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धर्मशिक्षा.
१२३ ताभी हुआ, मगर " जहां तक इन्द्रका लोकोत्तर ऐश्वर्य न मिला वहांतक कुछ नहीं," इस तृष्णामें गोतें मारता है, बस ! आशा. का कोई थाह नहीं।
सगरचक्रवर्ती, साठहजार पुत्रोंसे तृप्त न हुआ। कुचिकणे ग्रामनेता गायोंसे तृप्त न हुआ। तितकशेठ, धान्यसे तृप्त न हुआ। और नन्दराजा, सोनेकी राशिसे संतुष्ट न हुआ। परि. ग्रहरूपी ग्रहका जोर यहांतक है कि उसके फंदेमें आये साधु जन भी, तप श्रुतपरिवार युक्त-शम साम्राज्य संपदासे रहित हो जाते हैं। असंतोषी, चक्रवर्तीको उतना सुख नहीं, असंतोषी इन्द्रको भी उतना आराम नहीं, जो सुख, जो आराम, निरभिमानी संतोषी महात्माको है । उसके सनिधि (पास ही) में महा पद्म वगैरह निधियाँ हैं, उसका पल्ला कामधेनु नहीं छोडती, और देवता लोग भी उसके किंकर बन जाते हैं जिसको संतोषरूपी गहना अलंकृत कर रहा है। क्या सन्देह है कि संतुष्ट साधु लोग, शमके प्रभावसे, तृणके अग्र भागसे भी रत्नोंकी दृष्टि कर देते हैं, और सुरपतियोंसे भी अहमहमिकासे (मैं पहला मैं पहिला इस रीतिसे) पूजाते हैं ।
संतोष, संसारमें आलादर्जेका वशीकरण मन्त्र है । संतोष, शरीरकी तंदुरस्तीका अद्वितीय-असाधारण औषध है। संतोष दारिद्रयका कट्टा दुश्मन है । संतोष, धर्मराजेके प्रासादमें प्रवेश करनेका अव्वल दरवाजा है । संतोष मोहराजेके सेनावलको चूर्ण करनेवाला है। संतोष, रागरूपी केसरीका भी शिकार करनेवाला है। संतोष, द्वेषरूपी उन्मत्त मातंगका भक्षण करनेवाला है। संतोष, सब तपस्याओंका अग्रेसर है। संतोष मिला, तो समझो ! त्रिलोकीका साम्राज्य मिल गया । जो अभिलाषाएँ, असंतोषी-मूर्छावा
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