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________________ १२४ धर्माशेक्षा नको कोटी उपायोंसे सिद्ध नहीं होतीं, वे संतोषी महात्माको अनायास-अप्रयास ही सिद्ध होजाती है, इसमें कोई सन्देह नहीं। धन्य है पुनिया श्रावकको, जो, दो आनेकी पूंजीमें, " एक दिन वह श्रावक उपवास करे, एक दिन उसकी औरत उपवास करे " इस रीतिसे, घरमें एक जनका बचाव करके उसकी जगह महात्मा धर्मात्माके पात्रमें भोजन देता था, कितनी आश्चर्यकी बात है कि इतनी भयंकर दरिद्रताकी गर्मी में भी इतना संतोष, इतना धर्मकी ओर खयाल रहना । हमारे कितने ही दौलत मंद साहब तो पेट देवताकी खबर लेते हुए " धर्मका क्या हो रहा है, जातिकी दुर्दशा कैसे दूर हो, " इस बातकी तर्फ नजर भी नहीं झुकाते। कितने ही लोगोंके लिये “ चमडी टूटे, मगर दमडी न टूटे" यही बात है । हा ! ऐसी दशा, जातिमें कहांतक ठहरेगी? , ऐसे मख्खी चूस लोग, कब धर्म चूस होंगे ?।। खयाल रहे कि धर्मका अभ्युदय, खास करके जैसे विद्याके ऊपर आधार रखता है, वैसे लक्ष्मी पर भी आधार रखता है । बेशक! विद्या असाधारण कारण है, तो विद्याके सहायकोंमें लक्ष्मी भी प्रधान कारण है । लक्ष्मीकी सहायता रहित केवल विद्यासे कार्य सिद्धि कठिन देखते हैं, इसलिये धनि लोगोंको थोडीसी तृष्णा हटाकर धर्मकी खबर लेनी चाहिए-धर्ममें पैसेका सदुपयोग करना चाहिए। धन, धान्य, सोना, रूपा, कुष्य, खेत, इमारत, दो पैरवाले मनुष्य-पंखी वगैरह, और चार पांववाले पशु जानवर आदि, यह नव प्रकारका बाह्य परिग्रह है। राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, शोक, हास, रति, अरति, भय जुगुप्सा, वेद और मिथ्यात्व, ये चौदह अभ्यन्तर परिग्रह हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034803
Book TitleDharmshiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherGulabchand Lallubhai Shah
Publication Year1915
Total Pages212
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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