके प्राप्ति-परिहारको चाहनेवाला सज्जन किसी वक्त मांसका आदर न करे, इतना ही क्यों ?, बल्कि दूसरे से मराते हुए पाणिओंको बचावें ।
यद्यपि पूर्वोक्त मनु श्लोकसे आठ प्रकारके घातक बताये गये, मगर लंबी नजरसे खयाल करने पर मांस भक्षक ही अव्वल घातक मालूम पडता है, क्यों कि घातक (प्राणीको मारनेवाला) पुरुष, प्राणी गणको काहेको मारेगा, अगर मांसाशी न होंगे। मांस भक्षियों के लिये तो प्राणी हत्या होती है। जब प्राणी हत्याके प्रधान निमित्त-असाधारण कारण मांस भक्षी ही है, तो प्रधान घातक भी मांस भक्षी ही कहे जाय तो क्या हर्ज है ? । जिसके अ. न्दर पडे हुए मिष्टान्न भी विष्ठा रूप हो जाते हैं, और अमृत भी मुत्ररूप बन जाता है, उस पापी पेट के लिये-नालायक शरीर के लिये कौन अक्लमंद पापका आचरण करे ?। जिनके मुँहसे यह निकला कि "मांस भक्षणमें दोष नहीं है"। उनके शिक्षक-उपाध्याय, कठिन छातीवाले-कठोर हृदयवाले होने चाहिएँ । मांसभक्षी
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धर्मशिक्षा.
१५१ दुर्मति आदमी की बुद्धि, शाकिनीकी भांति प्रतिप्राणीको मारनेमें प्रवर्तती है। जो मूर्ख लोग, अच्छे अच्छे उमदे दिव्य भोज्यखाद्य पदार्थ रहतेपर भी मांस खानेमें प्रवर्तते हैं, वे सचमुच अमृत रसको छोड कर विष (जहर) खानेमें प्रवर्तते हैं । मांस भक्षणका क्या ज्यादह दोष बता ? । मांस भक्षक नराधम यह जान ही नहीं सकता कि “निर्दयको धर्म नहीं होता, और मांस भक्षी दयालु नहीं होता" । अगर यह बात मांसाशी जाने, तबभी दया धर्म का उपदेश नहीं कर सकता, क्योंकि मांस भक्षक के हृदयमें प्रायः यही स्फुरायमान रहता है कि-"मेरे जैसे सब मांस भक्षक, हो जायँ"। इसीलिये कितनेही मांसाशी उपदेशक पंडित लोग मांस नहीं खानेका उपदेश नहीं देते, किंतु " स्वयं नष्टा दुरात्मानो नाशयन्ति परानपि" इस कहावतकी सडक पर चलते हैं।
कितने ही अज्ञानी लोग तो देव पित् और अतिथि तकको भी मांस देते हैं, इनमें उनका क्या दोष निकाले ? किंतु उन भोले-लोगोंको ठगनेवाले विद्वान् ही गुनहगार हैं, देखिए ! इस बात पर सम्मति देनेवाली मनुस्मृति“क्रीत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य परोपहतमेव वा देवान् पितॄश्चार्चयित्वा खादन् मांसंन दुष्यति ॥१॥
अर्थः-खरीद कर के अथवा खुद पैदा कर के चाहे दसरे की तर्फ से उपहार में प्राप्त हुआ मांस, देवताओं, वा पित लोगों को चढाकर खाता हुआ मनुष्य दोषी नहीं हो सकता।
मगर यह बात अज्ञानता से भरी है । खुद ही को प्राणि घात से पैदा होनेवाला मांस खाना निन्दनीय कर्म है, तो देवता
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૧૧૨
धर्मशिक्षा.
पित लोगों को मांस चढाने की क्या बात करनी ! । देवता लोगों के शरीर जब धातु रहित हैं, और वे कवल आहार नहीं करते तो फिर मांस नहीं खाने वाले उन्हें मांस कल्पन करना यह कितना मोह ? । पितृ लोग तो अपने पुण्यपापानुसार गति को प्राप्त किये हुए निज कर्मका फल भोगा करते हैं, और पुत्र के किये हुए पुण्य में सेरत्तीभरभी फायदा जब नहीं उठा सकते तो फिर उन्हें मांस ढौकना यह कैसा पापकर्म ? । पक्की बात है कि पुत्रका किया पुण्य पिता के आगे उपस्थित नहीं हो सकता, कहां देखा-नींब वृक्ष पर किया हुआ सिंचन आंब पेडको फल पैदा करदे ?। अच्छे स. त्कार के लायक-अतिथिओंको नरक का हेतुभूत मांस परोसना यह कम शरमकी बात नहीं है । मन्त्र करके संस्कृत हुआ भी मांस नरकादि दुर्गतिका कारण है, इसमें कोई सन्देह नहीं । अगर मन्त्र के प्रभाव से मांसभक्षी मनुष्य मांस भक्षण के पापसे छुट जाता हो, तो फिर सब प्रकार के पाप कर्म करके पापी बने हुए-नरकगति के अतिथि बने हुए लोग, पापनाशक मन्त्र के स्मरण मात्र से पाप रहित-सुगति के लायक क्यों न हो जायेंगे । पापनाशक मन्त्रके स्मरण मात्रसे महा पापी आदमी, अगर कृताथे हो जाते हों, तो शास्त्रमें सब पापकर्मों का जो निषेध किया है, वह निरर्थक ठहरेगा, क्यों कि मन्त्रमात्रसे सभी पापों का नाश जब हो ही जायगा, तो फिर क्रूर कर्म करनेमें क्या हर्ज होगा, मगर यह सब प्रलाप है। मांसकी उत्पत्ति जब प्राणी वधके ताल्लुक है, तो हिंसामय मांस भक्षण, किसी हालतमेंकिसी सूरतसे फायदामंद नहीं हो सकता, यह निःतन्दिग्ध बात है । कच्ची पकी और पकाती हुइ मांस पेशियोंमें, अनन्त निगोदजीवों का सतत उत्पात हुआ करता है, यह आगम सिद्ध बात विश्वास में ले के कभी मांस भक्षण तरफ निगाह नहीं
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धशिक्षा.
૧૧૩ करना । इतना ही नहीं बल्कि मांसाशी लोगों को उपदेश दे के पवित्राहारी बनाना चाहिए ।
हमारी समझमें अल्पज्ञ अमर्यादी कुशास्त्रकारोंने हठ कर के मांस भक्षणका उपदेश चला दिया है । उसके बराबर कौन निर्दय कहा जाय, जो नरककी अग्नि ज्वालाका इन्धनभूत-मांसभक्षणसे अपना मांस पुष्ट करता है । सच पूछिए ! तो मनुष्योंकी विष्ठा से अपने शरीरका पोषण करता हुआ शूकर अच्छा है, मगर प्राणिघात से पैदा होनेवाले मांसका सेवक पुरुष अच्छा नहीं । शुक्र ( वीर्य) और शोणित ( खून ) से पैदा हुए-विष्टाके रस से वर्धित हुए मांसको, आदमी हो कर-मनुष्य हो करके भी खाना यह बडी अधमता है। जो, मनुष्य और पशुके मांसमें कुछ फर्क नहीं समझता, उसके समान न कोई धर्मात्मा है,
और न कोई पापात्मा है। जिन लोगोंके हिसाब से मांस भक्ष. णकी साबीती पर यह अनुमान चलता है कि " प्राणीका अंग होने से, चावलकी तरह मांस खाना चाहिए"। उनके हिसाब से-गाय से पैदा होनेके कारण, दूधकी तरह गोमूत्र भी पीना होगा। शंख और हड्डी दोनों, प्राणीके अंग होने पर भी जैसे शंख शुचि पदार्थ है, और हड्डी अपवित्र चीज है, उसी प्रकार चावल वगैरह धान्य भक्ष्य है, और मांस अभक्ष्य है । जो अक्लके दुश्मन, प्राणीके अंग मात्र होनेसे मांस व चावलको एक सरीखे समझते हैं, उनके हिसाबसे स्त्रीत्वमात्रसे माता और औरत दोनों एक सरीखे समझने चाहिएँ।
इसमें कहना ही क्या है कि एक पंचेन्द्रिय-जानवरकी हिंसा करनेसे-उसका मांस खाने से जैसे नरक गति होती है, वैसे धान्य खाने से-चावल गेहूं वगैरह पवित्र चीजें खाने से दुगति नहीं होतो, क्योंकि चावल वगैरह अन्न, मानवोंके लिये कु૨૦
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धशिक्षा. दरतका भोजन है, और मांस राक्षसीय आहार है । मांसभक्षी
और धान्यभोजी प्राणियोंकी शारीरिक प्रकृतिमें बहुत फेरफार प्रत्यक्ष सिद्ध है।
मांसकी पैदायश और अन्नकी पैदायशके कारणोंका जमीन आस्मान जितना फर्क व्यवहारमें मशहूर है, इसलिये धर्मास्मा होना चाहनेवालोंको मांसका स्पर्श भी नहीं करना चाहिए । मांस भक्षणके विषयमें ज्यादह विचार देखना हो तो हमारे गुरुवर्य पूज्यपाद शास्त्रविशारद जैनाचार्य श्री विजयधर्मसूरि जी महाराजकी पुस्तक अहिंसादिग्दर्शन देख लें।
मक्खनके दोषअन्तर्मुहूर्त्तके बाद मक्खनमें बहुत सूक्ष्म जीवोंकी राशि पैदा होती है, इसलिये मक्खन अभक्ष्य है । एक जीवको मारनेमें कितना पाप लगता है, तो जीवोंसे भरे हुए मक्खनको दयालु लोग कैसे खा सकते हैं ?।
मधुके दोषअनेक जन्तु समूहको मारनेपर पैदा होनेवाला मधु (शहद ) भी काबिल खानेके नहीं है ।
सच पूछिए ! तो शहद एक मक्खियों व भौरोंकी लार स्वरूप ही है। ऐसी निन्दनीय चीजको कौन अक्लमंद इस्तिमाल कर सकता है ? । एक एक पुष्पसे रस पीकर मक्खियाँ जो वमन करती हैं, वह जूठा शहद किस अक्लमंदको रोचक हो सकता है ? । जिसके रसके आस्वादसे नरककी भयंकर वेदनाएँ पायी जाती हैं, वह शहद भो र मधुर कहा जाय, तो दुनियामें अमधुर चीज कौन ठहरेगी? क्या आश्चर्य की बात है
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धर्मशिक्षा कि मक्खियों के मुँहसे गिरा हुआ उच्छिष्ट शहद भी देव स्नानमें लोग लगाते है ?॥
रात्रिभोजनके दोषरातको निरंकुश संचरते हुए-प्रेत पिशाच वगैरहसे उच्छिष्ट होता हुआ अन्न धर्मात्मा लोग नहीं खा सकते । मारे घोर अंधेरेके रातको अन्न पडते हुए जीव नहीं दिखाइ देनेके कारण, रात्रिभोजन नहीं करना चाहिए । दिनके प्रकाशमें जितनी सावधानता खाते वक्त रक्खी जा सकती है उतनी सावधानता रात को हर्गिज नहीं रख्खी जा सकती । भोज्य वस्तुओंमें चींटी अगर गिरी हो, तो दिनमें मालूम पड सकती है, मगर रातके वक्त तो भोजनमें जहरी जीवों तक का भी भान नहीं रहता, और जहरी जीबों व खानेवालोंको नुकशान क्या गरण तककी हद्दपर पहुँचना पडता है, इसमें क्या सन्देह ? ।
देखिए ! चींटी बुद्धिका घात करती है । जू, जलोदर पैदा करती है । मख्खी वमन कराती है। मकडी, कुष्ट रोग जगाती है। कंटक (कांटा) और लकडीका टुकडा, गलेमें पीडा उत्पन्न करता है। शाक वगैरहमें गिरा हुआ बिच्छू ता. लुको तोड डालता है। और गलेमें लग गया हुआ वाल स्वर भंगके लिये होता है, इत्यादि रात्रिभोजनके दोष सबको प्रत्यक्ष विदित हैं। रात्रिभोजनके लिये जैनाचार्योंकी ही नहीं बल्कि और धर्माचार्योकी भी साफ मना ही है।
देखिए ! वैदिक धर्मके वाक्य" त्रयीतेजोमयो भानुरिति वेदविदो विदुः । तत्करैः पूतमखिलं शुभं कर्म समाचरेत् " ॥१॥
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धर्मशिक्षा. “ नैवाहतिर्न च स्नानं न श्राद्धं देवतार्चनम् ।
दानं वा विहितं रात्री भोजनं तु विशेषतः" ॥२॥ " देवैस्तु भुक्तं पूर्वान्हे मध्यान्हे ऋषिभिस्तथा। __ अपरान्हे च पितृभिःसायान्हे दैत्यदानवैः" ॥३॥ " सन्ध्यायां यक्षरक्षोभिः सदा भुक्तं कुलोछह !।
सर्ववेलामतिक्रम्य रात्रौ भुक्तमभोजनम्" ॥४॥ " हन्नाभिपद्मसंकोचश्चंडरोचिरपायतः। अतो नक्तं न भोक्तव्यं सूक्ष्मजीवादनादपि॥५॥ अर्थः
सूर्य, ऋग् यजु साम इन तीन वेदोंके तेजः स्वरूप है । उसके किरणों से पवित्र हुआ-सब काम करना चाहिए । रात को सूर्य न होनेसे खानेका काम करना धर्म विरुद्ध है । रातको आहुति स्नान श्राद्ध देवपूना और दान नहीं करना, और भोजन तो विशेष रीतिसे-हर्गिज नहीं करना। पूर्वान्हमें देवताओंने खाया, मध्यान्हमें ऋषियोंने, उत्तरान्हमें पितृोंने, शामको दैत्य-दानवोंने, और सन्ध्या के वक्त यक्ष-राक्षसोंने खाया । इसलिये सब वेलाओंको छोडकर रातको जो खाना है, सो अभोजन है-धर्म नीतिसे बर्खिलाफ है।
इस शरीरमें दो कमल है-एक हृदयका कमल, दूसरा नाभिका कमल । हृदयका जो कमल है, वह अधोमुख है, और नाभिका कमल ऊर्ध्वमुख है। ये दोनों कमल सूर्य के अस्त हो जाने पर संकुचित हो जाते हैं, इस लिये, और सूक्ष्म जीवों के, भी भक्षण का प्रसंग होनेके कारण सूर्यास्तके बाद नहीं खाना चाहिए।
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धर्मशिक्षा.
हैं, अन । रातको नहीं सचमुच सांगा है। दिन व राता
में पन्द्रह वाले लोग आधे पच्छ विनाका
__ जीवों के ढेरसे संबंध रखते हुए रात्रिभोजनको करनेवाले लोगोंको अधमोंके शुमारमें शास्त्रकारोंने गिना है। दिन व रातको जो खाता ही रहता है, वह सचमुच सींग और पुच्छ विनाका पशु ही है। रातको नहीं खानेवाले लोग आधे दिन के उपवासी हैं, अतएव महीनेमें पन्द्रह दिवस के, वर्षमें आधे वर्ष के, और सारे जीवन में आधे जीवनमा के उपवासी है, यह विना शास्त्र प्रमाण के स्वानुभव सिद्ध रात्रिभोजन परिहारका फल है । रात्रिभोजनके पापका दुरन्त फल-उल्लू कौआ बिल्ली साँप सुअर गिद्ध बिच्छू वगैरह भयंकर दुर्गतियाँ हैं।
देखिए! मार्कण्डऋषि क्या कह रहे हैं“अस्तं गते दिवानाथे आपो रुधिरमुच्यते अन्नं मांससमं प्रोक्तं मार्कण्डेन महर्षिणा" ॥१॥
अर्थः-दिवानाथ (सूर्य) अस्त हुआ कि पानी रुधिर के समान हुआ, और अन्न मांस के समान भया, यह बात माकण्ड ऋषिने कही है।
और भी"मृते स्वजनमात्रेपि जायते सूतकं किल । अस्तं गते दिवानाथे भोजनं क्रियते कथम् ॥१॥
अर्थ:-स्वजन-स्ववर्गीय मनुष्य मात्र के मर जाने पर भी सूतक लगता है, तो भला यह तो दिवानाथ जगत्की चक्षु लोक बान्धव है, तो इसके अस्त हो जाने पर खाना कैसे हो सकता है ? इसलिये रात्रिभोजन का परित्याग करके दिनभरके भोजनसे संतोषी रहना, यह मानव जीवन के सुधारका एक अंग है । धन्य है उन महात्माओंको, जो दिन के प्रारम्भ की दो
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धमेशिक्षा
घडी छोडकर ही भोजन शुरू करते हैं, और दिनके अवसानके दो घडी पहले भोजन बंद कर देते हैं।
ग्यारहवाँ अभक्ष्य
द्विदल-- धर्मात्माओंको कच्छे गोरस ( दूध-दही-छाछ वगैरहा) के साथ द्विदल-दोदल वाले-मंग मठ चणा आदि (पका हो या कचा हो) अन्न कभी नहीं खाना चाहिए । बहुतेरे जैन नाम धारी भी लोग, खिचडीके साथ गरम नहीं किया हुआ दहीछाछ खानेमें आसक्त रहते हैं, मगर शास्त्र दृष्टिसे यह पाप भोजन है। हमारी नजरसे जीवोत्पत्ति नहीं दिखाई देनेसे अभक्ष्य चीजोको भक्ष्य मानना यह अज्ञानता है। हमारी क्षुद्र-स्थूलदृष्टि सू. क्ष्म-अतिसूक्ष्म जीवोंका प्रत्यक्ष नहीं कर सकती, और इसीलिये अभक्ष्य पदार्थों में जीवोंका अभाव मानना भी नहीं हो सकता । आप्त प्रवचन ही जब अभक्ष्योंमें जीव सत्ता साबीत कर रहा है, तो ( भले ही हमारी स्थूलदृष्टि जीव सत्ता को न देखे ) हमें इस विषयमें रत्तीभर भी शंका रखनेका स्थान नहीं मिल सकता । अनन्त पदार्थ ऐसे हैं कि जिन्हें हम हमारी नजरसे नहीं देखते हुए भी बे धडक स्वीकार करनेको तैयार है, तो फिर अभक्ष्यगत जीवोंने क्या अपराध किया कि जिनके माननेमें, आप्त-प्रवचन जैसा मजबूत सबूत रहते पर भी हम हिचकते हैं ?। ग्यारह अभक्ष्य बताए । बाकीके ग्यारह अभक्ष्य ये है
१२ बरफ १३ नशा १४ ओले १५ मट्टी १६ बहुबीजफल १७ संधान ( आचार ) १८ बैंगण १९ तुच्छफल २० अज्ञातफल २१ चलितरस २२ अनंतकाय ।
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वलिया.
बत्तीस अनन्तकाय१ सुरनकंद २ वज्रकंद ३ हरीहलदी ४ सितावरी ५ हरा नरकचुर ६ अद्रक ७ बिरयावली ८ कुंवारी-गुंवारपाठा ९ थोर १० हरिगिलोय ११ लस्सन १२ बांसकरेला १३ गाजर १४ लुनिया की भाजी १५ लोढिया की भाजी १६ गिरिकर्णिका १७ पत्तों के कुंपल १८ खरसुआ १९ थेगी २० हरामोथा २१ लोणसुखवली २२ बिलहुडा २३ अमृतवेली २४ कांदामूला २५ छत्रटोप २६ विदल के अंकुर २७ बथवे की भाजी २८ वाल २९ पालक ३० कुली आमली ३१ आलूकंद ३२ पिंडालू
ये, बत्तीस अनन्तकाय युक्त बाईस अभक्ष्य कदापि नहीं खाने चाहिएँ । मरना एक ही बार है, मगर पाप करके जीवनको सम्हाल लेना अच्छा नहीं । संसारमें खानेके लिये सैंकडों चीजें, जो कि अभक्ष्य-पापपोषक नहीं हैं, मौजूद है, तो फिर निषिद्ध वस्तुएँ क्यों खाना ? । रोटी शाक दाल कही दूधपाक मलाई ह. लवा पुरी कचौरी मिठाई पकौडो रायता लड्ड पेंडा मोतीचूर वगैरह दिव्य भोजनोंसे पूरी तृप्ति-पूरा स्वाद जब मिल जाता है तो अभक्ष्योंका स्पर्श क्यों करना ?। हरी वनस्पत्तियां भी संसारमें बहुत हैं कि जिनका स्वाद दिव्य अमृतको भी भूलानेवाला है, और अभक्ष्यकी भांति पापपोषक नहीं है । आम केला नारंगी सफरचंग दाक्ष खरबूजां अमरूद-तरबूज वगैरह रसमय वनस्पतियों से क्या अभक्ष्योंका स्वाद पूरा नहीं पड सकता है ? । तरकारी
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धर्मशिक्षा. बनानेके लिये, छोड अभक्ष्योंको और वनस्पतियां क्या नहीं हैं ?। सच पूछो तो ककडी तुरई परवल चिभडा दुधी भीही करेला भाजी फली कंटोला वगैरह स्वादिष्ठ तरकारियोंके सामने अभक्ष्योंका स्वाद कुछ भी नहीं है। अभक्ष्य चीजें स्वादिष्ट लगो, तो भी उन्हें दुर्गतिके हेतुभूत समझ छोडना लाजिम है । क्यों कि इतर वनस्पतियोंकी अपेक्षा अभक्ष्य-अनन्त कायोंमें ज्यादह क्या बेशुमार जीवसत्ता मानी गई है। मुनिजनोंके लिये तो सचित्त व अभक्ष्य दोनोंका स्पर्श करना भी निषिद्ध है तो खानेकी तो बात ही कहाँ।
" भोगने योग्य चीजोंका परिमाण करने से इस व्रतका पा. लन होता है " यह पहले कहा गया है, और इसी लिये चौदह नियम भी धारण किये जाते हैं। चौदह नियम क्या है मानो! दुनिया की सारे संसार की उपाधियों के रोकने का जबरदस्त किला है । और कुछ ज्यादह न बन आवे तो चौदह नियम तो जरूर गृहस्थोंको धारने चाहिएँ । जिनसे त्रिलोकीके आरंभपापकर्मरूपी लूटेरों से बचना सहज होता है वे चौदह नियम पुण्यशालियोंके मनोमंदिरों में स्थान पाते हैं । चौदह नियमकी विधि वगैरह दूसरी पुस्तकों में से देख लें। पूरा हुआ भोगोपभोग परिमाण व्रत॥
आठवाँ अनर्थदण्ड त्याग गुणवत.
आटवे अनर्थदण्ड त्याग व्रतकी पहचान करनेमें पहले अनर्थदंडका भान करना जरूरी है । अनर्थदंड चार प्रकारका हैअपध्यान, पापकर्मका उपदेश, हिंसाजनक शस्त्रोंका देना, और ' प्रमादाचरण । इनमें अपध्यान दो प्रकारका है-आर्तध्यान और
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धर्मशिक्षा.
૧૨૧ रौद्रध्यान । आध्यान चार प्रकारका है-एक, अनिष्ट-रूप रस गन्ध स्पर्श और शब्दका संजोग होनेपर, उसके वियोगका-हटानेका चिंतन करना । दूसरा शूल वगैरह व्याधि आने पर उसके हटाने की चिंता करना । तीसरा अच्छे अच्छे भोग्य वस्तुओंका कभी वियोग न हो, ऐसा अध्यवसाय करना । चौथा राज राजेश्वरकी ऋद्धिकी प्रार्थना करना । रौद्रध्यान भी चार प्रकारका है-हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी, और धनरक्षानुबन्धी। हिंसानुवन्धी रौद्रध्यान वह है कि जीवोंके वध करनेकी भावना करना । मृषानुबन्धी रौद्रध्यान यह है कि अनेक प्रकारके माया प्रपंच करके जीवोंको क्लेश देनेका विचार करना । स्तेयानुबन्धी रौद्रध्यान वह है-धन हरण करके प्राणियोंको दुःखी करनेका इरादा रखना । धनरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान वह है कि दिनरात धनके रक्षण करनेकी चिन्तामें इस कदर गुम होना, कि सब पर शंकाशील हो के बुरे अध्यवसायमें मग्न रहना । यह अनर्थदंडका-चार प्रकारका आत्तव्यान व रौद्रध्यान नामक प्रथम भेद हुआ। दूसरा भेद-पापकर्मका उपदेश । “बैलका दमन करो! बैलको पीटो! । क्षेत्रको खेडो, मेघ वरस चूका है, बोनेका वक्त चला जायगा, इसलिये फौरन खेतकी सम्हाल लो? । घोडेको पंढ बनाओ! वनमें दावानल लगा दो तालाबको सूखा दो!" वगैरह पापकर्मका उपदेश करना यह दूसरा अनर्थदंडका भेद है । हल तलवार मुसल छुरी वगैरह हिंसाजनक चीजोंको देना, यह तीसरा अनर्थदंडका भेद । मारे कुतूहलके गीत नाच नाटक वगैरह तमाशे देखना, कामशास्त्रमें रमण करना, शराब शहद, वगैरह पापमय चीजोंका सेवन करना, जलक्रीडा करना, हिंडोले पर हिचकी खाना, शत्रुके पुत्रोंके साथ वैर-विरोध बढाना, तथा भोजनकथा, स्त्रीकथा, देशकथा, राजकथा वगैरह बालचेष्टाएँ, प्रमादाचरण है, यह चौथा भेद अनर्थेदंडका हुआ।
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धर्मशिक्षा.
इन चारों प्रकारका अनर्थदंड धर्मात्मा श्रावकोंको वर्जना चाहिए । जहाँ तक मनकी पवित्रता न हुई, वहां तक धर्म-राजेका प्रवेश मनोभवनमें नहीं हो सकता, इस लिये मनमें आध्यान रौद्रध्यान को पैठा कर पापका पोषण नहीं करना चाहिए ।
हमेशा अच्छे अच्छे विचारोमें रमना मनुष्यमात्रका फर्ज है। किसीपर बुरा विचार करना, यह सचमुच मनुष्यत्वकी गद्दीसे नीचे उतर जाना है । वास्तवमें कहा जाय तो संसारमें कोई किसीका दुश्मन नहीं है, तो फिर किस पर ईर्ष्या विरोध द्वेष क्रोध करना चाहिए, और अपनी आत्मामें तामसिक प्रकृतिका पाँव ठहराना चाहिए? । ब जरिए पुरातन कर्मके लोग शत्रु मित्र होते है । जैसी अपनी प्रवृत्ति होती है, वैसा असर दूसरेपर पडता है, इस लिये कहनेका मतलब यह है कि प्रेम या द्वेषको जन्म देना अपने ताल्लुक है । जब यही बात है, तो अपने दिलको एकदम उद्धत नहीं बनाके सत्त्व प्रकृतिसे रौनकमंद बनाना चाहिए । गम खाना यह अक्लका पहिला प्रतिफल है । जो शख्स गम खानेका व्यसनी है, उसे आफतोंका वेग उठाना नहीं पडता । हरएक प्रतिकूल कामके प्रसंगपर गम खा के हृदयको समझाना चाहिए कि द्वेषरुपी अन्धकारसे अन्धा न बने । सब काम निश्चय नयसे जब कर्मके ताल्लुक हैं, तो फिर धनकी पैदायशके लिये मानसिक स्थिति कोचिंतारूपी धूवेसे क्यों मलिन करना?। शुद्ध दिलसे अपनी जिन्दगी का विचार करो! और नीतिपूर्वक व्यापार द्वारा धन पैदा करो, मगर अत्यंत मोहदशामें क्यों फँसो ! । मृढ बनके आर्तध्यान करनेसे कोई कार्यकी सिद्धि नहीं होती, कार्यकी सिद्धि उद्यमपर निर्भर है, तो विवेक पूर्वक--सचप्रकृतिको आगे धरकर ऐसा उचित चिंतन करो कि आत्मामें । तिमिरका जोर बढने न पावे, और धन पैदा करनेका रास्ता सूझ
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धर्मशिक्ष.
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जावे । संसारमें जितना क्लेश विरोध झगडा बखेडा क्रोध द्वेष जन्म लेता है, वह प्रायः धनकी प्रातिरूप प्रधान मतलबकी हानिके संबंध होता है । स्थिरता देवीका शरण लेके यह भावना जरूर रखनी चाहिए, कि "किसीका किया बुरा कदापि नहीं होता, यदि अपनी आत्मा पर सद्भाग्यका तेज दीप रहा है। जो चीज हमारी है, वह हमारी ही है, उस पर देवता तक का भी आक्रमण नहीं हो सकता । इसलिये लाभ हो, या टोटा हो, मारे आनंदके फूलना नहीं चाहिए, और दुःख रूप तिमिरसे अंधा नहीं होना चाहिए । कोमल दिलसे संसारके काम करता हुआ गृहस्थ भी संसार बन्धनको बराबर ढीला कर देता है, इसमें कोई संदेह नहीं। "आत. ध्यान बुरा है, बुरे कर्मोंको जन्म देनेवाला है और तिर्यच गतिको लेजानेवाला सार्थवाह है " ऐसा समझकर बुरे परमाणुओंको मनमें दाखिल होने न दें।
मारने पीटनेकी दुर्भावना करता हुआ मनुष्य, इस कदर क्लिष्ट काँको बांधता है कि जिनसे नरक आदि दुर्गतिका मिहमान हुए सिवाय नहीं रहता । सब कुछ जब कर्मके ताल्लुक हैं-कोई स्वतन्त्र हो के भला बुरा नहीं करता, तो किसे मित्र माना जाय किसे दुश्मन कहा जाय ?। मारना पीटना बिगाडना तो दूर है, मगर उसका रौद्र अध्यवसाय ही मारने पीटनेकी क्रियाका पाप पैदा कर बैठता है, तो फिजूल मन परिणतिको क्यों विगाडो? और नरकगतिको जाने की टीकट क्यों लो?।
पापकर्मका उपदेश करके फिजूल कर्म बांधना यह अक्लमंदी नहीं है । जिसमें अपना मतलब न हो-अपना प्रयोजन न हो, उस काममें-जो कि पापसे भरा है-उपदेश दे कर प्रेरणा कर के पापका भागी बनना यह केवल मूर्खता का नमूना है । हाँ अ. पना मतलब हो, अपने स्वजन-कुटुंब संबन्धी प्रसंग आ पडा हो,
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पशिक्षा. तो बात न्यारी है, क्यों कि गृहस्थों को दाक्षिण्य की जगह पर सब व्यवहार चलाना पडता है, मगर जहाँ दाक्षिण्यका स्थान नहीं है, वहां फिजूल पापकर्म का उपदेश नहीं करना, और हिंसाजनक चीजें नहीं देना ।
पूर्वोक्त प्रमादाचरण विवेकी जन नहीं करते । संसारकी विचित्र-नानारूपकी घटनाएँ निहाली जायँ-उन तर्फ निगाह की जाय, तो एक प्रकारकी यह नाटकशाला ही प्रतीत होगी, क्योंकि अनादि कालसे नये नये पाठका खेल करते हुए प्राणीगण चित्र विचित्र आश्चर्य घटनाओंमें रम रहे हैं। रात थोडी और वेष ज्यादह । थोडी तो आयुकी स्थिति और मनोरथोंका कोई थाह नहीं । ऐसी भयंकर भव स्थिति की तरफ खयाल दे के प्रमादाचरणोंसे हटजाना चाहिए । इन्द्रियोंके वश हो के प्राणियोंने बडा कष्ट उठाया, और उठाते भी जा रहे हैं, तो अब सचेत होनेका समय है। यों ही बाललीला हमेशा रहा करेगी तो सोचो ! भव से छुटकारा कैसे होगा, और परमानन्द दशा कैसे पाओगे ?। जो चीजें बाह्य दृष्टिसे रमणीय मालूम पडती हैं, वे ही अन्तर्दृष्टि से देखोगे तो निःसार रूपसे मालूम पडती हुई वैराग्यका जन्म देंगी। ऊपर ऊपरकी स्थूल नजरसे विषयान्ध नहीं बन कर आत्म तत्व पर चित्त लगाना चाहिए। ज्यों ज्यों अन्तर्दृष्टि को रोशन बनाते चलोगे, त्यों त्यों पुराणी प्रवृत्ति बाललीला-मूर्ख चेशा ही भासेगी, और पौगलिक विषयोंकी रौनक जहरके रस सरीखी जानोगे, बस ! क्या कहें, समझ सको तो समझ लो !, अनर्थदंड कैसा बुरा है, लेख गौरवके भयसे ज्यादह नहीं बढाते । पूरा हुआ तीसरा गुणवत-आठवाँ अनर्थ दंडव्रत ।
॥ गुणव्रत खतम हुए ।
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धशिक्षा.
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शिदाव्रत.
node नवाँ सामायिकवत.
हो गये तीन गुणव्रत । अब चार शिक्षाव्रतोंका अवसर है। उनमें पहिला सामायिक व्रतका स्वरूप बताते हैं
दो घडी तक रागद्वेष का परिहार करके निरुपाधि-समभावमें रहनेका नाम है-सामायिक । सामायिक शब्द की अन्वर्थता हैसम यानी रागद्वेषसे रहित बने हुए को, आयो अर्थात् ज्ञानादि संपदाका जो लाभ, यानी प्रशमसुखकी प्राप्ति । यह अर्थ यद्यपि समाय शब्द ी का हुआ, तथापि समाय शब्दसे स्वार्थ ( उसी शब्दके अर्थ ) में इकण प्रत्यय आनेसे सामायिक शब्दका भी वही अर्थ समझना चाहिए । अथवा समाय यानी प्रशमसु खकी प्राप्ति है प्रयोजन जिसका, वह सामायिक है, इस प्रकार भी प्रयोजन अर्थमें समाय शब्दसे इकण प्रत्यय मिलाने पर सामायिक शब्दका अर्थ हो सकता है।
सामायिकमें बैठा हुआ गृहस्थ साधु जैसा है, इसमें क्या कहना ?, इसी लिये तो सामायिकमें बैठे हुएको देव स्नात्रपूजा करनेका अधिकार नहीं है, क्यों कि भावस्तव की प्राप्ति के लिए द्रव्य स्तव का अवलम्बन करना पडता है । सामायिक करने पर तो भावस्तव जब प्राप्त हो ही जाता है, तो फिर ( सामायिकमें बैठे हुएको) देव स्नात्रपूना करनेका कोई प्रयोजन नहीं देखते ।
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অমীহীং৷ सामायिक लेके समभावसे प्रसन्न मुँहसे खुशदिलसे और शरीरकी अचपलता पूर्वक धर्मशास्त्र पढना चाहिए । संसारकी बेशुमार दुःखमय उपाधियोंसे छुटकर निवृत्तिकी सडक भूत सामायिक प्राप्त हुआ, तहां भी यदि सावध प्रवृत्ति का आक्रमण होता रहे, विकथा पि. शाची की परवशता में झुकना पडे, मायादेवी की प्रपञ्च जालमें फँसना पडे, क्रोध दावानल में झम्पापान खाना पडे, अभिमानअजगर का ग्रास होना पड़े, और लोभ रूपी साँपसे मुच्छित होना पडे, तो फिर कहाँ रोना । सचमुच यह तालाब प्राप्त करके भी प्यासा रहना है, अगर सामायिक--भवन में घुसकर के भी संसार की गर्मी का दूर हटना न हो ।
____ अपार संसार महासागर में बड़ी मुश्किलीसे नर भव को पा कर जो मनुष्य विषय सुख के तरंगों में चक्कर खा रहा है,
और दो घडी तक भी आत्मश्रेय नहीं साध सकता, वह समुद्रमें गिरने पर मिले हुए नाव को छोड पत्थर पकडनेवाले जैसा महा. मूर्ख है । वही पंडित है, जिसने अपना परमार्थ साधा। वही विद्वान् कहा जा सकता है, जो संसार के विषयों के फंदेंमें नहीं फँसा । पोथे पढने मात्रसे पंडिताई नहीं कही जा सकती, किन्तु शास्त्रविद्याके मुताबिक सदाचार पालनेसे सच्ची पंडिताई मिली कही जा सकती है। “ज्ञानस्य फलं विरतिः" ज्ञानका फल है विरति-विषयों से-दुष्प्रवृत्तियों से विराम पाना-दूर हटना । ज्ञान प्राप्त हुआ, पर आचार अच्छा न हुआ तो वह ज्ञान किसी कामका नहीं, उलटा भव भ्रमणका हेतु ही बनता है । वह कम अक्लका भी आदमी स्तुतिपात्र है, अगर अच्छी प्रवृत्ति पूर्वक परमात्मा की परिचर्या करता हो, मगर विद्वान् हो के भी उपदेशमें अच्छी अच्छी बातें बता के अगर दुराचारोंमें रमण किया करता हो, तो वह आलादर्जेका मूर्ख है-फूटी किस्मतका आदमी
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धमाशिक्षा.
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है। ज्ञानके दीपने पर भी जो मनुष्य भवकूपमें गिरनेका काम करे, तो वह सचमुच जान बुझ कर ही अपने गले पर छुरी फेरनेका काम करता है।
यह पक्का समझें कि केवल ज्ञान मात्रसे क्या होगा? । वैद्य पुरुष की वैद्यविद्या वैद्यका क्या उपकार करेगी-वैद्यको आरोग्य पर कैसे पहुँचा देगी ? यदि वैद्य विधि पूर्वक औषधको इस्तिमाल न करेगा। तैरने को जानता हुआ भी आदमी यदि तैरनेकी क्रियाको अमलमें न लायगा, तो उसका ज्ञान उसे जलके पार कैसे पहुँचायगा ?, इसलिये ज्ञान ज्यादह हो या कम हो, क्रिया अगर अच्छी होगी-चरित्र पवित्र होगा, तो समझ लो! वह महात्मा है। ज्ञानके विना भी चरित्रकी पवित्रतासे महात्मा बन सकता है, मगर चरित्रके बिना सिर्फ ज्ञान से ज्ञानी नहीं बन सकता, इसलिये चरित्रकी शुद्धि करना मानव जीवन का अव्वल उद्देश है, इसी से आदमी भव समुद्रका पार ले जाने वाली स्टीमर पा सकता है और उसपर बराबर आरोहण भी कर सकता है। चरित्रकी शुद्धि-जीवनकी पवित्रता सद् विचारोंसे जन्म लेती है, बस ! सदविचारों का जन्म कैसे पैदा हो ? इसीलिये शास्त्रकारोंने दो घडी तककी सामायिक स्थिति बताई है कि जिस व्रतमें आरूढ हुआ पुरुष अपनी आत्मत्तिके सुधारनेके लिये-अपने जीवनको निर्मलता होनेके लिये अच्छे अच्छे विचारों का जन्म दे सके । दिनभर संसार चक्रको धूमाता रहा पुरुष दो घडी भी अपनी आत्माके लिये यदि न निकाले, तो कितनी अफसोस की बात? जो शरीर हमारे साथ आनेवाला नहीं है, उसके लिये सारी जिन्दगी खतम की जाय और खुद अपने लिये-अपनी आत्माके मतलबके लिये-खास आत्मिक प्रयोजनार्थ दो घडीका भी समय न निकाला जाय, यह कितनी विवेककी रोशनी ?।
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धर्मशिक्षा संसारका-विनाशी क्षणिक असार परिणाममें भयंकर, और विरसावसान सुख बुद्धिमान् लोग नहीं चाहते। प्रेक्षावानोंकी प्रवृत्तिका अव्वल उद्देश यही रहता है कि आत्मिक सचित्सुखको प्राप्त करना। आत्मिक सुख पानेके लिये कोशिश करनेका फर्ज प्राणी मात्र का है-इसी लिये कोशिश करके मानव जीवनकी सफलता करना मनुष्य मात्र का धर्म है, मगर कोशिश करना बडा कठिन है, खैर ! ज्यादह कोशिश न बन आवे तो दो घडी तक की सामायिक ही सही । प्रत्येक मनुष्य प्रतिदिन एक सामायिक तो जरूर ही करे । क्या दिनभर काम करनेवाला मनुष्य दो घडीका टाइम सामायिकके लिये नहीं निकाल सकता ? बराबर निकाल सके यदि धर्मकी गरज अपने दिलमें जोर मार रही हो । जितनी गरज पेट देवताकी पूजाकी होती है, जितनी गरज प्राणप्रिया
औरतकी होती है, जितनी गरज पुत्र-मित्रकी होती है, जितनी गरज लक्ष्मी देवीकी होती है, और जितनी गरज, बडाई महत्त्व इज्जत ओहदा वगैरह की होती है, उतनी ही क्यों ?, उससे आधी भी गरज अगर धर्मकी न हो तो अफसोस । संसारके कामोंमें, दिनरात जितनी फिक्र करनी होती है, उसके चौथे हिस्सेकी भी फिक्र धर्म के लिये अगर न जाग उठे, तो फिर धर्म प्यारा कहाँ रहा ? । खयाल रहे कि यदि धर्म प्यारा न हुआ, तो घर की रंडीका ही प्यार पहले नहीं ठहरेगा, क्यों कि संसारके सुखोंका भी प्रधान बीज सिवा धर्म के और कोई नहीं है । जो, धर्म को छोडकर सुख पानेकी चाहना करता है, वह मूर्ख नावको छोड समुद्र के पार पहुंचना चाहता है । वह, सुंदर भोजन रखने के योग्य सोने के थाल में राख फैकता है, जिसकी धर्म पर नजर नहीं जाती। उसने परमानन्दको प्राप्त करानेवाले अमृतको अपने पैर धोने में उड़ा दिया, जिसका दिल धर्म पर प्रेमाल न रहा।
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धर्मशिक्षा उसने बड़े हाथी से जो कि सम्राटको काबिल बैठने के कहा जाय, लकडियों का ढेर उठवाया, जो आत्मश्रेय संबंधी विचार करने को भाग्यशाली न हुआ। वह कौएँ उडानेमें चिंतामणि को फेंकता भया, जो घडीभर भी संसार की आफत से छुट्टी न पा सका ।
दिनभर के पुण्य पापका टोटल मिलानेका-दो घड़ी जितना वक्त जरूर निकालना चाहिए । “ दिन दिन पापकर्म की कमी होती चले" इस पर खूब ध्यान रखना। दौलत इज्जत
और भोगसंजोगके बढानेकी अभिलाषा बढती रहती है, और उ. सके लिये उद्यम भी कमरकस होता चला जाता है मगर आत्मस्वार्थकी सिद्धि करनेका प्रयत्न तो दूर रहा किंतु स्वप्न भी नहीं आता, यह कितनी घोर नींद ?। सजनो ! दो घडीका विश्राम लो!, संसार की महेनत की थकावट लो !, शांति पाओ!, स्वस्थ हो जाओ!, आत्मचिन्तन करो, कर्तव्य श्रेणी पर आरुढ हो जाओ !, आत्ममलको हटाकर पवित्रता प्राप्त करो, और सदनुभवानन्दकी लहरियोंमें अद्वैत सुख प्राप्त करो, बस ! सामायिक व्रत पूरा हुआ। दशवाँ देशावकाशिक व्रत.
com छठे दिगविरमण गुणव्रत में दशों दिशाओं में गमन करनेका जो परिमाण किया हो, उसमेंसे संक्षेप करना, इस व्रतका मतलब है, इतना ही नहीं. बल्कि प्राणातिपातविरमण व. गैरह व्रतों को भी संक्षिप्त करना इसी व्रतमें शामिल है।
छठवें व्रतमें जो दिशाओंका परिमाण किया है, उसे यावजीव श्रावक पाला करे । परंतु खयाल रहे कि छठवें व्रतमें जो बहुत क्षेत्र छुटा रक्खा गया है, वह हमेशा तो काममें नहीं आता
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१७.
धर्मशिक्षा उसका प्रतिदिन तो काम नहीं पडता, इसलिये दिन दिन-प्रतिदिन उसका संक्षेप करे, इसी प्रकार अणुव्रतादि में समझ लेना चाहिए । यह व्रत चार मास एक मास पन्द्रह दिन पांच दिन एक अहोरात्र एक दिन एक रात एक मुहून तक भी हो सकता है। दशवाँ वन पूरा भया ।
ग्यारहवाँ पोषधव्रत
अष्टमी चतुर्दशी पूर्णिमा अमावास्या इन पर्व तिथियों में पोषधवत का आदर अवश्य करना चाहिए । उपवास आंबिल और एकाशन करके भी पोषधत्रत हो सकता है । एकदिन एकरात अहोरात्र अथवा अमुक दिनों तक पोषध में बैठा हुआ मनुष्य अपने कठिन कर्मों को चूर्ण कर डालता है। पोषधत्रत क्या है मानो! अमुक दिनकी मर्यादा का साधुत्व है। पोषध शब्दका अर्थ हैपोषं यानी पोषण, अर्थात् धर्मका पोषण धत्ते इतिधः यानी करे अर्थात पुण्यका-धर्मका पोषण करनेवाला पोषध है। जिसके दिन खुश किस्मत के हों, वही पोषध करनेको भाग्यशाली हो सकता है। भवरोगको मिटानेका परम ओषध रूप पोषध श्रावक लोग अवश्य करें । पुण्यप्रकर्ष का उदय होता है तब ही पोषध व्रत की प्राप्ति होती है। दीक्षा लेना यदि न बन सके तोपोषध करके तो साधुपन की थोडी बहुत खुशबू लेनी चाहिए, ताकि भवभ्रमण का कष्ट दूर हो जाय । संयम पर जिसका प्रेम नहीं-दीक्षा लेनेकी जिसको रुचि नहीं, वह कम किस्मत का मनुष्य श्रावक धर्म का भी अधिकारी बराबर नहीं कहा जाता । कहा भी है" यतिधर्मानुरक्तानां देशतः स्यादगारिणाम् " . अर्थात् मुनिधर्मके अनुरागी-गृहस्थों (श्रावकों को देशतः चारित्रधर्म है। यही बात स्पष्ट रूपमें बताई है कि
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धर्मविधा.
१७१ “सर्वविरतिलालसः खलु देशविरतिपरिणामः, यतिधर्मानुरागरहितानां तु गृहस्थानां देशविरतिरपि न सम्यग् ”। ____ अर्थात् “ देशविरति परिणाम जो है, वह सर्वविरति की अभिलाषा करके सम्बद्ध है, यानी मुनिधर्म पर अनुराग नहीं रखनेवालों को देशविरति का भी यथार्थ लाभ नहीं है " । साधु होना न होना यह बात दूसरी है, मगर “साधुधर्म कब उदयमें आवे" यह भावना तो श्रावकों को पूरी रहती है, पीछे भले ही अन्तराय बलसे साधु होनेका मौका न मिले-साधुत्व प्राप्त न होवे ।
इससे यह बात हुई कि श्रावक लोगों को साधुधर्म जब प्यारा है, तो साधुधर्म की पूर्ण मौज नहीं उठा सकने वालोंको पोसह कर के भी मुनि धर्म के आनन्द का दिगनुभव लेना अति जरूरी है। कह भी गये हैं कि पोसह क्या है मानो! अमुक दिन की प्रवज्या है। क्या महीने भर में दो दिन एक दिन भी ऐसा नहीं निकाल सकते कि संसार की उपाधियोंको छोडकर पोसह लिया जाय ?।
तेली के बैल की तरह संसारचक्र में सारी जिन्दगी चकर खानेवाले, मोह दावानल पर अपनी आत्मा को बेहद्द रडानेवाले गदहे की तरह अपनी पीठपर संसार के बोझ से हमेशा लदे रहनेवाले कृष्ण लेश्या की उग्रता से भिल्ल सरीखे दिखाई देनेवाले, महा मोहान्ध मनुष्य जाति मात्रसे भले ही मनुष्य कहलाओ ! मगर वास्तवमें गुण नय से पशु ही है, या यों कहिए ! जंगली मनुष्य हैं। गुणवंत पशु पक्षी अच्छे, मगर निर्गुणी मोहान्ध मनुष्य अच्छे नहीं । वे लोग उनकी माँ के पेट पर पत्थर अवतरे हैं, जो मोह रूपी विष्ठा में स्वांगीणतया मग्न रहते हुए धर्म की तर्फे नजर नहीं
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१७२
धर्मशिक्षा. झुकाते । मनुष्य जन्म पा के भी यदि कार्यसिद्धि न हो तो हाय ! फिर कहां रोना ?। देखिए मनुष्यों की हालत" आहारनिद्राभयमैथुनानि सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः” ॥१॥ अर्थ:
आहार नींद भय कामचेष्टा ये सब बातें मनुष्य और पशु सर्व साधारण हैं इन बातोंसे मनुष्य और पशुमें समानता है, मगर मनुष्यों में मनुष्यत्व का चिन्ह धर्म ही है धर्म अगर न रहा धर्म अगर न पाला, तो समझ लो ! कि मनुष्य पशु के समान है ।
धन्य हैं वे गृहस्थ लोग भी, जो पवित्र–उत्कृष्ट पोषधव्रतका पालन करते हैं । पोषध के पारणे के समय में, याद रहे कि साधुओं को दान दे के पारणा करना चाहिए । उपाश्रय पर जाके मुनिओं को निमन्त्रण करे कि " लाभ दीजिए !"।
नवकार सहित ( नवकारसी) पञ्चक्खाण के वक्त श्रावक निमन्त्रण करने को आया हो, और साधुओं को नवकारसहित पञ्चक्खाण न हो, तो साधु यही कह दें कि वर्तमान जोग -इस वक्त प्रयोजन नहीं है । अगर श्रावक की तर्फसे भूरि भूरि प्रार्थना होवे तो उसका भाव रखने को साधु उसके घर गोचरी जायँ । मार्गमें श्रावक साधुओंके आगे चले । घरपर ले जाके श्रावक साधुओं से आसनपर विराजने की प्रार्थना करे, अगर साधुजी बैठे तो अच्छा, नहीं तो विनययुक्त होके श्रावक भिक्षा
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वर्मशिक देना शुरू करे । श्रावक को चाहिए कि खुद अपने हाथ से दान देनेका सौभाग्य प्राप्त करे । साधु भी अवशेष रहे इतना ग्रहण करें। भिक्षा लेके जाते हुए साधुओं के पीछे थोडी कदम तक श्रावक जाय बाद पोषध व्रत का पारणा करे। अगर चे गाँवमें साधुजी का जोग न हो तो भोजन के वक्त घर के द्वार का अवलोकन करे और सच्चे दिलसे भावना करे कि
"यदि साधवोऽभविष्यन् तदा निस्तारितोऽहमभविष्यम्"।
"अगर साधु होते तो मैं निस्तारित होता-मुझे लाभ मिलता"। (यह पोसह के पारणे की विधि)
क्या तारीफ करें आनन्द कामदेव आदि श्रावकोंकी जिनका पोषधव्रत खुद भगवान महावीर की श्लाघापर चढा । धन्य है दृढव्रती श्रावकों को, जो बडे धैर्य पूर्वक कठिन व्रतोंकी राहपर चले जाते हैं और अपनी प्रतिज्ञा को पूरी किये सिवाय नहीं - हते । जिनकी आत्मा लघु कर्मवाली है, वे ही उत्तम पोसह की राह पर संचर सकते हैं। जिनका पुण्योदय दीपनेवाला हो, वे ही पोसह तरु की मधुर छायाका आनन्द उठा सकते हैं । जिनकी हद्द तरकी पर चढनेवाली हो, वे ही पोसह रूपी किळेमें घुसकर धर्मराजे से मिल सकते हैं। जिनकी आत्मा परमानन्द पाने को भाग्यशालिनी है, वे ही पोसह रूप अमृतरसका पान करनेको उद्यत हो सकते हैं । धन्य है उन महाशयों को, जो मोहकी टांग ढीली कर के आगे बढ़ते बढते यावत् धर्मराजे के किले-पोसह तक पहुँच गये । धन्य है उन सजनों को, जो कम रूपी आगसे जलते हुए भी अपूर्व वीर्यसे पोसह रूपी सरोवरमें डूबकी मारते भये । धन्य है उन पुण्यात्माओं को, जो पोसह रूपी बगीचेमें एकाग्र चित्र हो के परमात्माका प्रणिधान करते हैं।
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१७४
विका ___ जो लोग पढकर पंडे हो गये, और व्रत-त्यागमें उद्यमशील नहीं होते, उनकी पंडिताई पर धूळ पडी। आचारका सहारा नहीं ली हुई पंडिताई किसी काम की नहीं है । इसलिये व्रत त्याग और क्रियामें उत्साही होना चाहिये । अभ्यास से शक्ति बढती है, और शक्ति के मुआफिक किये हुए तपमें दुनिका संभव नहीं होता, एवं मन वचन काया के योग हीन नहीं होते, और इन्द्रियाँ .. क्षीण नहीं होतीं। तपस्या की वृद्धि क्रम क्रमसे होती है। एकासन नीली आंबील उपचास इस क्रमसे हौले हौले धीरे धीरे तपस्या करनेका बल बढता है। खाना पीना किसे अच्छा नहीं लगता? मगर मोह उतार के तपस्या करनेवालों की ही बलिहारी है । तपस्या के बिना किसीके कर्म टूट नहीं सकते। तीर्थंकरों को भी बडी भारी तपस्या करनी पड़ी थी, तब जा के कर्मसमुद्र के पार पहुँचे । किले में पड़े हुए सैन्यको-रिपुदल को, अन्न न पहुँचाने से मरण के शरण होना पड़ता है, वैसे ही शरीर के भीतर गुंजते हुए आत्मिक-मोहादि रिपुदल भी, अन्न न पहुँचाने से (विशुद्ध तपस्या करने से) मरण के शरण हो जाते हैं, इसमें क्या सन्देह ? । पोसह वगैर के दिनों में तृष्णा को छोड संतोष पूर्वक अनेक वक्त भी हितमित आहार लिया जाय, तो यह भी एक प्रकारका तप ही है।
___ तपश्चर्या क्रोधादि कषायों को हटाकर क्रियापूर्वक करनी चाहिए । कषायवालों की तपश्चर्या फलवती नहीं होती-जितना उचित फल है, उतना नहीं. मिल सकता । यों तो तपस्या मात्र, कुछ न कुछ फल दिये सिवाय नहीं रहती, भूखे मरनेवालोंकोअज्ञानकायक्लेश उठानेवालों को परलोकमें कुछ न कुछ अवश्य ही फल मिलता है इसमें कोई सन्देह नहीं, मगर उचित फलकी प्राप्ति विशुद्ध तप से होती है। क्रिया बिना सिर्फ भूखा मरना
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૧૭૬
शिक्षा. अच्छा नहीं । जिसे परमात्मा की वचन शैलीपर श्रद्धा होगी, वह क्रियाका उत्थापन हर्गिज नहीं कर सकता। "शान क्रियाभ्यां मोक्ष:""सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः"
इत्यादि आगम वचनों से ज्ञान के साथ क्रिया की भी परमाकश्यकता मोक्षके लिये मानी गई है। आन्तरिक-भावना, अनुप्रेक्षा, प्रणिधान, स्मरण, वगैरह क्रियाओंमें मग्न रहनेवाला महात्मा, षडावश्यकादि बाह्य क्रियाओं में भी बराबर मशगूल रहता है। बाह्य क्रियाएँ केवल कायक्लेश नहीं हैं, किंतु आन्तरिक क्रियाओं करके गुंफित हैं । धर्ममें सुस्ती करनेका काम नहीं है । सुस्ती होगी तो धर्म साधन न होगा । पुरुपार्थ स्फोरायमान करके शरीर को आन्तरिकक्रियासंयुक्त बाह्यक्रियासे इस कदर जोड देना चाहिए कि अभ्यन्तर दुश्मन ढीले पड जायँ, और आत्मिक अनुभव ज्योति प्रगटे, बस! इसीलिये यह पोसह व्रत गृहस्थोंके धर्म कानूनों में भगवान्ने रक्खा है। पूरा हुआ ग्यारहवां पोसह व्रत ॥
बारहवाँ अतिथि संविभाग व्रत.
अतिथि अर्थात् मुनिजनोंको आहार पात्र वस्त्र और वसति ( रहनेका स्थान ) वगैरह देना, उसका नाम है-अति. थि संविभाग व्रत । इससे यह स्पष्ट मालूम पड सकता है कि पैसे रूपये सोना वगैरहका दान मुनिजनों को नहीं कल्पता । संसारकी उपाधियाँ-धन माल मिल्कत दुलहिन वगैरह छोडकर साधु बने, तो सोचो ! उन्हें पैसा कैसे काममें आ सकता है ? द्रव्य साधुधर्मका जब कट्टा दुश्मन है तो साधु उसे किसी हालतमे नहीं ले सकते । जो लेते हैं, वे साफ साधुपदसे बाहर हैं,
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पशिला और जो उन्हें देते हैं, वे साधुधर्म का खून पीनेवाले हैं इसमें कोई सन्देह नहीं । साधु लोग भिक्षासे अपना उदर पोषण करते हैं, भिक्षासे कपडे मांगकर पहिनते हैं, किन्तु धर्मकी सेवा के लिये-धर्मका उदय बढाने के लिये, शासनकी तरकी के वास्ते, साहित्य और मंदिरो ( देवालयों ) का पुनरुद्धार के लिये, समाजमें विद्याका फैलाव करनेके लिये और जातिका सुधार करनेके लिये लाखों रूपये खर्चनेका उपदेश देते हैं। मुनिराजों के पवित्र उपदेश से गृहस्थ लोग लाखों रूपये खर्चते है, मगर अपने वास्ते एक पाईका भी खर्च साधु लोग नहीं करवा सकते, बात भी सच्ची है कि खानेका भोजन पहिननेके कपडे रहनेकी जगह वगैरह जब मिले ही रहते हैं तो फिर किस वास्ते-किस मतलब के लिये साधुओंको पाई की भी दरकार रहे ? और ऐसी निःस्पृहता जब तक प्राप्त न हो, तबतक साधुकी हद्द पाना नहीं हो सकता, इसलिये निःस्पृही ही साधु कहे जा सकते हैं, और साधु निस्पृही ही होते हैं, सब ही तो उनसे लाखों रूपयोका परोपकारी काम हो जाता है।
देखिए ! अतिथि संविभाग के लिये जैनागम“नायागयाणं कप्पणिजाणं अन्नपाणाणं दव्वागं देसकालसबासकारक्कमजुअं पराए भत्तीए आयाणुग्गहबुधाए संजयाणं दाणं अतिहि संविभागो"। अर्थ:
न्याय (नीति ) से प्राप्त, कल्पने के जोग्य, अन्नपानी वगैरह का देश काल के अनुसार श्रद्धा से सन्मान से परम भक्ति से आत्मकल्याण की बुद्धि से संयमी (मुनि) जनों को देना यह अ
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तिथि संविभाग व्रत है। धन्य है वे लोग, जो शुद्ध आहार पानीसे वक्तपर घरको पधारे हुए साधु महाराजोंका बडे दिलसे सन्मान करते हैं । जो चीज अपने दिलको वल्लभ है-परम इष्ट है, वह साधुओंके आगे हाथमें ले के खडा रहना चाहिए, और भूरि भूरि प्रार्थना करनी चाहिए कि " साहब ! यह ले के मुझे कृतार्थ करो !"।
किन्हीं महानुभावों का कहना होता है कि "बेशक ! भोजनका दान तो जरूर मुनियों को देना चाहिए, मगर कपडा नहीं देना चाहिए, क्योंकि साधु लोग नग्न होते हैं, इसलिये उन्हें कपडा नहीं कल्पता, अगर कपडा रक्खें तो परिग्रहका प्रसंग हो जाय तो साधुपन नहीं रहे" । मगर तत्वहटिसे विचारने पर कपडे पहिननेसे. परिग्रही नहीं हो सकते । जैसे भोजन लेना शरीर की रक्षा के लिये मंजूर है, वैसे ही कपडे का भी प्रयोजन शरीर रक्षा ही है, तो फिर भोजन की तरह कपडे लेने में क्या दोष है ? अगर कहा जाय कि वस्त्र मोह-तृष्णाका कारण है, तो भला ! आहार मोह-तृष्णाका कारण क्यों न होगा ? । जिस प्रकार आहार को मोह-तृष्णा का जन्मदाता नहीं मानते हों, उसी प्रकार वस्त्र को भी मोह-तृष्णा का कारण नहीं है-ऐसा मान लीजिए ! । कपडा अगर परिग्रह है तो शरीर भी खुद परिग्रह होगा, तो कपडे की तरह उसे भी क्यों रखना चाहिए ?; और भोजन भी परिग्रह होगा, उसे भी क्यों मांगना चाहिए ।
वस्तुगत्या मूच्छी ही को परिग्रह भगवान्ने माना है। वाचक मुख्य भगवान् उमास्वांत महाराज भी
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पशिक्षा “मूर्छा परिग्रहः” इस सूत्रसे तथा" शीतवातातपैदशेमशकैश्चापि खेदितः ।। मा सम्यक्तवादिषु ध्यानं न सम्यक् संविधास्यति॥१॥
इत्यादि श्लोकों से मूर्छा ही को परिग्रह कहते हुए कपडे रखनका निषेध नहीं करते हैं । बल्कि संयम रक्षार्थ एवं उपद्रव निवारणार्थ वस्त्रपात्रादि की अनुमति देते हैं । ज्ञानार्णवमें शभचन्द्रजी तथा तत्त्वानशासनमें अमतचन्प्रसार वगैरह दिगम्बर सूरि भी वस्त्र रखने का प्रगट उद्देख कर गये हैं, बात भी सच्ची है, क्योंकि वह चौथे आरे का वक्त अब नहीं रहा, वह संहनन वह मनोबल वह धैर्य वह स्थिरता अब नहीं रहो, इसीसे तो वर्तमान कलिजुगमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं रही, अतएव यह बात सुसंभावित है कि मोक्ष रूपी फल नहीं रहनेसे उसको प्राप्त करानेवाली सामग्री-अविकल कारण भी वर्तमानमें नहीं है। संपूर्ण सामग्री रहते कार्यका उदय अवश्य होता है, और वर्तमानमें मोक्षरूपी कार्य (फल) नहीं है, इसलिये मोक्षसाधक पूर्ण साधन भी वर्तमानमें नहीं है, यह न्यायप्राप्त बात न्यायपक्षपातियोंको जरूर माननी पडेगी बस ! मोक्षसाधक पूर्ण साधन नहीं रहनेसे चारित्र की पराकाष्ठा पर आरोहण होना असम्भव है, जितना संभव है उससे नीचे गिरनेवाले, पासत्ये कुशीलक कहे जाते हैं, इससे विचारक गण समझ सकते हैं कि वस्त्रादि रहित होनेका कठिन कष्ट नहीं उठानेवाले-कलियुगके महाव्रतधारी महात्मा साधुजन, समयानुसार बराबर साधु हैं । स्थविरकल्पी और जिनकल्पी ये वास्तवमें तो. दो रास्ते ही न्यारे हैं, जिनमेंसे वर्तमान कालमें सिर्फ स्थविर क. ल्प की मर्यादा रही है और जिनकल्पी आचार उच्छिन्न हुए, जो
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वर्मशिक्षा,
૧૭૬ पहले जमानेमें सेवाते थे, और सेवनेवालों को तद्भवमें हर्गिज मोक्ष नहीं मिलता था ।
नंगे हो कर व्यवहारमें रहना यह कितना बीभत्स?। वर्त मान जमानेमें तो नंगे हो कर नगरमें चलनेवालों को शिक्षादाता चपरासी बैठे ही हैं । परमात्मा तीर्थंकर देव तो अतिशय के प्रभाव से नग्न हुए भी नग्न रूपसे नहीं दिखाते थे, वैसा अतिशय वर्तमानमें हो तो कौन नग्न होने को तैयार नहीं हैं ? । गिरिकन्दरा वननिकुंज में रह कर जो कुछ खाके जीवन चलाने के साथ आत्मसाधन करना हो, तो नग्र होनेकी कौन मनाही करता है? परंतु बतलाईए ! ऐसे वनवासी तपस्वी दिगम्बर मुनि कितने हुए; ऐसी हि कठिन वृत्तिसे तो भला! कोई दिगम्बर मुनि नहीं होता, और जो होते हैं, वे फिर दुर्दशा से लपेटाते हैं, अतएव दिगम्बर समाजमें साधुओं का दुर्भिक्ष दिखाता है, बात भी सची है कि पूर्व ऋषि-हाथीओंका अनुकरण वर्चमान कलियुग के टट्ट कैसे कर सकते हैं ! । अगर करने लगे तो मूलसे पतित हो जायँ, यह स्वाभाविक है, इसलिये समयानुसार नियमित उचित हद्दपर कयाम करना मेरी समझमें अच्छा मालूम पडता है । राजे की हवेली को देख अपनी कोठरी गिराना अच्छा नहीं । फर्ज करो कि वनवासी तपस्वी मुनि हो भी जायँ, मगर उनका व्यवहारमें प्रचार नहीं होनेसे-ग्राम नगरादिमें संचार नहीं होनेसे तीर्थप्रवृत्ति तीर्थप्रभावना तीर्थरक्षा वगैरह कैसे बन सकेंगे? । पहले जमानेमें तो नम भी-अनग्न भगवान्की देशना त्रिलोकी को फायदामंद होती थी। अलावा तीर्थकरोके स्थविर कल्पी भी मुनिगण बहुत थे,जिनकी तर्फसे तीर्थका प्रबल अभ्युदय होता रहता था ।
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धर्मशिक्षा.
मगर वर्तमानमें (कलियुगमें) जिन कल्प की झंडी फरकाना सरासर जैन शासनको नीचे गिरानेका काम है । स्थविर कल्पी मुनि न होते तो वर्तमानमें जैन समाजमें बिनगुरुका कलंक नहीं हटता ।
यह तत्त्व जितना स्फुट है, उतना ही बहुत वक्तव्यों से भरा है, मगर लेख गौरव न हो. इसलिये इस विषय को संकोचता हुआ आखिरमें इतना ही कह देना समुचित समझता हूँ कि मध्यस्थ दिलसे इस बातका पुख्ता विचार करो, इसमें हमारा कोई दुरभिनिवेश नहीं है।
__ मूल सूत्रोंमें वस्त्रादिका रखना साफ बताया है, देखिए ! भगवती का पाठ. "समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असणपाणखाईम साइमेणं वत्थ पडग्गह कंबल पायपुंछणेणं पीढफलगसेज्जासंथारएणं पडिलामे माणे विहरई"।
इस पाठ से वस्त्र कम्बल वगैरह का रखना साफ प्रकाशित होता है । सूत्र ही अगर माननीय न हों, तो क्या कहें ?।
धर्मात्मा-महात्माओंको अन्न वस्त्र वगैरहका दान देना, न कि सोने रूपयेका । साधर्मिक-सज्जन गृहस्थों को धनसे सहायता देना पुण्य कर्म है, मगर फकीर-साधुओं को फूटी पाईका भी दान नहीं देना, यह दान क्या है, अधर्म ही है । जिसके देनेसे क्रोध लोभ व कामका उद्रेक होता है, वह द्रव्य फकीरों को काबिल दान देने के नहीं है । जिसका विदारण होने पर जन्तुओं के देर मरण के शरण हो जाते हैं, वह पृथ्वी भी दान देने के योग्य
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૧૮
पर्वशिक्षाः नहीं है । जो जो हिंसक शव जिससे बनाये जाते हैं, उस लोहेका दान दयालु शास्त्रकार पसंद नहीं करते । अर्धप्रसूता ( मानो ! मर रही न हो) गाय को पर्व दिन रोज दान देनेवाला भी धार्मिक गिना जाता है, यह कैसो धर्म नीति ?। अशुचि चीजें खाने वाली और खुर से जीवों को हननेवालीगायके भी दानको धर्म में शामिल माननेवाले कितने अक्लमंद होंगे ? । स्वर्णमय रूप्यमय तिलमय घृतमय गाय को हिस्सेसे बांट लेने वालों को देनेवाले दाता को न मालूम क्या फल होता होगा ? । कामासक्ति की कारण, बन्धुओं के स्नेह रूपी पेड के लिये दावानल समान, कलह की उत्पत्ति भूमी, दुर्गति के द्वार की कुंजी, मोक्षद्वार की अर्गला, और आफत पैदा करनेवाली-कन्याके दान को भी कल्याण के लिये फरमाते हुए आगम को धन्य है।
विवाह के वक्त दायजे का दान, जो धर्म बुद्धि से देते हैं, वह भी भस्म में घृतहोम के समान है । संक्रान्ति वगैरह दिनोंमें जो दान की प्रवृत्ति चला दी है, वह भी मुग्धों का ही काम है। मरे हुए की तृप्ति के लिये जो दान दिया जाता है, वह क्या है, मानो ! फल फूल की इच्छासे मुसल को पानी का सिंचन ही करना है । ब्राह्मणों को भोजन देने पर पितृलोग अगर तृप्त हो जाते होतो, एक मनुष्य के खानेपर दूसरा तृप्त क्यों न होगा। पुत्रका दिया दान यदि पितृलोगों के पाप को हननेवाला हो जाता हो बतलाईए ! पुत्रका किया हुआ तप पिताओं को मुक्तिसे क्यों न भेटा देगा ?। गंगा गया वगैरह स्थलों पर दान देनेसे पितृजन यदि तैर जाते हों तो वहीं पानीका अभिषेक करनेसे अन्यत्र आगसे दग्ध हुए पेड क्यों न पुनरुज्जीवित होंगे ?।
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१८३
परिक्षा श्रोत्रिय को बैल बकरा वगैरह कल्पता हुआ दाता पुरुष, अपने और पात्र पुरुष को दुर्गतिमें गिराता है । धर्मबुदिसे अ. योग्य वस्तु को देता हुआ-दाता जितना पापलिप्त नहीं होता, उतना पापलिप्त दोष को जानता हुआ भी लेनेवाला पुरुष होता है। अपात्र जन्तुओं को हनकर पात्र को पोषते हुए मूर्खजन अनेक मेढकों को हनकर सांप को क्यों नहीं पोषते ?।
आहेतमत यह है कि सोना रूपया वगैरह का दान सं. यमी को नहीं देना, और अन्न आदिका दान मोक्ष-फलके लिये पात्र ही में देना ।
उत्तमपात्र मध्यमपात्र जघन्यपात्र कुपात्र और अपात्र का पुख्ता निरीक्षण करके पात्र ही में दान योग्य चीज का वितरण करना चाहिए । उत्तम पात्र हैं-महाव्रत धारण करनेवाले पांच समितियों करके समित तीन गुप्तिओंसे गुप्त समतापरिणामी मोक्षाभिलाषी जीवहितैषी महात्मा निःस्पृही मुनिलोग । मध्यमपात्र-शुद्ध श्रद्धालु व्रतधारी मुनिधर्माभिलाषी दयालु और न्यायसंपन्न गृहस्थ लोग हैं । जघन्यपात्र-शुद्ध श्रद्धालु शासन दीपक अत्रती महाशय हैं। ये तीन प्रकारके पात्र हुए, इनमें योग्य वस्तुका वितरण, तरतमभावसे अधिकाधिक फलदायक होता है । कुपात्र वे हैं, जो कुशास्त्रों के श्रवणसे वैरागी हो के. साधु-तपस्वी हुए हो, और कन्दमूल फल वगैरहसे जीवन चलाते हों, वे कषाय कपडे पहिननेवाले अथवा नंगे रहनेवाले शिखा-जटा धारण करनेवाले मठमै वा जंगल में रहनेवाले पांच अग्नियों को सहनेवाले शरीरपर भस्म-राख लगानेवाले स्वमतिकल्पनासे धर्माचरण करने पर भी मिथ्यादर्शनसे दूषित बने हुए एकदंडी वा त्रिदंडी, बाका जोगी वगैरह कुतीथि लोग हैं।'
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बलिया
૧૮૨ हिंसा का सत्कार करनेवाले परिग्रह आरम्भमें मशगूल बने हुए कामासक्त असंतोषी मृषावादी धूर्त क्रोधी मांसभक्षी और कुशास्त्रीयविद्यामात्रसे पंडितमानी-गुरुमानी लोग अपात्र हैं पात्रके शुभारमें नहीं है । पूर्वोक्त मिथ्यादर्शनी बावालोग तो बुरे पात्र हैं-निन्दनीय पात्र हैं, मगर ये बुरे भी पात्र नहीं हैं, इसलिये अपात्र माने गये । इस प्रकार अपात्र कुपात्र का परिहार कर के विवेकी शाणे लोग पात्रदानमें प्रवर्तते हैं । दान मात्र सफलफलवान् है । पात्रमें दिया दान धर्म फल को पैदा करता है और अपात्र कुपात्रमें दिया दान तरतमभावसे अधर्म का जन्मदाता है। सांप को दूध पिलाना जैसे विष की वृद्धि के लिये होता है, वैसे अपात्र कुपात्र को दान देना, संसार वृद्धिके लिये होता है। जैसे कडुवी तुम्बोमें डाला हुआ स्वादिष्ट दूध खराब होजाता है, वैसे शुद्ध भी दान अपात्र कुपात्रमें पडनेसे दूषित होता है। अपात्र कुपात्रको दी हुई पृथ्वी भी फलके लिये नहीं होती, किंतु पात्रमें दिया हुआ ग्रास (लुकमा) भी बड़े फल के लिये होता है।
पात्रापात्रका विचार मोक्ष संबंधी दानके विषयमें किया जाता है, मगर अनुकम्पादान-दयादान तो कहीं निषिद्ध नहीं है । पात्र हो या कुपात्र हो सबकी क्लेशदशा-दुःखावस्था पर दयालु होना चाहिए । दुःखके प्रतीकारार्थ यथाशक्ति प्रयत्न करना चाहिए । पापी हो या धर्मी हो दुश्मन हो या मित्र हो सबपर दयादान करना । दुःख सबको प्रतिकूल है, इसलिये दुःखसे छुडवाना, पिपासु (प्यासे) को पानी पाना मरते हुए को रोटी देना ऐसा दयादान धर्ममें शामिल है। जिन्हें दुःखी को देख दया न आई उसको बेधडक पत्थर जैसे कठिन दिलका कहना चाहिए । वह धमकी हद्द पर अभी नहीं पहुँचा, जो दुःखी के दु:
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धर्मशिक्षा. खका प्रतीकार नहीं करता हुआ अपनेही पेटकी पूजा करनेमें मशगूल रहता है।
" दानेन भोगानाप्नोति "-दान से भोग मिलते हैं ' ऐसा कहना विनाविचार का है क्योंकि अनर्घ्यपात्र दान का क्षुद्र भोग क्या फल है ?। पात्रदान का मुख्य फल है-मोक्ष, जैसे कृषिका धान्य । और भोग, प्रासंगिक फल है, जैसे कृषिका घास। ___अहीरके लडके दरिद्र संगम ने भीख मांग के पैदा की हुई क्षीर को सुपात्रमें दे के वह पुण्य उपार्जन किया, जिसके जरिए वह सुभद्रशेठ के घरपर जन्म ले के वहां पर स्वर्गसे उतरती हुई स्वर्गीय भोग सामग्री के अद्भुत आनन्द भोगने को सौभाग्यशाली हुआ, जिसका नाम शालिभद्र कथानुयोगमें मशहूर है । ऐसा पात्रदान का अद्भुत प्रभाव देख पात्रदानमें कंजूसी नहीं रखना । दिलके दलेर हो के द्रव्य का सदुपयोग करना, यही धनियों के लिये धर्म का सुगम रास्ता है। दरिद्र मनुष्य भी रोटी से पात्रदान का सौभाग्य बराबर प्राप्त कर सकते हैं। दो रोटी में से आधी भी रोटी पात्रमें दे के दरिद्र लोग अपना दारिद्रय बखूबी रफा कर सकते हैं । धन्य है पुनिया श्रावक को, जिसका हाल पहले बता चूके हैं । तब ही तो कल्याण होता है और मनुष्य तकदीरवर-खुशकिस्मत होता है । परमार्थ काम किये सिवाय किसी हालतमें स्वार्थसिद्धि नहीं हो सकती । मरना एक ही बार है मगर " पेट भरा भंडार भरा " कभी नहीं होना चाहिए । अपना पेट तो कुत्ते गदहे तक भी भर लेते हैं मगर दूसरे की भलाई करना यही मानव जीवन का प्रगट तत्त्व है। इस भयंकर भवदावानल में पाप अग्नि से जलते हुए
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धर्मशिक्षा
૧૮૧ प्राणिओं को धर्म ही शान्तिदाता है । अपार भीषण भव जंगलमें सहारा देनेवाला चौकीदार धर्म ही है। बदौलत धर्मकी दौलत प्राप्त होने पर भोगासक्त होना-विषयानन्दमें मग्न रहना और धर्मकी थोडी सी भी सम्हाल न लेना यह कैसी और कितनी क्षुद्र त्ति ? । विषयों के अनन्य अनुचर बने हुए प्राणी ऐसा। एक दिन जरूर पायेंगे कि उन्हें विषयभोग छोडना होगा जब यही बात है तो फिर यही चाहिये कि विषय अपने को थप्पड दे के न जायँ, किन्तु अपने ही विषयों को तिरस्कार कर छोड दें। यह खयाल रक्खो कि" अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषया वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममूनु ? । व्रजन्तः स्वातन्त्र्याद् अतुलपरितापाय मनसः
स्वयं त्यक्ता ह्येते शिवसुखमनन्तं विदधति”॥१॥ अर्थ:
विषय चिरकाल तक भोगे हुए भी एक दिन अवश्य चले जायेंगे, तो फिर मनुष्य ही उन्हें क्यों नहीं छोड देता-वि. षयों से तिरस्कृत होने के पहले ही उन्हें क्यों नहीं हटा देता ? । जब कि विषयों के तिरस्कार से या हमारे तिरस्कार से विषयों का व हमारा वियोग होनेवाला है ही है-दोनों में से एक प्रकार से हमारा व विषयों का वियोग होना सिद्ध ही है तो फिर विषयों को हम ही क्यों न छोड दें ?। विषयों की तर्फसे वियोग होने के पहले ही हमारी तर्फ से विषयों का वियोग होना चाहिए-विषय हट जाने चाहिएँ। फर्क अगर यह मालूम पडता हो कि “जहांतक विषय सामग्री मौजूद है, वहांतक विषयानन्द क्यों न भोगे?, वि.
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धर्मशिक्षा.
१८६ षयानन्द का लाभ अपने हाथ से क्यों खो दें। जहांतक विषय सामग्री की मौजूदी होगी, वहांतक चांदी काटेंगे ( मौज उडावेंगे)। जब विषयसामग्री चली जायगी, तब देख लेंगे, मगर याद रहे कि विषयों की तर्फ से उनका व हमारा वियोग होना सरासर दुःखों का जन्मदाता है, और हमारी तर्फसे विषयों का वियोग होना निरतिशय-परमानन्दका संपादक है । यह बडा भारी वैलक्षण्य, दोनों वियोगोंमें जिनके ध्यानमें पुख्ता प्रतीत हुआ है, वे धर्मात्मा महाशय पुरुष विषयों के आधीन नहीं रहते । किन्तु विषयों से छुट्टी पाने के समर्थ होने से धर्म की मौन उठाया करते हैं, और अपनी आत्मा का परमार्थ अच्छा साधते चल जाते हैं । सज्जनो! विषयोंमें ममता हटाकर समता देवीका शरण लेना चाहिए । समता ममता से पूर्ण विरोधवंती है। ममता का पल्ला जहांतक पकडे रहोगें, वहांतक समता देवी का दर्शन आकाश में रहा समझो। समता ममतारूपी सांपनीका जांगुली मंत्र है । समता शब्द को भी विपरीतरूपमें रखनेसे तामस का दर्शन होता हैं तो भला ! समता वस्तु से विपरीत होना क्योंकर तामसवृत्ति का उत्तेजक न होगा ? । अतः विषयों से मच्छित न हो के समता भाव-संतोष परिणति में मग्न होना यही श्रेयसाधक है, तब ही अतिथि संविभाग व्रत को पूर्ण उत्तेजन मिलेगा, और संत महांतों की चरण सेवासे परमपद हासिल होगा।
पूरा हुआ बारहवाँ व्रत अतिथि संविभाग । ' इति भावकधर्म-द्वादशवतनिवेदनम् ।
- ये बारह व्रत बता दिये, इन पालना गृहस्थ लोगोंका - अपर फर्ज है। इन व्रतोंका मूल-समकीत है, सिवाय सम्यक
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धर्मशिक्षा.
૧૮૦ त्वके कोई भी व्रत, कष्ट, तपश्चर्या, मोक्षके साधक नहीं हैं, इस लिये सम्यकत्व पहेले हासिल करना चाहिये ।
___ सम्यकत्व शुद्ध श्रद्धाका नाम है । शुद्ध श्रद्धा किसकी ! जिस विषयका विपरीत भान, संसार वर्धक है, उस विषयकी यथार्थ श्रद्धा-समकीत कही जाती है, वह विषय कौन ? देव गुरु और धर्म ।
सुदेवसुदेव यानी सच्चा देव, अर्थात् परमेश्वर । परमेश्वरके विषयमें बहुतोंकी भिन्न भिन्न राय है, मगर तत्वदृष्टिसे सोचनेपर यही स्फुरण होता है कि“सर्वज्ञो जितरागादि-दोषस्त्रैलोक्यपूजितः। यथास्थितार्थवादी च देवोऽहन परमेश्वरः" ॥१॥ अर्य. सर्वज्ञ ( समस्त पदार्थोंको-भूतकाल, वर्तमानकाल और भष्यिकाळ, इन तीनों काळकी-सुक्ष्म, बढी, दर, नजदीक, व्यवहित, प्रगट, समाय-सकल नोक अलोककी चीजें जानने वाला,
और राग, देष, मोह वगैरह दूषणोंसे विककुळ मुक्त हुआ, तीनों जगत्से पूजिक, मोर यथार्य उपदेशक-सद्भत तत्त्वज्ञानका प्रकाशक स्वर कहावा है, भले ही पीछे उसका दूसरे नामोंसे न्या. हार , मगर हेपर वस्तु, ऐसी होतो है, इसमें कोई सन्दा नहीं।इपरके नाम
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धर्मशिक्षा.
१८८
"अर्हन् जिनः पारगतस्त्रिकालवित् क्षीणाष्टकर्मा परमेष्ट्यधीश्वरः । शम्भुः स्वयम्भुर्भगवान् जगत्प्रभु
स्तीर्थंकरस्तीर्थकरो जिनेश्वरः " ॥१॥ अर्थ:_अर्हन् , जिन, पारगत, त्रिकालज्ञ, क्षीणाष्टकर्म, परमेष्ठी, अधीश्वर, शम्भु, स्वयम्भु, भगवान् , जगत्प्रभु, तीर्थकर, तीर्थकर, जिनेश्वर, स्याद्वादी, वीतराग, पुरुषोत्तम, विश्वनाथ, सर्वज्ञ, देवाघिदेव वगैरह नाम ईश्वरके हैं । नामके स्मरणद्वारा और मूर्तिके पूजनद्वारा ईश्वरकी भक्ति होती है। जो लोग मूर्तिपूजाको पसंद नहीं करते-मूर्तिपूजामें गुणप्राप्ति नहीं मानते, उनकी बड़ी भारी भूलहै, वह भूल दूसरे ग्रन्थोंसे देख लेना, यहां इसका जिक्र नहीं करते । उक्त लक्षणके ईश्वरकी उपासनामें पावंद रहना, और विपरीत लक्षणके किसीको ईश्वर न समझना यह देवविषय श्रद्धा कही जाती है।
सुगुरुदेवतत्त्वका प्रकाश करनेवाले गुरु हैं । धर्मकी पहचान करानेवाले गुरु हैं । संसारके क्लेश हटानेका उपाय बतानेवाले गुरु है। मगर गुरुकी तलाश करनी चाहिए। अच्छे-शुद्ध गुरुहीसे आत्मकल्याणका संपादन हो सकता है।
. .. गुरुके लक्षण ये हैं“ महाव्रतधरा धीरा औक्षमात्रोफ्नीविनः ।
सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरको माता" ॥१॥
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धर्मशिक्षा.
૧૮૬ पांच महाव्रतोंको पालनेवाले धीरजवाले भिक्षासे जीवन चलानेवाले समताभावमें रहनेवाले और धर्मोपदेश देनेवालेशुद्ध धर्मकी प्रवर्जना करनेवाले गुरु हैं । ऐसे ही गुरु स्वयं संसार सागरसे तैरते हुए औरोंको भी तैरानेमें समर्थ होते हैं। भांग गांजा फूंकनेवाले द्रव्य रखनेवाले रेल इक्का गाडी घोडा वगैरह वाहनपर सवारी करनेवाले कषायोंसे भरे हुवे लोग गुरु नहीं हो सकते । पूर्वोक्त-गुरुके लक्षणोंसे विपरीत ढंगवाले गुरु नहीं हैं, किंतु साधु वेष के झूठे आडम्बर से लदे हुए होने से कुगुरु कहे जाते हैं, इनको गुरु नहीं समझना और उक्त लक्षणलक्षित सद्गुरुकी सेवा करना, यह गुरुतत्वविषयक श्रद्धा है। ... सुधर्म
परमात्मा अईन देव का बताया हआ वीतरागधर्म धर्म है । उसी पर धर्मबुद्धि रखना उसीको यथाशक्ति पालना और असर्वज्ञ कथित दोषवन्त धर्मोंको न मानना, यह धर्म विष. यक श्रद्धा है।
देव गुरु धर्म इन तीन तत्वों पर पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिये । मिथ्यात्विओंके झूठे प्रभावोंको देख वीतराग धर्म पर रत्ती. भर भी आशंका अरुचि नहीं लानी चाहिए, तब ही सम्यक्त्वका स्पर्श होगा । सम्यक्त्व के सौभाग्य रहित तपस्वि लोगों के कष्टानुष्ठान जो फल नहीं दे सकते, वह फल सम्यक्त्वशाली गृ. हस्थोंको मिलजाता है, इस लिये देवमें देव बुद्धि, गुरुमें गुरु बुद्धि, और धर्म में धर्म बुद्धि रखना । अदेवमें देव बुद्धि, देवमें
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अशिक्षा.
धमाशक्षा
अदेव बुद्धि, अगुरु गुरु बुद्धि, गुरुमें अगुरु बुद्धि, अधर्म में धर्म बुद्धि और धर्म में अधर्म बुद्धि नहीं रखनी चाहिए ।
इस विषय का जितना विवेचन किया जाय उतना थोडा है। मगर यह पुस्तक मोटी न हो जाय इस लिये गम्भीर विषय को भी दोही अक्षरों में पर्याप्त करना पड़ा है और इसीलिये-जगत्कर्तृत्व वगैरह विषयों के कुछ विशेष निवेदन करने को-पहले कह चुका हुआ भी आगे नहीं बढा हूँ। मौका मिला तो आगे देखा जायगा । ओं शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
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समाप्ता धर्मशिक्षा. SSERESEASESSES
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शुद्धिपत्र -
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पति
अशुद्ध
लेती
. लाती
2
शुद्ध
लेती लाते समक्त
समझ विलक्षणे विलक्षण नु रुप नुरूप क्षणमें
क्षण के अन्त में रुषियों
ऋषियों संप- . संपत्ति च्छूि
पित नान्यत्रै नान्यत्रे दर्शनम दर्शनमें . रूपकी चड रूपकीचड आत्मामें और आत्मा और
च्छूि
पितृ
आवश्यक्ता आवश्यकता झुठा झूठा न्यायकुसुमाञ्जलिमें . धूमा
जरियेसे
१८
घूमा ।
रिएसे
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१४
लीये
१३४
कम
१४१
१४४
१४६ १५१
१५
इसमें
१५५
कमे जना
जैनी वायव्य इन वायव्य तथा उ
परवनीचे इन बजता बनता इनमें वात
बात स्वाति
स्वाति "वास्तवमें तो" यह पद "स्थविर
कल्पी" इसके पहले रख के पढ़ें। हो हो तो ऐसा। ऐक ऐसा ऐक
चले सम्यकत्व सम्यक्त्व
- १७
है..." .......
१८५
चल
१८६ १८७ ।
पहिले
१५
भष्यि
भविष्य
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हमारी लायब्रेरी संबन्धी निवेदन
पाठकों को विदित ही होगा कि लक्ष्मीचन्द्रजैनलायब्रेरी को स्थापित हुए आज करीब तीन वर्ष हुए हैं । थोडे अर्से की जन्मी हुई इस लायब्रेरी ने अपने कर्तव्यों को किसकदर पालन किया है यह उसके कामों से स्पष्ट ही प्रतीत होता है।
इस पुस्तकालय में गुजराती हिन्दी उर्दू फारसी इंग्लीश संस्कृत भाषा की हजारों पुस्तकें मौजूद है। और प्रतिदिन बढती भी जा रही हैं। अलावा इनके हिन्दी गुजराती बङ्गाली इंग्लीश वगैरह भाषाओंके प्रसिद्ध प्रसिद्ध मासिक पाक्षिक साप्ताहिक दैनि क अखबार भी बहुत से आया करते हैं। मगर यह तो प्रसिद्ध ही बात है कि बालक का जीवन जैसे माता पिता वगैरह के सुकोमल करकमल युगल से आनन्दपूर्वक बढता जाता है-उदयश्रेणीपर आरोहण करता है, वैसे ही पूर्वोक्त छोटी-उम्रवाली पुस्तकालय पर सजनमहाशयों का हस्तावलम्बन होना बहुत अपेक्षित है और अवश्य होना चाहिए तब ही इस लायब्रेरी की उदयकिरणे सर्वत्र अस्खलित फैल सकेंगी।
प्रत्येक जैनरन्धु का फर्ज है कि इस पुस्तकालय को उदय करने की चिन्ता में स्थापित रक्खें । निःस्वार्थी इस पुस्तकालय . का परम स्वार्थ यही है कि समाजमें वांचन का शौक बढाना, प्रजाको विद्यास्वाद के व्यसनी बनाना और परम सत्य सनातन निश्चल तत्त्व का प्रचार करना, बस ! यही उद्देश यही स्वार्थ और यही मतलब शासन देव पूरा करें यही अन्तःकरण से चाहता हूं।
लेखकश्रीलक्ष्मीचन्द्र जैनलायब्रेरी लक्ष्मीपुत्र बेळणगंज-आगरा । फूलचंदजी वेद
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उक्त लायब्रेरी की विक्रयार्थ-पुस्तकों को सूची
१ पाश्चनार्थचरित्र. संस्कृत मूल्य रू. ३-०-० २ श्रावकाचार. हिन्दी
०-५-० ३ व्याख्यान दयाधर्म ,
བ་-བ ४ न्यायशिक्षा
०-४-० ५ न्यायकुसुमाञ्जलि संस्कृत
०-४-० ६ न्यायतीर्थप्रकरण
भेंट ७ धर्मशिक्षा हिन्दी
१-०-० ८ जैनधर्म प्रकाश
०-५-६ ९ हीरविजयसूरिजी की अष्टप्रकारी पूजा ०-१-० १० हीरविजयसूरिजी का फोटा (जिसमें सूरिजीमहा
राज अकबरबादशाह को प्रतिबोध दे रहे है ) -0-६
इनके अलावा यशोविजयजैनग्रन्थमाला वगैरह की पुस्तकें भी हमारी लायब्रेरी में से खरीद कर सकते हैं।
मिलनेका पता१ श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन लायब्रेरी
बेलणगंज आगरा. ५ श्री विजयधर्मसूरिमंडल -
__ नमकमंडी आगरा.
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________________ આ વર), Calc Philo કcીપ Aller! なたと Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com